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जैन साहित्य संशोधक। कराते दिखाई देते हैं, इसी तरह, उस पुराणे का उल्लेख किया हुआ है । अर्थात् ; एक क्षण (जैन जमाने में भी यही हाल चलता रहा होगा और अत पारिभाषिक शब्द समय) में केवलज्ञान र एव शायद दिवाकरजीने निम्नलिखित मर्मवचन दूसरे क्षणमें केवलदर्शन । इसी तरह प्रतिक्षण क्रमशः बडे मजाकके साथ कहा होगाः
केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वरूप केवलीका उपयोग 'परेय जातस्य किलाय युक्तिमत्
परिवर्तित हुआ करता है। सिद्धसेनसूरिको यह पुरातनानां किल दोषवद्वचः।
विचार सम्मत नहीं है। वे इस विचारमें युक्ति-संगकिमेव जाल्मः कृत इत्युषेक्षितुं
तता नहीं समझते । तर्क और युक्ति से वे इस मान्यप्रपश्चनायास्य जनस्य सेत्स्यति ।'
ताको अयुक्त सिद्ध करत हैं । उनके विचारसे केवअर्थात- कल के जन्मे हुएके वचन तो आज लीको केवलज्ञान और केवलदर्शन दानों युगपद-एक युक्तिमा बताये जाते हैं और पुरातन पुरुषोंके दोष- ही साथ होना युक्तिसंगत है। और वास्तविक में, वाले माने जाते हैं ! अफसास, इससे अधिक और
आर अन्तमें वे फिर इन दोनोंमें परस्पर कोई भेद ही नहीं क्या मूर्वपना हो सकता है! ऐसे बोलनेवाले जालिम
मानते-दोनोंको एक ही बतलाते हैं। इस विचारका मनुष्योंकी तो उपेक्षा ही करनी चाहिये। उनके सुधा- उन्होंने अपने 'सम्मतिप्रकरण में खब ऊहापोह रने के लिये और कोई दूसरा उपाय नहीं है।' इस किया है। सिद्धसेनजीके इस विचारभेदके कारण प्रकारके उद्गार निकालकर 'उपेक्षा करनेका ' ढोंग
ग उस समयके सिद्धान्त-ग्रन्थ-पाठी और आगमभक्ति
HD रचनेवाले पुराणप्रेमियोंको दिवाकरजी कहते हैं कि, प्रवण आचार्यगण उनको तर्कम्मन्य जैसे तिरस्कारबड़ी खुशीकी बात है-आपकी इस उपेक्षासे हमको
व्यक विशेषणोंसे अलंकृत कर, उनके प्रति अपना तो लाभ ही होगा। क्यां कि हमारे विचारोंका
सामान्य अनादर-भाव प्रकट किया करते थे। सिद्धप्रतिरोध करनेवाला कोई न निकलनसे उनका तो सेनजीके बाद सिद्धान्तग्रन्थपाठी आचायोमें जिनऔर खूब प्रसार ही होगा! .
भद्रगणी क्षमाश्रमण नामके एक बहुत समर्थ प्रतिविज्ञ पाठक दिवाकरजीके इन उद्गारों को पढ भावान् आचार्य हुए। उन्ह ने जैनसूत्रोंके विस्कलित कर उनकी विचारस्वतंत्रता औरतर्कप्रवणता का बहुत रहस्यको संकलित करने के लिये ' विशेषावश्यकभाकुछ अनुमान कर सकेंगे। ऐसे स्वतंत्र और निभीक व्य' नामक महान् ग्रन्थकी रचना की । इस भाष्य उधार जैसाहित्यमें तो क्या समग्र संस्कृत-साहित्यमें में क्षमाश्रमणजीने दिवाकरजीके उक्त विचारभेदका भी मिलने मुश्किल हैं।
खन ही खण्डन किया है और उनको आगम-विरुद्ध
भाषी बतला कर उनके सिद्धान्तको अमान्य बतलाया सिद्धसेन दिवाकरका जैनागमांक रूढ आभिप्राय है। तत्त्वार्थसत्र' ऊपर बृहदव्याख्या लिखनेवाले से भिन्न-विचारवाला एक सिद्धान्त जैन-(श्वेता- दिवाकरजी ही के नामधारी सिद्धसेन गर्णाने भी म्बर) साहित्य में बहुत प्रसिद्ध और बह-विवेचित है। 'एकादीनि भाज्याने युगपदेकस्मिन्ना चतुर्यः ॥ १-३१॥' यह सिद्धान्त केवलज्ञान और केवलदर्शनके स्वरूपके इस सूत्रकी व्याख्या में दिवाकरजीके विचारभेद ऊपर साथ सम्बन्ध रखता है । पाठकोंको इस सिद्धान्तका अपने ठीक वाग्बाण चलाये हैं। गणीजीके कुछ पूरा परिचय करानेके लिये यहां पर अवकाश नहीं वाक्य देखिएहै, तो भी संक्षेपसे सूचनमात्र अवश्य कर देना यह भाष्य, मलधारी आचार्य हेमचंद्र विरचित चाहते हैं।
वृहरव्याख्या के साथ काशीकी यशोविजयग्रंथमालामें मु__ श्वेताम्बर संप्रदायमें जो सिद्धान्त ग्रन्थ (सूत्रग्रन्थ) द्रित हुआ है। विद्यमान हैं, उनमें, केवली (सर्वज्ञ ) को केवल.ज्ञान
२ श्वेताम्बर संप्रदायमें तत्त्वार्थमत्रपर यही एक
प्रसिद्ध और प्रौढ टीका है। यह टीका भाष्यके ऊपर लिखी और केवलदर्शन ये दोनों, युगपत् याने एक साथ
च गई है।ऐतिहासिक दृष्टिसे, तत्त्वार्थसूत्रकी दिगम्बर श्वेता. नहीं होते परंतु क्रमशः-एक दफह केवलज्ञान और म्बर संप्रदाय की अन्य सब टीकाओंसे इस टीकाका महत्त्व एक दफह केवलदर्शन, इस प्रकार बारी बारी से-होंने अधिक है। इस विषयमें हम कभी विस्तारके साथ लिखेंगे।
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