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अंक १]
बौद्ध
कुक्काचार्य दिवाकर ( ? ) दिग्नागाचार्य
धर्मपाल
धर्मकीर्ति
धर्मोत्तर
भदन्तादन
वसुबन्धु शान्तरक्षित
जैन
हरिभद्र सूरिका समय-निर्णय ।
अजितयशाः
उमास्वाति जिनदास महत्तर* जिनभद्र गणि क्ष० देववाचक
भद्रबाहु मल्लवादी
समन्तभद्र
शुभगुप्त
सिद्धसेन - दिवाकर संघदास - गणि* [ टिप्पणीः--इन ग्रन्थकारोंके अतिरिक्त, हरिभद्रके प्रबन्धों-प्रन्थोंमें कितने ही जैन- अजैन ग्रन्थों के भी नाम मिलते हैं । इनमें का एक नाम खास उनके समय के विचा रमें भी विचारणीय है । आवश्यकसूत्रकी शिष्यहिता नामक
बृहद्वृत्तिमें, एक जगह, निर्देश्य-निर्देशक विषयक नाम निर्देशके विचार में, हरिभद्रसूरिने, ५-६ ग्रन्थों के नाम लिखे हैं, जिनमें 'वासवदत्ता' और 'प्रियदर्शना' का भी नामनिर्देश है"। 'वासवदत्ता' सुबन्धु कविकी प्रसिद्ध आख्यायिका वा कथा है | यद्यपि इसके समय के बारेमें विद्वानोंमें कुछ मतभेद है, परंतु सामान्य रूप से ६ ठी शताब्दी में इस कविका अस्तित्व बताया जाता है । 'प्रियदर्शना ४२ । एक सुप्रसिद्ध नाटक
।
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* ये नाम, उनके ग्रंथोंके दिये हुए अवतरणांसे सूचित हैं ४१ देखो, आवश्यकसूत्रकी हारिभद्री वृत्ति, पृ. १०६, यथा' निर्देश्यवशाद् यथा - वासवदत्ता, प्रियदर्शनेति । — जिनभद्रगणिने विशेषावश्यक भाष्य में, इसी प्रसंग पर, अहवा निर्दिद्ववसा वासवदत्ता - तरंगवयाई ।' ऐसा लिख कर वासवदत्ता और तरंगवती ( जो, गाथा सत्तसईके संग्राहक प्रसिद्ध महाराष्ट्रीय कवि नृपति सातवाहन या हालके समकालीन जैनाचार्य पादलिप्त या पालित्त कविकी बनाई हुई है ) का उल्लेख किया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमका समय ६ ठी शताब्दी है, इस लिये ७ वीं शताब्दीमें जन्म पानेवाली ' प्रियदर्शना' का नाम उनके उल्लेखमें नहीं आ सकता, यह स्वतःसिद्ध है। जिनभद्रजी के इस प्रमाणसे, वासवदत्ता के कर्ता सुबन्धुका समय जो बहुतसे विद्वान् ६ ठी शताब्दी बताते हैं और उसे बाणका पुरायायी मानते हैं, सो हमारे बिचारसे टीक मालूम देता है ।
४२ वर्तमानमें इस नाटिकाको जितनी संस्कृत आवृत्तिय । प्रकाशित हुई हैं उन सबमें इसका नाम 'प्रियदर्शिका '
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है और वह स्थानेश्वर के चक्रवर्ती नृपति कवि हर्षकी बनाई हुई है । हर्षका समय सर्वथा निश्चित है । ई. स. ६४८ में इस प्रतापी और विद्याविलासी नृपतिको मृत्यु हुई थी । ई. स. की ७वीं शताब्दीका पूरा पूर्वार्द्ध हर्ष के पराक्रर्म जीवनसे व्याप्त था । हमारे एक वृद्धमित्र साक्षरवर श्री के. ह. भुवने प्रियदर्शनाके गुजराती भाषान्तरकी भूमिकामें, इसका रचना- समय ई. स. ६१८ के लगभग अनुमानित किया है। इस ऊपर से प्रस्तुत विषयमें, यह बात जानी जाती है कि प्रियदर्शनाका नामनिर्देश करनेवाले हरिभद्र सूरि उसके रचना समय बाद ही कभी हुए होंगे। प्राकृतगाथा में बतलाये मुताबिक हरिभद्र ६ ठी शताब्दी में नहीं हुए, ऐसा जो निर्णय हम करना चाहते हैं, उसमें यह भी एक प्रमाण है, इतनी बात ध्यानमें रख लेने लायक है । ]
इस नामावली में कितनेएक नामोंका तो अभी तक विद्वानोंको शायद परिचय ही नहीं है । कितनेएक नाम विद्वत्समाजमें परिचित तो हैं परंतु उन नामधारी व्यक्तियों के अस्तित्वके बारेमें पुराविद् पण्डितोमें परस्पर सेंकडों ही वर्षों जितना बडा मतभेद है । कोई किसी विद्वानका अस्तित्व पहली शताब्दी बतलाता है, तो कोई पांचवी छठी शताब्दी बतलाता है । कोई किसी आचार्यको ई. स. के भी सौ 'सौ वर्ष पहले हुए साबित करता है, तो सिद्ध करता है। इस प्रकार ऊपर दी हुई नामावकोई उन्हें ९ वीं १० वीं शताब्दीसे भी अर्वाचीन लीमेके कितने ही विद्वानोंके समय के विषय में विके विशेषज्ञ विद्वानोंने दीर्घपरिश्रमपूर्वक विस्तृत नका एकमत नहीं है । तथापि, देश और विदेश - ऊहापोह करके, इस नामावली के कई विद्वानोंके समयका ठीक ठीक निर्णय भी किया है; और वह बहुमत से निर्णीतरूपमें स्वीकृत भी हुआ है । इस
ऐसा छपा हुआ है, परंतु श्रीयुत केशवलालजी घ्रषने, अपने गुजराती अनुवादकी प्रस्तावना में (देखो, पृ. ७६, नोट. ) यह साबित किया है कि इसका मूल नाम 'प्रियदर्शिका ' नहीं किंतु 'प्रियदर्शना होना चाहिए; और अपनी पुस्तकपर उन्हें ने यही नाम छपवाया भी है। सो ध्रुव महाशयके इस अविष्कारका हरिभद्र के प्रकृत उल्लेख से प्रामाणिक समर्थन होता है ।
४३ देखो, ८. ७९ पहली आवृत्ति ।
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