________________
(भाग १
द
कि
-जन साहित्य संशोधका — हरिभद्रसूरिने प्रायः अपने सभी ग्रन्थोंके अंतमें, अब यहां पर, यह दूसरा प्रश्न उपस्थित होता है किसी न किसी तरह अर्थ-सम्बन्ध घटा करके कि, जब हरिभद्र इस प्रकार सिद्धर्षिके समकालीन 'भवविरह ' अथवा 'विरह ' इस शब्दका प्रयोग नहीं माने जा सकते, तब फिर पूर्वोक्त गाथाके अवश्य किया है। इस लिये वे 'विरहाङ्क' कवि कथनानुसार उन्हें विक्रम की ६ठी शताब्दीमें मान या ग्रन्थकार कहे जाते हैं । इनके ग्रन्थोंके सबसे लेनेमें क्या आपत्ति है ? क्यों कि उस समयका पहले टीकाकार जिनेश्वर सूरिने (वि. सं. १०८०) बाधक मुख्य करजोसिर्षिका उल्लेख समझा जाता अष्टक प्रकरणकी टीकामे, अन्तमें जहां पर 'विरह' है वह तो उपर्युक्त रीतिसे निर्मूल सिद्ध होता है। शब्द आया है वहां पर, इस वारेमें स्पष्ट लिखा इस प्रश्नके समाधानके लिये विशेष गवेषणाकी भी है कि--
जरूरत होनेसे, जब हमने हरिभद्रके प्रसिद्ध प्रसिद्ध विरह ' शब्देन हरिभद्राचार्यकृतत्वं प्रकरण- सब ही उपलब्ध ग्रंथोंका, इस दृष्टि से, ध्यानपूर्वक स्यावेदितम् . विरहाङ्कत्वाद् हरिभद्रसूरेरिति ।' निरीक्षण किया, तो उनमें अनेक ऐसे स्पष्ट प्र. ऐसा ही उल्लेख अभयदेवसूरि (पंचाशकप्रकरण- माण मिल आये कि जिनकी ऐतिहासिक पूर्वापर.
ताका विचार करने पर की टीकामें ) और मुनिचन्द्रसूरि( ललितविस्तरापंजिकामे ) आदिने भी किया है। इसी आशयसे. गाथा' में बतलाये मुजब हरिभद्रका स्वर्गमन वि. कुवलयमालाके कर्ताने भी यहां पर श्लेषके रूपमें 'भव
: सं. ५८५ में-एवं ६ ठी शताब्दीमें उनका होना विरह ' शब्दका युगल प्रयोग कर हरिभद्रसूरिका -
सत्य नहीं माना जा सकता। स्मरण किया है। साथमें उनकी 'समराइच्चकहा'
जैसा कि हम प्रारंभ ही में सूचित कर आये हैं, का भी उल्लेख है, इससे, इस कुशङ्का के लिये तो
हरिभद्रसूरिने अपने दार्शनिक और तारिखक ग्रंथोंमें यहां पर, किश्चित् भी अवकाश नहीं है कि, इन
कितनेएक ब्राह्मण, बौद्ध आदि दार्शनिक विद्वानोंके हरिभद्रके सिवा और किसी ग्रंथकारका इस उल्ले
- नामोल्लेख पूर्वक विचारों और सिद्धान्तों की समें स्मरण हो । अस्तु।
आलोचना-प्रत्यालोचना की है । इस कारणसे उन . इसी तरह, इस कथाकी प्रशस्तिमें भी हरिभद्र
उन विद्वानोंके सत्ता-समयका विचार करनेसे हरि.
भद्रके समयका भी ठीक ठीक विचार और निर्णय सरिका उल्लेख मिलता है, जिसका विचार आगे चल कर किया जायगा । इससे स्पष्ट है कि, हरि
किया जा सकता है । अतः अब हम इसी बातका भद्रको, शक संवत् ७००, अर्थात् विक्रम संवत् ।
विचार करना शुरू करते हैं। ८३५-ई. सं.७७८ से तो अर्वाचीन किसी तरह ..
____ हरिभद्रसूरिके ग्रंथोंमें मुख्य कर निम्न लिखित
दार्शनिकों और शास्त्रकारोंके नाम मिल आते हैं:नहीं मान सकते। इस प्रकार, हरिभद्रसूरि सिद्धर्षिके समकालीन
ब्राह्मणनहीं थे, इस बातका समाधान तो हो चुका है।
अवधूताचार्य आपुरि
ईश्वर कृष्ण --महाकवि धनपालने भी तिलकमञ्जरी कथाकी पाठिका
कुमारिल-मीमांसक में इस ग्रन्थको निम्न प्रकारसे प्रशंसा की है
पतञ्जलि-भाष्यकार पतञ्जलि-योगाचार्य निरोद्धं पार्यते केन समरादित्यजन्मनः ।
पाणिनि-वैयाकरण भगवद् गोपेन्द्र
भर्तृहरि-वैयाकरण व्यास महर्षि प्रशमस्य वशीभूतं समरादि त्यजन्मनः ॥
विन्ध्यवासी शिवधर्मोत्तर इसी तरह देवचन्द्रसूरिने 'सन्तिनोहचरियं' की प्रस्ता. _ बनामें भी इस कथा-प्रबन्धका स्मरण किया है । यथा-- ४० इन मंथकारों के नामोंके सिवा, कितने ही संप्रदायों, चंदे सिरिहरिभई सूरिविउसयणणिग्गयपयावं। सांप्रदायिकों और तेर्थिकोंके उल्लेख भी इनके ग्रंथोंमें यत्र जेण य कहापबन्धो समराइयो विणिम्मविओ॥ तत्र मिलते हैं परंतु उनके उल्लेखोंसे प्रकत विचारमें कोई विशेष
(-पिटर्सन रिपोर्ट, ५, पृ. ७३) सहायता न मिलनेके कारण यहां पर वे नहीं दिये जाते।
Aho! Shrutgyanam