Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 20
________________ २०४ जैनहितैषी [भाग १४ लिये वैसे ही ओषधिकल्पोंका प्रयोग किया उनका व्यावहारिक रूप समझना चाहिये, और करते हैं। अनेक नये नये ओषधिकल्प गढ़े जाते इस दृष्टिसे उसे महावीर भगवानका शासन भी हैं, पुरानोंमें फेरफार किया जाता है और ऐसा कह सकते हैं। परंतु भिन्न शासनोंकी हालतमें करनेमें कुछ भी आपत्ति नहीं होती, 'यदि वे महावीर भगवानने यही कहा, ऐसा ही सब रोगशांतिके विरुद्ध न हों। इसी तरह पर कहा, इसी क्रमसे कहा, इत्यादिक मानना देशकालानुसार किये हुए आचार्योंके उपर्युक्त मिथ्या होगा और उसे प्रायः मिथ्यादर्शन भिन्न शासनोंमें भी प्रायः कोई आपत्ति नहीं की समझना चाहिये । अतः उससे बचकर यथार्थ जा सकती। क्योंकि वे सब जैनसिद्धान्तोंके वस्तुस्थितिको जानने और उसपर ध्यान रखनेअविरुद्ध हैं। हाँ, आपेक्षिक दृष्टिसे उन्हें प्रशस्त- की कोशिश करनी चाहिये । इसीमें वास्तविक अप्रशस्त, सुगम-दुर्गम, अल्पविषयक-बहु- हित संनिहित है। विषयक, अल्पफलसाधक-बहुफलसाधक इत्यादि यहाँ, श्वेताम्बर आचार्योंकी दृष्टिसे, हम इस जरूर कहा जा सकता है, और इस प्रकारका समय सिर्फ इतना और बतला. देना चाहते हैं, भेद आचार्योंकी योग्यता और उनके तत्तत्का- कि श्वेताम्बरसम्प्रदायमें आमतौरपर १ दिग्वत, लीन विचारों पर निर्भर है। अस्तु, इसी सिद्धा- २ उपभोगपरिभोगपरिमाण, ३ अनर्थदंडन्ताविरोधकी दृष्टिसे यदि आज कोई महात्मा विरति, इन तीनको गुणवत और १ सामायिक, वर्तमान देशकालकी परिस्थितियोंको ध्यानमें २ देशावकाशिक, ३ प्रोषधोपवास, ४ अतिथि रखकर उपर्युक्त शीलवतोंमें भी कुछ फेरफार संविभाग, इन चारको शिक्षावत माना है । करना चाहे और उदाहरणके तौरपर १ क्षेत्र- उनका 'श्रावक प्रज्ञप्ति' नामक ग्रंथ भी इन्हींका (दिग्देश) परिमाण, २ अनर्थदंडविरति, विधान करता है और, योगशास्त्रमें, श्रीहेमचंद्रा३ भोगोपभोगपरिमाण, ४ आवश्यकतानु- चार्यने भी इन्हीं व्रतोंका, इसी क्रमसे, प्रतित्पादन,५अन्तःकरणानुवर्तन, ६सामायिक पादन किया है। तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार और ७ निष्कामसेवा (अनपेक्षितोपकार-) श्रीसिद्धसेनगणि और यशोभद्रजी, अपनी नामके सप्तशीलवत, अथवा गुणव्रत और अपनी टीकाओंमें, लिखते हैं:शिक्षाव्रत, स्थापित करे तो वह खुशीसे ऐसा 'गुणव्रतानि त्रीणि दिग्भोगपरिभोगपरिमाणानर्थदंडकर सकता है । उसमें कोई आपत्ति किये विरतिसंज्ञानि। शिक्षापदव्रतानि सामायिकदेशावकाजानकी जरूरत नहीं है और न यह कहा जा शिकप्रोषधोपवासातिथिसंविभागाख्यानि चत्वारि ।' सकता है कि उसका ऐसा विधान जिनेंद्रदेवकी *ये सब व्रत प्रायः वही हैं जो ऊपर स्वामी समंतआज्ञाके विरुद्ध है अथवा महावीर भगवानके भद्राचार्यके शासनमें दिखलाये गये हैं और इस शासनसे बाहर है; क्योंकि उक्त प्रकारका विधान लिये श्वेताम्बर आचार्यों का शासन, इस विषयमें, जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध नहीं है। और जो प्रायः समंतभद्रके शासनसे मिलता जुलता है। सिर्फ विधान जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध नहीं होता वह दो एक व्रतोंमें, क्रमभेद अवश्य है । समंतभद्रने अनर्थदंडविरतिको दूसरे नम्बर पर रक्खा है और पर महावीर भगवानके अनुकूल है । उस यहाँ उसे तीसरा स्थान प्रदान किया गया है । इसा प्रकारान्तरसे जैनसिद्धान्तोंकी व्याख्या अथवा तरह शिक्षाव्रतोंमें देशावकाशिकको यहाँ पहले नम्बर १ जरूरतोंको बढ़ने न देना, प्रत्युत घटाना । . पर न रख कर दूसरे नम्बर पर रक्खा गया है। इसके २ अन्तःकरणकी आवाजके विरुद्ध न चलना। सिवाय चौथे शिक्षाव्रतके नाममें भी कुछ परिवर्तन है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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