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जैन रामायण पाँचवाँ सर्ग ।
एकवार कामळताने मुझसे कहा:-"सिंहोदर राजाकी पट्टरानी श्रीधराके जैसे कुंडल मुझे भी ला दो । ” मैंने सोचा-" मेरे पास कुछ द्रव्य नहीं है, फिर इसके लिए वैसे कुंडल कैसे बनवाऊँ ? उसीके कुंडल चुरालाऊँ तो अच्छा है।"
ऐसा सोच, साहसी बन,खात पाड़कर-सेंध लगा कर-मैं राजाके महलमें घुसा। उस समय रानी 'श्रीधरा' की और सिंहोदरकी बातें हो रही थीं, वे मैंने सुनीं। सिंहोदराने पूछा:--" हे नाथ ! आज उद्वेगीकी भाँति आपको नींद क्यों नहीं आती है ?"
सिंहरथने उत्तर दिया:--" हे देवी ! जबतक मुझको प्रणाम नहीं करनेवाले वज्रकरणको नहीं मार लूँ, तब तक मुझको नींद कैसे आसकती है ? हे प्रिये ! प्रातःकाल ही मैं, मित्र, पुत्र, बन्धु बाँधव सहित, वज्रकरणको मारूँगा।
स्व ही सोऊँगा-तब तक नींद नहीं लूंगा।" ___ उसके ऐसे वचन सुन, साधर्मापनकी प्रीतिके कारण कुंडलकी चोरी छोड़, तत्काल ही ये समाचार सुनानेको मैं तुम्हारे पास आया हूँ।"
ये समाचार सुन वज्रकरणने अपनी नगरीको तृण और अबसे अधिक पूर्ण कर ली। थोड़ी देर बाद परचकसे-शत्रुसेनासे-उड़ती हुई रजको उसने आकाशमें