Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 54
________________ -२३८ जैनहितैषी - [ भाग १४ सकता है, उनमें मतवादका गन्ध तक नहीं कोड़में स्थान दे सकता था, पर आजकल का है । गीतामें भी: हिन्दूधर्म साकारवादी और निराकारवादियोंको भी मिलकर नहीं रहने देता। पहलेका हिन्दूधर्म सदाचारीको धर्मात्मा और ज्ञानीको मोक्षका अधिकारी ( चाहे वह कोई हो ) मानता था, पर आजकलका हिन्दूधर्म अपने लक्ष्यसे ही च्युत होकर या तो मत मतान्तरके शुष्क वादविवाद में या पुरानी लकीरको पीटनेमें अपनी शक्तिका दुरुपयोग कर रहा है । संसारके और समस्त विषयोंमें हम विचारशक्तिका उपयोग कर सकते हैं, पर केवल धर्म ही एक ऐसा सुरक्षित विषय है कि जिसमें आँखें बन्द करके दूसरोंके पीछे चलना चाहिए । यदि इसकी कोई सीमा नियत होती, तब भी गनीमत थी, पर अब इस दशामें जब कि इसकी अबाध सत्ता है, कोई भी विषय हमारे लिए ऐसा नहीं रह जाता, , जिसमें हम स्वच्छन्द विचरण कर सकें । धर्मके नाम से अब तक हमारे समाजमें जैसे जैसे अनर्थ और अत्याचार हो रहे हैं, उनके कारण हमारे करोड़ों भाई बहन मनुष्य होते हुए पशु जीवन व्यतीत कर रहे हैं । इस बीसवीं सदीमें जब कि अन्य देशवासी राष्ट्र ही नहीं किन्तु राष्ट्रसंघ और साम्राज्यकी स्थापना कर रहे हैं, भारतवर्ष यदि समाज-संगठनके भी अयोग्य है तो उसका कारण भ्रमात्मक संस्कार ही हैं । श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । इत्यादि वाक्यों में 'धर्म' शब्द कर्तव्यका ही सूचक है, क्योंकि मनुष्यके लिए प्रत्येक -दशामें अपने कर्त्तव्यका पालन करना ही सर्वोपरि धर्म है, अपने कर्त्तव्य से उदासीन होकर बूसरोंका अनुकरण करना चाहे वे अपनेसे श्रेष्ठ भी हों, अनधिकार चर्चा है । जब मनुष्यके आचार या कर्त्तव्यका नाम धर्म है तब यदि हमारे पूजनीय पूर्वजोंने उसको मनुष्यकी प्रत्येक दशासे ( चाहे वह आत्मिक हो या सामाजिक या वैयक्तिक ) सम्बद्ध किया तो इससे उनका यह अभिप्राय कदापि नहीं हो सकता था कि उन्होंने हमको मतवादके जाल में फँसाने के लिए धर्मकी टट्टी खड़ी की। उन्होंने तो हमारे मनुयत्वकी रक्षा के लिए ही प्रत्येक कार्यमें इसका आयोजन किया था । अब प्रश्न यह होता है कि जब धर्म मतसे पृथक् है तो फिर मतवादमें या भ्रमात्मक विश्वासों में उसका पर्यवसान क्यों कर हुआ ? इसका कारण चाहे कुछ हो पर इसमें सन्देह नहीं कि हमारे दौर्भाग्य से इस समय हमारी धार्मिक अवस्था वह नहीं हैं जो उपनिषदा आर दर्शनोंके समय थी । उस समय सैद्धान्तिक भेद भी हमारे धर्मको कुछ हानि नहीं पहुँचा सकता था, पर आजकल आंशिक भेदको भी हमारा कोमल धर्म सहन नहीं कर सकता। उस समय हिन्दू धर्म इतना उदार था कि वह बौद्ध और जैन जैसे निरीश्वरवादी मतोंको भी अपने Jain Education International हम मानते हैं कि जैसा धर्मका दुरुपयोग आजकल भारतवर्ष में हो रहा है, और ऐसा कहीं देखने में न आवेगा । परन्तु अब प्रश्न यह है कि धर्मका प्रयोग अन्यथा किया जारहा है, क्या इसलिए हम धर्मको ही छोड़ दे ? यदि कोई मनुष्य अपनी मूर्खतासे अग्निमें हाथ जला लेता: For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org

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