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जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।
रूपवान् कन्याका नाम 'पंकजश्री' था । उसके साथ विभीषणके लग्न हुए।
चंद्रके समान तेजस्वी और अद्भुत पराक्रमधारी, ऐसे एक पुत्रका मंदोदरीने प्रसव किया । उसका नाम 'इन्द्रजीत ' रक्खा गया। कुछ काल बीतनेके बाद मेघके समान नेत्रोंको आनंद पहुँचानेवाले ' मेघवाहन ' नामक दूसरे पुत्रको मंदोदरीने और जन्म दिया । - लंकापति वैश्रवणका पराभव; और दीक्षाग्रहण ।
पिताका वैर याद कर विभीषण और कुंभकर्ण वैश्रवणाश्रित लंका राज्यमें उपद्रव करने लगे। एक वार वैश्रवणने दूतके साथ रत्नश्रवासे कहलाया कि " रावणके अनुनबंधु-तुम्हारे छोटे लड़के कुंभकर्ण और विभीषणको समझाकर उपद्रव करनेसे रोको । ये दोनों दुर्मदः लड़के पाताल लंकामें रहनेसे, कूएके मेंडककी तरह,. अपनी और दूसरोंकी शक्तिको नहीं पहिचानते हैं, इसलिए वे मत्त होकर विजयकी इच्छासे मेरे राज्यमें उपद्रव किया करते है । मैंने बहुत दिनोंतक उनकी उपेक्षा की है। उनको क्षमा किया है । हे क्षुद्र ! तू अब भी उनको न समझावेगा तो उन्हें और साथ ही तुझे भी जहाँ माली गया है वहाँ पहुँचा दूंगा । तू हमारी शक्तिको भली प्रकारसे जानता है।" दूतके ऐसे वचन सुन महामनस्वी रावण क्रोध करके बोला:-" अरे यह श्रवण कौन चीज है" जो.