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२४० र जैनहितैषी
[भाग १४ सम्पादक जैनगजट और न मचानी पड़ती कि धर्म इबा जा रहा है
___ उसकी रक्षाके लिए ' धर्मशिक्षाकी पतवारकी विचार-परिवर्तन । आवश्यकता है । हम सम्पादक महाशयकी
अध्यात्म-जीवनीसे परिचित नहीं हैं, शायद वे
जन्मसे ही मति-श्रुत-अवधिधारी हों और पूर्वोक्त . (लेखक-श्रीयुत, नाथूराम प्रेमी)
नियमके अपवाद हों, इसी लिये जहाँके तहाँ, स्वनामधन्य हिन्दी जैनगजटके सम्पादक बर- चलता-मलिनता-अगाढ़ता रहित, दूधके धोये सॉसे एक बड़ा भारी कष्ट उठा रहे हैं । पुराने जैसे रक्खे हों । परन्तु सभी तो ऐसे नहीं हो जैनपत्रोंके संग्रह-समुद्रको मन्थन करके वे अपने सकते हैं। उनकी बद्धिका विकाश तो क्रमपाठक-परिवारके सम्मुख इस तत्त्वरत्नको रख रहे क्रमसे ही होता है । ऐसी दशामें उनके विचारहैं कि इस समय उनके विचारोंसे विरुद्ध लिख- परिवर्तनको तिरस्कारकी दृष्टिसे देखना, उन्हें नेवाले जितने लेखक हैं वे एक समय उन्हींके रातदिन कोसना या उन्हें बुद्धिभ्रष्ट बतलाना अनयायी थे । समयके प्रभावसे अब उनकी कहाँकी बुद्धिमानी है ! बद्धि बिगड़ गई है.और वे ( उनके माने हुए) स्वर्गीय पं० गोपालदासजी बरैया पहले जैनधर्म पर कुठाराघात कर रहे हैं । इत्यादि। आर्यसमाजी खयालोंके थे, पीछे उनके विचारोंहम जैनगजटके ग्राहकों और पाठकोंको इतना में परिवर्तन हो गया और वे कट्टर जैन बन विवेकशन्य नहीं समझते हैं कि वे सम्पादक गये। स्वामी विद्यानन्द या पात्रकेसरीके विषमहाशयके उद्धार किये हुए इस वारुणीरत्नको यमें प्रसिद्ध है कि वे पहले वेदानुयायी पण्डित ही अमृत समझकर पान कर जायँगे और मत- थे, पीछे देवागमके प्रभावसे उनके विचारोंमें वाले बनकर केवल इसी एक दललिके जोर पर परिवर्तन हो गया और उन्होंने सुप्रसिद्ध तार्किक उनकी हॉमें हाँ मिलाने लगेंगे, इस कारण हमें बनकर जैनधर्मके तर्कसाहित्यको चमका दिया। सम्पादक महाशयके इस मन्थन-श्रम पर बड़ा महावीर भगवानके जितने गणधर थे वे सब तरस आता है और हम चाहते हैं कि वे अपनी
। प्रायः वेदानुयायी ब्राह्मण थे और इस विचारशक्ति और समयका व्यय किसी अन्य उपयोगी परिवर्तनकी महिमासे ही द्वादशांगके ज्ञाता हुए कार्यके लिए करने लगे तो अच्छा हो। थे। इन सब उदाहरणोंके होते हुए भी यदि
मनुष्यके विचार सदा एकसे नहीं. रहते। कोई विचारपरिवर्तनको बुरा समझे और इसके उनमें निरन्तर परिवर्तन हुआ करते हैं । जिस कारण बिगड़कर जमीन-आसमान एक करने बातको आज एक मनुष्य अच्छा समझता है लगे तो इसके सिवाय और क्या कहा जा सकता उसको कैल बुरा समझने लगता है। यह विचार- है कि उसे 'बुद्धिमान्य' हो गया है। परिवर्त नशीलता मनष्यजातिमें है. इसीलिए यदि बाब सरजभानजी. बाब जगलकिशोरजी संसारमें उपदेशकों, गुरुओं. और पुस्तकोंकी आदिके और मेरे विचार आजसे दस बीस वर्ष आवश्यकता है। यदि यह न होती, जन्मसे पहले सम्पादक महाशयके ही जैसे थे और अब लेकर मरणतक मनुष्यके एकसे 'कूटस्थ नित्य' उनमें परिवर्तन हो गया है, तो इसमें तो कोई विचार रहते, उनमें कभी परिवर्तन नहीं होता, आश्चर्यकी बात नहीं है । यह तो स्वाभाविक तो सम्पादकमहाशयको रातदिन यह चिल्लाहट ही है। मनुष्यका अध्ययन और अनुभव ज्यों
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