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जैन साहित्य संशोधक.
[ भाग 1 छे ) ए बे रूपर्नु ज मागधी रूपो साथे साम्य ज- अन्तर्हित थई अने तेने स्थाने सौराष्ट्रना प्रभावे श्रीहे. णाय छे. परंतु व्यंजन विकारमां तो एक पण रूप माचार्यजीना आठमा अध्यायमा प्रयोजाएल प्राकृत एवं नथी जणातुं के जेनं मागधीनां ते रूपो साथे भाषानो प्रयोग थयो. आम छतां तेनी प्राकृत भाषानी साम्य होय.
प्राचीनता कांई समूळगी विणसी नथी, एटले विद्यआवी वस्त स्थितिना लीधे सहज प्रश्न थाय छे मान अंगोमां पण केटलांक प्राचीन रूपो ( आर्ष के, जे अंग साहित्यनां रूपोमा मात्र बेज रूपो रूपो ) रहेलां छे, पण ते मागधीनां तो नहीं ज. एथी मागधी जेवां होय अने बीजां बधां रूपो प्राकृत विद्यमान अंग साहित्यने अर्धमागधीमय अंग साहिजेवां होय तो, शं ते साहित्यनी भाषा मागधी ग- त्यथी जुदूं मानवा साथे तेनी भाषाने पण आष णाशे के प्राकृत ? आ प्रश्ननो जे उत्तर आवे छे प्राकृत मिश्रित सौराष्ट्री प्राकृत कहेतां जरा पण ते ज उत्तर 'अत्यारना अंगसाहित्यनी भाषा कई ?' अप्रामाण्यनो भय रहे तो होय, एवं उपरना हेतुए प्रश्नने लागु पडे छे.
ओथी जणातुं नथी. समस्त अंगसाहित्यनी भाषामां मळी आवता छवटे आ संबंधे विशेष विचार करी विद्वानो मात्र मागधी भाषाना रूप द्वितयने ज आश्रीने ते पति पोतानो विशिष्ट अभिप्राय प्रकट करशे तो हुँ भाषाने मागधी के अर्ध-मागधी कहेवानं साहस मारा विचारोनी पुनः सत्यासत्यतानी कसोटी करी कोई पण साक्षर करे ए संभवतुं नथी. आम होवा शकोश.* छतां प्राचीन प्रवादने मान आपवा खातर आचार्य हेमचंद्रजीए अने वृत्तिकार अभयदेवसरिजीए मात्र हारभद्रसारना समयानणय." दोढ पंक्ति द्वारा पुलिंगी प्रथमाना एकारान्त प्रत्ययवाळा रूपने आश्रीने विद्यमान अंगसाहित्यनी (ले०--श्रीयुत हीरालाल अमृतलाल शाह, बी. ए.] भाषानी अर्धमागधीमयता होवार्नु जे जणाव्युं छे १) मुनिश्री जिनविजयजी महाराजे हरिभद्रसूरिते इतिहासमूलक छे, के श्रद्धामूलक छे ? ते वाचको ना समयनिर्णयना संबंधमां बहुपरिश्रमपूर्वक घणा पोते ज विचारी शकशे.
प्रमाणो एकत्र करी जे ऊहापोह कर्यो छे अने तेना उपरना हेतुओथी हुँ तो आ अनुमान उपर परिणाम रूपे जे समय तेमणे नक्की कर्यो छे ते संबंआव्या छु के, गणधर महाशयोना समयनुं अंग धमां स्फुरी आवता मारा केटलाक विचारो हुं अहीं साहित्य, ज्यां सुधी कोई जातना परिवर्तनने पाम्यु रजु करूं छु. न हतुं त्यां सुधी तेनू अर्धमागधीत्र स्वीकारी आ विषयमा विशेष आधारभूत सबळ प्रमाण शकाय, पण ज्यारे तने पूर्वोक्त अनेक विषम कार- महाराजश्रीने दाक्षिण्यचिन्ह उर्फे उद्योतनसूरिनी पोथी परिवर्तननी स्थितिमा वारंवार आवq पडयु कुवलयमाळा कथामांथी मळी आव्युं छे. ए कथामां, त्यारे तेनां भाव अने भाषा ए बन्नेने लोकानुसारी प्रस्तावनामां समरादित्य चरित्रनी प्रशंसा करतां थवानी जाणे फरज न पडी होय तेम बदलवा " भवविरह " शब्दना प्रयोगथी हरिभद्रसरिनो निलाग्यां, अने आस्ते आस्ते तेनी समूळगी अर्धमागधी देश करवामां आव्यो छे. तेमज प्रशास्तमा हरिभद्रभाषा खसी जई तेनु स्थान केटलाक समय सुधी मागधी सूरिने पोताना अध्यापकगुरु तरीके जणाव्या छे. मिश्रित शौरसेनीए लीधुं. अने पछी छेवटे वलभीपु- ॐ आ निबंध में पूनामां मळेल प्रथम प्राच्यविद्यासंशोधक रमां थएल उद्धारने वखते तो ते शौरसेनी पण परिषद् माटे तैयार कर्यो हतो. लेखक.
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