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जैन रामायण नवाँ सर्ग ।
के पास आये । उनका हृदय पश्चात्ताप और लज्जासे परिपूर्ण हो रहा था। उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा:-" हे देवी! स्वभावसे ही असत् दोषको ग्रहण करनेवाले नगरवासियोंके पीछे लगकर, मैंने तुम्हारा त्याग किया; उसके लिए मुझे क्षमा करो। भयंकर जन्तुपूर्ण वनमें रहकर भी तुम अपने प्रभावसे जीवित रही । यह भी एक प्रकारसे तुम्हारा दिव्य ही था। मैं इसको न समझ सका । अस्तु । अब सब गई बातोंके लिए मुझे क्षमा करो; इस पुष्पकविमानमें बैठकर घर चलो और पूर्वकी भाँति ही मुझको आनंदित करो।"
सीताने उत्तर दिया:-" इसमें आपका या लोगोंका कोई भी दोष नहीं है। मेरे पूर्व काँका ही दोष है । अतः दुःखके चक्करमें डालनेवाले कर्मोंसे छुटकारा पानेके लिए, उनको नष्ट करनेके लिए; मैं तो अब दीक्षा ग्रहण करूँगी।"
तत्पश्चात उसी समय सीताने अपने हाथोंसे केशलोच किया; और प्रभु जैसे अपने केश इन्द्रको देते हैं, वैसे ही सीताने अपने केश रामको देदिये । यह देखकर, रामको मूर्छा आगई । राम मूर्छा से उठे भी नहीं थे, इसके पहिले ही सीता जयभूषण मुनिके पास चली गई । जयभूषण केवलीने उसी समय उनको सविधि दीक्षा दी । फिर मुनिने, तप परायणा साध्वी सीताको, सुप्रभा नामा गणिनी-गुरणी के परिवारमें सौंप दिया।