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जैन रामायण द्वितीय सर्ग। ~~ommmmmmmmmmmmm
विभीषणके वचन सुनकर रावणको संतोष हुआ । थोड़ी देर में रावणसे आलिंगन करनेकी उत्सुक लंपट उपरंभा वहाँ आपहुँची । उसके पतिले आशाली नामकी विद्याको नगर रक्षिका बना रक्खी थी। वह विद्या उसने रावणको देदी । उसके अतिरिक्त व्यंतर रक्षित कई दूसरे मंत्र भी उसने रावणको दिये। __रावणने उस विद्यासे नगरके अग्निमय कोटका संहार कर, अपनी सेना सहित दुर्लध्य पुरमें प्रवेश किया। नलकूबर युद्ध करनेको आया; मगर विभीषणने तत्काल ही उसको पकड़ लिया; जैसे की हाथी चमड़ेकी धमणको पकड़ लेता है।
सुर और असुर दोनोंसे अजेय ऐसा, इन्द्र संबंधी, महा. दुर्द्धर सुदर्शन चक्र भी वहींसे रावणको प्राप्त हुआ।
पश्चात नल कूबरने नम्रता धारण करली इस लिए रावणने उसको उसका नगर वापिस लौटा दिया। कारण
'अर्थिनोऽर्थेषु न तथा, दोषांतो विजये यथा।' (पराक्रमी पुरुष जैसे विजयकी इच्छा रखते हैं, वैसे धनकी इच्छा नहीं रखते हैं।) - रावणने उपरंभासे कहा:-“हे भद्रे! मेरेसाथ विनयका वर्ताव करनेवाले, तेरे कुलके योग्य, तू अपने पतिको ही स्वीकार कर; उसीमें रममाण हो । तू मेरे योग्य नहीं है । एक तो तूने मुझे विद्या दी है, इस लिए तू मेरे गुरुतुल्य.