Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 29
________________ मुक्तिके मार्ग। ध्यको पद पद पर जीवनकी प्रसारण-विरोधी सर्व- उनकी व्यवस्था और आदेश है । उनके ग्रासी जडशक्ति और समाजशक्तिके साथ प्रतिद्वन्दी दुःखविधाताके बहकानेसे मानवजातिके संग्राम करके आगे बढ़ना पड़ता है, यह नित्य- आदिम माता-पिता (आदम और हव्वा ) ने की घटना और प्रत्यक्ष व्यापार है। यही मनु- उनकी आज्ञाकी अवहेला की थी, इसी लिए प्यका जीवन है । इस संग्राममें जरा भी शिथि- .उनका मनुष्यजातिके ऊपर यह दुर्जय कोप है। लता आई कि फिर जीवनरक्षा असाध्य हो आदिम माता-पिताके पापसे भविष्यत् वंशपरंपरा जाती है। यहाँ तक कि सावधानता और वीर- किस प्रकार दण्डनीय हो सकती है और परम तासे युद्ध चलाते रहने पर भी जीवनरक्षा दयालुताके साथ इस तीव्र प्रतिहिंसाप्रवृत्ति अन्त तक साध्य नहीं होती, यही तो जीवनकी (बदलेकी इच्छा) का किसप्रकार सामञ्जस्य विशिष्टता है । यह दूसरी बात है कि तुम हो सकता है, इसका कोई सन्तोषजनक उत्तर उसका नाम दुःख मत रक्खो; वह भाषागत नहीं मिलता । जान पड़ता है, यह खुदाका विवादका विषय है, परन्तु इससे हम जिसे दुःख एक खयाल मात्र है, अथवा उसकी रहस्यमय नाम दे रहे हैं, उसका अभाव सिद्ध नहीं होता। जागतिक विधानावलियोंमेंसे . एक रहस्यमय पर सभी लोग दुःखके अस्तित्वको अस्वी- विधान मात्र है । कुछ भी हो, जब प्रतिद्वन्द्वी कार नहीं करते और इसकी उन्नतिके कारण दुःखविधाता उनके प्यारे जगतमें झगड़ा मचाभी और और बतलाते हैं। कर अनर्थघटित करनेमें समर्थ हुआ है, तब इसे जैरथोस्तके मतानुसार संसारमें दो प्रति- सर्वशक्तिमानकी अदूरदृष्टिताका ही फल समद्वन्दी विधाता प्रभुत्व कर रहे हैं, एकका कार्य झना पड़ता है । परन्तु वे इस अनर्थका है सुखविधान और दूसरेका दुःखविधान । मा प्रतिकार करनेमें समर्थ हैं और किसी समय अन्तमें जान पड़ता है सुखविधाताकी ही जय इसका प्रतीकार कर भी देंगे, मनुष्य इसी भरोसे होती है, अतएव मनुष्यका कर्तव्य है कि वह पर ढाढ़स. पर ढाढ़स बाँधे रहता है । उस सुखविधाताने सुखविधाताका ही आश्रय ग्रहण करे । १९ मानवजातिके आदि दम्पती (जोड़े) को 'शेमेटिक जातियोंने भी संभवतः यही मत स्वाधीन इच्छाके साथ साथ असमर्थता प्रदान करके क्यों अपने प्रतिद्वन्दीकी ईर्ष्यावृत्तिको तृप्त ग्रहण करके दो विधाताओंका-खुदा और करनेका सुयोग दिया, यह भी एक सोचने शैतानका अस्तित्व स्वीकार किया है । सुख समझनेकी बात है। .. विधाताका पराक्रम दुःखविधाताकी अपेक्षा सर्वतोभावसे अधिक है, यहाँतक कि यदि वे वास्तवमें विधातामें करुणामयत्वका आरोफ, चाहते तो सारे दुःखोंका विलोप-साधन भी कर करके उसकी सृष्टि में दुःखका अस्तित्व स्वीकार सकते । परन्तु उनकी आज्ञाकी अवहेलना ही करनेसे बड़ा ही गोलमाल मच जाता है । इसी इस अभागिनी मनुष्यजातिके प्रति उनके निदा- लिए इस दुःखकी नाना प्रकारकी व्याख्यायें रुण क्रोधका कारण हो गई है, और मनुष्यको करके दुःखके अस्तित्वको ढंक देने अथवा उडा इसी क्रोधका फल निर्दिष्ट काल तक अपने देनेके लिए नाना प्रकारकी चेष्टायें की गई हैं। पापके प्रायश्चित्तस्वरूप भोगना पड़ेगा । यही १ खुदा और शैतानको माननेवाले सभी धर्म खुदा १पारसी-धर्मके प्रवर्तक जरदुछ या. जरथोस्त । या ईश्वरको परमदयालु करुणासागर मानते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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