Book Title: Jain Ramayana
Author(s): Krushnalal Varma
Publisher: Granthbhandar Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 470
________________ स्थित हुआ। यह सब कुछ मैंने ही किया है; मेरे ही द्वारा हुआ है।" राम इस प्रकार सोच रहे थे, उसी समय सीता खड्डेके पास गई और सर्वज्ञका स्मरण कर, बोली:-"हे लोकपालो ! हे लोगो! सुनो, यदि अब तक मैंने रामके विना किसी अन्य पुरुषकी इच्छाकी हो, तो यह अग्नि मुझको जला देवे और यदि नहीं की हो, तो इसका स्पर्श. जलके समान शीतल हो जाय ।" फिर नवकार मंत्रका जाप करती हुई, सीता अग्निकुंडमें कूद पड़ी। उनके कुंडमें पड़ते ही आग बुझगई । वह खड्डा स्वच्छ जलसे भरकर सरोवरके समान होगया। देवोंने सीताके सतीत्वसे संतुष्ट होकर उस जलमें कमलपर सिंहासन बना दिया । सीता उस सिंहासनपर बैठी हुई दृष्टिगत हुईं। उसका जल समुद्र जलकी भाँति तरंगित होता हुआ दिखाई दिया। जलमेंसे कहींसे हुंकार ध्वनि उठ रही थी, कहींसे गुल गुल शब्द निकल रहा था, कहींसे भेरीकीसी आवाज आ रही थी, कहींसे 'दिलि दिलि' शब्द होता सुनाई पड़ रहा था और कहीं 'खल खळ ' शब्द हो रहा था। तत्पश्चात समुद्रके चढावकी भाँति उस खड्डेमेंसे जल उछलने लगा । वह बाहिर निकल कर बड़े बड़े मंचोंको बहाने, और डुबाने लगा। विद्याधर भयभीत होकर, आकाशमें उड़े और आकाशमें चले गये। मगर भूचर मनुष्य पुकारने

Loading...

Page Navigation
1 ... 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504