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जैन रामायण द्वितीय सर्ग।
अष्टापदको कष्ट पहुँचाता है,वैसेही निशाचर आकाशमें रहकर, विद्याद्वारा उनको मुग्ध कर, कष्ट पहुँचाने लगे । अपने सैनिकोंको पीड़ित होते देख क्रोधके मारे सहस्रांशुके ओष्ठ काँपने लगे। वह हाथके इशारेसे अपनी स्त्रियोंको आश्वासन देता हुआ रेवा नदीसे बाहिर निकला; जैसे कि गंगानदीसे ऐरावत हाथी निकलता है । बाहिर आकर और धनुषकी चाप चढ़ा कर, वह बाण-वर्षा करने लगा। उस महाबाहुकी बाणवर्षासे राक्षस वीर घबराकर तितरबित्तर हो गये; जैसे कि जोरकी हवाके चलनेसे रूई उड़ जाती है । ___ अपने सैनिकोंको परास्त हो, वापिस लौटते देख, रावण क्रोधित हुआ और बाणोंकी वर्षा करता हुआ सहस्रांशुकी ओर चला। दोनों वीर क्रोधपूर्वक, उग्र और स्थिर हो कर नाना भाँतिके शस्त्रोंसे बहुत देरतक युद्ध करते रहे । अन्तमें भुजवलसे, सहस्रांशुको जीतना असंभव समझ, रावणने विद्याद्वारा उसको मोहितकर हाथीकी तरह पकड़ लिया । उस महा वीर्यको जीतनेपर भी, अपने आपको विजेता समझनेपर भी, उसको बाँध लेने पर भी उसकी प्रशंसा करता हुआ, रावण निरभिमानी हो उसको अपनी छावनीमें लाया ।
रावण हर्षित होता हुआ. सभामें आकर बैठा ही था कि उसी समय “शतबाहु" नामक चारणमुनि आकाशमेंसे उतरकर सभामें आये । मेघके जैसे मयूर-मोर जैसे बादलोंका