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जैन रामायण द्वितीय सर्ग । वह मुक्त हो सकता है और अपना राज्य पुनःप्राप्त कर आनंदसे मेरा कृपापात्र बन, दिन बिता सकता है।
सहस्रारने ये सब बातें स्वीकार करली । तब रावणने अपने भाईके समान सत्कारकर इन्द्रको छोड़ दिया ।
फिर वह रथनुपुरमें आकर बड़े दुःखके साथ दिन बिताने लगा। कहा है कि--
'तेजस्विनां हि निस्तेजो मृत्युतोऽप्यति दुःसहम् ।' (तेजस्वी पुरुषोंको निस्तेज बननेका दुःख मृत्यु-दुःखसे भी विशेष दुःसह होता है । )
कुछ काल बाद वहाँ । निर्वाणसंगम ' नामक मुनि समोसर्या-गये। यह सुनकर इन्द्र उनकी वंदना करनेको गया । वंदना करके उसने पूछा:--" भगवन् कृपा करके बताइये कि मैं कौनसे कर्मके कारण इस रावणसे तिरस्कृत हुआ।"
मुनि बोले:-“पहिले 'अरिंजय' नगरमें — ज्वलनसिंह नामक एक विद्याधर राजा था। उसके 'वेगवती' नामा स्त्री थी। उसके ' अहिल्या' नामकी एक रूपवती कन्या हुई । विद्याधरोंके सारे राजा उसके स्वयंवरमें एकत्रित हुए । उस स्वयंवरमें चंद्रावर्त नगरका राजा
आनंदमाली' और सूर्यावर्त नगरका स्वामी 'तडित्पभ' भी आये थे । तडित्लभ स्वयं तू ही था । तुम दोनों साथमें