Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 6
________________ जैनहितैषी [ भाग १४ होने लग जाता है तथा जो पानी गड्डेसे अधिक होता है कि जिसको दूर हटाना और विचारहोता है वह आगेको बहता चला जाता है; यहाँ क्षेत्रमें खड़ा रहना ही असम्भव हो जाता है । हाँ, तक कि वह बहता बहता समुद्र में ही जा विचारके क्षेत्रसे दूर भाग जाने पर, पक्षपात और पहुँचता है। • अंधविश्वासकी लाठीको चारों तरफ घुमाकर किसी __धूप, हवा, पानी और मिट्टी आदिके इन भी हेतु या प्रमाणको अपने पास न फटकने उपर्युक्त स्वभावोंसे दुनिया भरमें लाखों और देनेकी अवस्थामें हम जो चाहे मान सकते हैं; करोड़ों ही परिवर्तन हो जाते हैं, जिनसे फिर पर ऐसी दशामें हमारे लिये यह बात भी जरूरी नवीन नवीन लाखों करोड़ों काम होने लग हो जाती है कि न अपनी कहें और न किसीजाते हैं। और भी जिन जिन कार्योंपर दृष्टि की सुनें-अर्थात्, स्वयं भी जो चाहे विश्वास दौड़ाते हैं उन उनपर इसी प्रकार वस्तुस्वभावके बाँध कर बैठ जावें और दूसरोंको भी उलटा द्वारा ही कार्य होता हुआ पाते हैं और होना भी पुलटा जो मन चाहे विश्वास बाँध लेने देवें । चाहिए ऐसा ही; क्योंकि जब संसारकी सारी वस्तुएँ गरज न तो अपने विश्वासको झूठा बतानेका तथा उनके स्वभाव सदासे हैं; जब संसारकी सारी किसीको अधिकार देवें और न स्वयं किसीके वस्तुएँ आपसमें एक दूसरे पर अपना अपना विश्वासको असत्य ठहरावें । प्रभाव डालती हैं और दूसरी वस्तुओंके प्रभावसे विचारनेकी बात है कि जब समुद्र के पानीकी प्रभावित होती हैं तब तो यह बात जरूरी ही ही भाफ बन कर उसका ही बादल बनता है है कि उनमें सदासे ही बराबर खिचड़ीसी पकती तब यदि वस्तुस्वभावके सिवाय कोई अन्य ही रहे और संसारकी वस्तुओंके स्वभावानुसार नाना बारिश बरसानेका प्रबन्ध करनेवाला होता तो प्रकारके परिवर्तन होते रहें। यही संसारका सारा वह तो कदाचित् भी उस समुद्र पर पानी न कार्य-व्यवहार है जो वस्तुस्वभावके द्वारा अपने बरसाता जिसके पानीकी भाफ बन कर ही यह आप हो रहा है और अविचारी पुरुषोंको बादल बना था । परन्तु देखनेमें तो यही आता चकित करके भ्रममें डाल रहा है। है कि बादलको जहाँ भी इतनी ठंड मिल जाती इस प्रकार दुनियाके इस सारे ढाँचेकी पड़- है कि भाफका पानी बन जावे वहीं वह बरस ताल करने पर, बुद्धि और विचारसे काम लेने पड़ता है । यही कारण है कि वह समुद्र पर भी पर, सिवाय इसके और कुछ भी सिद्ध नहीं बरसता है और धरती पर भी । वह बादल तो होता कि जिन जिन वस्तुओंसे यह दुनिया इस बातकी जरा भी परवाह नहीं करता कि बनी हुई है वे सभी जीव, अजीव तथा उनके मुझे कहाँ बरसना चाहिए और कहाँ नहीं । गुण और स्वभाव अनादि अनन्त हैं। उनके इन इसी कारण कभी तो यह वर्षा समय पर हो अनादि स्वभावोंके द्वारा ही जगतका यह सब जाती है और कभी कुसमय पर होती है, बल्कि कार्य्य व्यवहार चल रहा है। इन जीव अजीव कभी कभी तो यहाँ तक भी होता है कि सारी पदार्थोके सिवाय न तो कोई तीसरी वस्तु सिद्ध फसल भर अच्छी बारिश बरस कर और खेतीकी होती है और न उसके होनेकी कोई जरूरत ही अच्छे प्रकार पालना होकर अन्तमें एक आध मालूम होती है। इसके सिवाय यदि विचारके बारिशकी ऐसी कमी हो जाती है कि सारी वास्ते कोई तीसरी वस्तु मान भी लें तो उसके करी कराई खेती मारी जाती है। यदि वस्तु-." विरुद्ध आक्षेपोंका ऐसा भारी समूह सामने आ खड़ा स्वभावके सिवाय कोई दूसरः प्रबंध करनेवाला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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