Book Title: Jain Ramayana
Author(s): Krushnalal Varma
Publisher: Granthbhandar Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 473
________________ ४२८ जैन रामायण नवाँ सर्ग । के पास आये । उनका हृदय पश्चात्ताप और लज्जासे परिपूर्ण हो रहा था। उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा:-" हे देवी! स्वभावसे ही असत् दोषको ग्रहण करनेवाले नगरवासियोंके पीछे लगकर, मैंने तुम्हारा त्याग किया; उसके लिए मुझे क्षमा करो। भयंकर जन्तुपूर्ण वनमें रहकर भी तुम अपने प्रभावसे जीवित रही । यह भी एक प्रकारसे तुम्हारा दिव्य ही था। मैं इसको न समझ सका । अस्तु । अब सब गई बातोंके लिए मुझे क्षमा करो; इस पुष्पकविमानमें बैठकर घर चलो और पूर्वकी भाँति ही मुझको आनंदित करो।" सीताने उत्तर दिया:-" इसमें आपका या लोगोंका कोई भी दोष नहीं है। मेरे पूर्व काँका ही दोष है । अतः दुःखके चक्करमें डालनेवाले कर्मोंसे छुटकारा पानेके लिए, उनको नष्ट करनेके लिए; मैं तो अब दीक्षा ग्रहण करूँगी।" तत्पश्चात उसी समय सीताने अपने हाथोंसे केशलोच किया; और प्रभु जैसे अपने केश इन्द्रको देते हैं, वैसे ही सीताने अपने केश रामको देदिये । यह देखकर, रामको मूर्छा आगई । राम मूर्छा से उठे भी नहीं थे, इसके पहिले ही सीता जयभूषण मुनिके पास चली गई । जयभूषण केवलीने उसी समय उनको सविधि दीक्षा दी । फिर मुनिने, तप परायणा साध्वी सीताको, सुप्रभा नामा गणिनी-गुरणी के परिवारमें सौंप दिया।

Loading...

Page Navigation
1 ... 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504