Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 32
________________ जैन साहित्य संशोधक। [भाग १ M.AAAAAA N A ..... .. . ... . ... . "पहले मैंने पाटलीपुत्र नगर (पटना) में प्रतिष्ठा बढाई । समन्तभद्रको कृतियों में सबसे वादको भेरी बजाई, फिर मालवा, सिन्धु देश, अधिक मान 'आप्तमीमांसाको' मिला है। यह दिखढक (दाका-बंगाल ), काञ्चीपुर और वैदिश नेमें ११४ श्लोकोंका एक छोटासा ग्रंथ मालूम देता (भिलसके आसपासका देश) में भेरी बजाई। है, पर इसका गांभीर्य इतना है कि, इसपर और अब बड विद्वान् वीरोंसे भरे हुए इस करहाटक संकडों-हजारों श्लोकोवाले बडे बडे गहन भाष्य (कराड, जिला सतारा) नगरको प्राप्त हुआ हूं। -विवरण आदि लिखे जाने पर भी विद्वानोंको यह इस प्रकार हे राजन्, मैं वाद करनेके लिये सिंहके दुर्गम्यसा दिखाई देता है। समान इतस्ततः क्रीडा करता फिरता हूं" सबसे पहले इसपर महान तार्किक भट्ट अक. इस उलखसे जाना जाता है कि समन्तभद्र लंक देवने अष्टशती ( आठ सौ श्लोक परिमाणवास्वामी भारतके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण; सब ही ला ) नामका अल्पाक्षर और बह्वर्थवाला गंभीर खण्डोंमें घमे थे और सब देशांक विद्वानोंके साथ भाष्य लिखा । इस भाष्यके ऊपर प्रचण्ड विद्वान् शास्त्रार्थ कर जैनधर्मकी विजय-दुन्दुभि बजवाई थी। आचार्य विद्यानन्दीने अष्टसहस्री ( आठ हजार __ समन्तभद्र स्वामीकी कृतियोंके देखनेसे पता श्लोक प्रमाण ) नामक विशद व्याख्या बनाई। लगता है कि सिद्धसेनसूरिन अपनी कृतियोंमें जो समुच्चय संस्कृत साहित्यमें, भिन्न भिन्न दार्शनिक बात संक्षेपसे सूचित की है, समन्तभद्रने सिद्धान्तों-विचारोंको आलोचना-प्रत्यालोचना उसोको व्यवस्थितरूपमें विस्तारके साथ वर्णन करनेवाला यह एक महान और प्रौढ ग्रंथरत्न है। की है । सिद्धसेन अपने ग्रंथमे प्रमाण और नयके इसमें ब्राह्मण और बौद्ध धर्मके सब ही तात्त्विक लक्षण स्थिर मात्र कर गये थे; समन्तभद्र ने अपने संप्रदायोंके तत्त्व-विचारोंका बडो मार्मिक और ग्रंथमें उनके अनुसार मीमांसा कर उन्हें सफल, युक्तिपूर्ण पद्धतिसे खण्डन-मण्डन किया गया है । संगत और सिद्ध कर दिखाये । सिद्धसेनने आप्त- और अन्तमें जैन धर्मका स्याद्वाद-सिद्धान्त कितपुरुषके बारेमें संक्षिप्त और प्रकीर्ण विचार प्रद- नाप्रमाणयुक्त और अखण्डनीय है, यह विचार र्शित किये थे; समन्तभद्रने उन्हीं विचारोंको बडे गौरवके साथ सिद्ध किया गया है। विस्तृत और क्रमबद्ध रूपमें ग्रथित कर संपूर्णरूपसे इस ग्रंथकी महत्ताका पता इतने हो से लग आप्तकी मीमांसा की । इस प्रकार, सिद्धसेनने जायगा कि, श्वेताम्बर संप्रदायके महान् नैयायिक जैन धर्मके तत्त्वज्ञानको अंकुरित होने में जलास- और समर्थ ग्रंथकार उपाध्याय यशोविजय जैसे चनका काम किया; तो समन्तभद्रने उसको पूर्ण सांप्रदायिक विद्वान्न भी, इस कृातक गांभीस्वच्छंद और निर्भय रीतिसे ऊंचे बढनेमें कांटोंकी र्यसे मुग्ध हो कर, इस पर, मूल ग्रंथके जितनी बाडका काम किया। इन्हीं दो महापुरुषोंके सुप्र. ही श्लोक प्रमाण (अर्थात् आठ हजार श्लोकवाली) यत्न और स्तुत्य जीवनसे जैनदर्शन सजीवन रहा और उतनी ही प्रौढ टिप्पणी लिखी है। और इस और इन्हीं के बताये हुए मार्गका अवलंबन कर, आकलूज निवासी सेठ नाथारंगजी गान्धीने पं. वंशीपिछले समर्थ आचायाने ( जिनमेसे कितने एकके जी शास्त्रीद्वारा संशोधित करवा कर जो अष्टमहस्री छपनाम हम इस लेखके प्रारंभहीमें लिख आये है) वा उसके साथ यदि यशोविजयजीकी यह टिप्पणी भी उसे खूब पल्लवित किया। . (टिप्पणी क्या टोकाकी भी टीका) छपवा दी जाती तो सिद्धसेनसूरिकी कृतियोंके समान समन्तभद्रा-सोने में सगन्ध' आ जाती। हमें इस बातका पता नहीं चार्यकी कृतियोंका भी, पिछले आचार्योंने बडा , लगा कि शास्त्री वंशीधरजीने अपनी अष्टसहनीकी भूमिकामे गौरव किया। उनपर संक्षिप्त और विस्तृत ऐसे इस महती टिप्पणीका नामोलख तक क्यों नहीं किया । अनेक भाष्य-टीका आदि लिख कर उनकी खूब क्या उन्हें इसका अस्तित्व मालूम नहीं था अथवा अन्य . १ विद्वद्रत्नमाला ( श्रीनाथूरामप्रेमी लिखित ), पृ. १६९ किसी कारणसे वैसा नहीं कर सके । Aho! Shrutgyanam

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