________________
४४
जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।
मुझे हानि पहुँचानेवाली कोई क्रिया करेगा तो फिर मुझे भी उसका प्रतिकार अवश्यमेव करना पड़ेगा । मगर मैं अपने पूर्व-स्नेहरूपी वृक्षका छेदन करनेमें कभी अग्रसर नहीं होऊँगा । हे दूत ! तू यहाँसे जा । उसको, अपनी शक्तिके अनुसार जो कुछ करना हो करने दे।" दूतने जाकर रावणको सब बातें सुना दी। - दूतकी बातें सुनकर रावणकी क्रोधाग्नि भभक उठी। वह बड़ी भारी सेना लेकर किष्किंधा पर चढ़ गया । भुजवीर्यसे सुशोभित वाली राजा भी तैयार होकर उसके सामने आया।
दोष्मतां हि प्रियो युद्धातिथिः खलु ।' (पराक्रमी वीरोंको युद्धके अतिथि सदा प्रिय होते हैं।) दोनों दलोंमें युद्ध प्रारंभ होगया। पाषाणोंका, वृक्षोंका और गदाओंका दोनों सैन्य परस्पर प्रहार करने लगे। रथोंका,गिर कर पापड़ोंकी तरह चूर्ण होने लगा; हाथी मिट्टीके पिंडकी तरह टूटने लगे, घोड़े कद्दूकी तरह स्थान स्थानसे खंडित होने लगे और पैदल, चंचा-घासके पुतले-की भाँति भूमि पर गिरने लगे। इस तरह प्राणियोंका घात हाते देखकर वीर वालीको दया आई । वह रावणके पास गया और कहने लगा:", "विवेकी पुरुषोंके लिए एक सामान्य प्राणिका वध करना भी अनुचित है; तब हस्ति आदि पंचेन्द्री प्राणियों