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जैन रामायण दसवाँ सर्ग ।
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लक्ष्मणका प्रगाढ प्रेम है। रामके हृदयमें लक्ष्मणपर जो स्नेह है, वह उनकी वैराग्यवृत्तिको उत्पन्न नहीं होने देता है । "
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इन्द्रके वचन सुन, सुधर्मा सभामेंसे दो देवता कौतुक से रामलक्ष्मणके स्नेहकी परीक्षा करनेके लिए अयोध्यामें गये । वे लक्ष्मणके घर पहुँचे । वहाँ उन्होंने मायासे सारे अन्तःपुरकी स्त्रियोंको करुण - आक्रंदन करती हुईं, लक्ष्मrat दिखाई । वे विलाप कर रही थीं - " हा पद्म ! हा पद्मनयन ! हा बन्धुरूप कमल में सूर्य के समान राम ! ( विरुद्ध ) जगतके लिए भयंकर हा बलभद्र ! तुम्हारी अकाल मृत्यु कैसे हो गई ? " स्त्रियोंके केश विखर रहे थे, वे छाती कूट रही थीं। उनकी ऐसी स्थिति देख लक्ष्मणको बहुत दुःख हुआ । वे बोले :- " ओह ! क्या मेरे जीवन के जीवन रामकी मृत्यु हो गई ? छलसे घात करनेवाले दुष्ट यमराजने यह क्या किया ? " इस प्रकार बोलते बोलते लक्ष्मणके प्राण पखेरु उड़ गये । सच है - . कर्म, विपाको दुरतिक्रमः ।
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( कर्मका फल अमिट है ) उनका शरीर स्वर्ण स्तंभके सहारे सिंहासनपर टिका रह गया। मुख खुला हुआ था । लक्ष्मणका शरीर निष्क्रिय स्थिर लेप्यमय मूर्तिके समान मालूम होने लगा । इस भाँति सहजहीमें लक्ष्मणकी मृत्यु होती देख दोनों देवता दुखी हुए । वे पश्चात्ताप करते हुए परस्पर में कहने लगे - " हम लोगोंने यह क्या
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