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हनुमानका सीताकी खबर लाना ।
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उसको मेरे पिताने वरुणके जेलखानेमेंसे छुड़ाया था । उसके बाद तूने मुझको अपनी रक्षा करनेके लिए बुलाया था और मैंने वरुणके पुत्रोंके हाथोंसे तुझको बचाया था । मगर इस समय तू पापमें रत हो रहा है, इस लिए रक्षा करने के योग्य नहीं है । इतना ही नहीं है परस्त्री - हर्ता तेरे समान पुरुषोंसे बात करनेमें भी पाप लगता है । हे रावण ! अकेले लक्ष्मणके हाथोंसे तेरी रक्षा करनेवाला कोई पुरुष तेरे परिवार में नहीं है, फिर उनके ज्येष्ठ भ्राता रामसे बचानेवाले की तो बात ही क्या है ?"
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हनुमानकी बातें सुन, रावणको बहुत क्रोध आया । कुटि चढ़ने से उसका लिलाट भयंकर दिखाई देने लगा । ओष्ठ चबाता हुआ वह बोला :- "रे वानर ! एक तो तूने मेरे शत्रुका पक्ष लिया है; दूसरे मेरे सामने ऐसे कटु और उद्धत शब्द बोला है, इस लिए यही इच्छा होती है कि तू मार दिया जाय । मगर तुझे अपने जीवनसे ऐसा वैराग्य क्यों हो गया है ? रे वानर ! कुष्ट रोगसे जिसका शरीर विशीर्ण होगया हो, ऐसा व्यक्ति यदि मरना चाहता है, तो भी हत्याके भयसे कोई उसको नहीं मारता है; तो तुझ दूतको-जो अवध्य होता है-मारकर कौन हत्या ले ? मगर रे अधम ! सिरको मुँडा, गधेपर चढ़ा, तुझको सारे नगरमें, लंकाकी प्रत्येक गलीमें, तुझपर तिरस्कार करते हुए लोग समूहमें, अवश्यमेव फिरवाऊँगा । "