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अङ्क ७८ ]
उसकी लिखी हुई पुस्तक या पत्र नहीं पढ़ना चाहिए - कुछ अर्थ नहीं रखता । इस तरहका आन्दोलन - जिसका सारा दार मदार साधारण
गूढ गवेषणायें ।
भोली भाली जनताकी अज्ञानता पर रहता है- ( लेखक, श्रीमान् गड़बड़ानन्दजी शास्त्री । )
गूढ़ गवेषणायें ।
अधिक टिकाऊ नहीं होता। कुछ समय तक अवश्य ही इसका कुछ फल दिखलाई देता है; परन्तु ज्यों ही लोग समझने- बूझने लगते हैं - यह आन्दोलनकी दीवाल अररा कर गिर पड़ती है ।
यह याद रखना चाहिए कि संस्कृत, प्राकृत "या पुरानी ढूँढारी आदि भाषाओं में लिखे हुए सभी ग्रन्थ शास्त्र नहीं कहला सकते। केवल इसी हेतुसे कि वे अबसे पहलेके लिखे हुए हैं सभी आचार्यों, पण्डितों और भट्टारकोंके लेख मस्तक पर नहीं चढ़ाये जा सकते । किसी बड़े आचार्य या महात्मा के नामसे भी अब अधिक समय तक लोग नहीं भुलाये जा सकते। अब तो भगवान् समन्तभद्रके नीचे लिखे हुए लक्षणोंसे युक्त शास्त्र ही शास्त्र गिने जायँगे और उन्हींके आगे विवेकियों और विचारशीलोंके मस्तक नत होंगे:
आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत् सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ अर्थात् जो आप्त या रागद्वेषरहित ज्ञानीका कहा हुआ हो, जिसका खण्डन नहीं हो सके, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोंसे बाधित न हो, जिसमें तत्त्व या सत्यका उपदेश हो, जो मनुष्यमात्र और जीवमात्रका हितकारक हो और कुमार्गका मिटानेवाला हो वही सच्चा शास्त्र है ।
अन्तमें सम्पादक महाशयसे फिर एक बार - प्रार्थना है कि वे लोगोंके विचारपरिवर्तनों को प्रकट करने में जो एड़ी चोटीका पसीना एक कर रहे हैं, उसके करनेकी कृपा न करें और न शास्त्रों और ग्रन्थोंकी दुहाई देकर लोगोंको उत्तेजित करनेका प्रयत्न करें। इसका कुछ फल न होगा । संसारमें अन्धविश्वासों और गतानुगतिकताओंको पुनः प्रतिष्ठित करनेके प्रयत्न सफल होने के दिन चले गये ।
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( १ ) 'अस्माकूणां नैयायिकाणां कर्णे ' बहुतदिनोंसे यह वार्ता गूँज रही है कि ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी बाहरसे ' बगुला ' ( स्थितिपा - लक) और भीतरसे सौ-टंची सुधारक हैं । परन्तु हमने इस बातपर कभी विश्वास नहीं किया । बिना हेतु और प्रमाणके किसी बातको मान लेना शास्त्रिसम्प्रदायमें निषिद्ध है । उथली बुद्धिके बाबूसम्प्रदायकी बात दूसरी है। बेचारे . करें भी क्या ? हेतु और प्रमाणका शास्त्र सीखे हों तब न । परन्तु सावनवदी ७ के जैनमित्रको पढ़कर मैं चौंक पड़ा। उसमें ब्रह्मचारीजी महाराजने स्त्रीशिक्षा के प्रचारकी आवश्यकताको बड़े जोरोंके साथ प्रतिपादन किया है और उसकी पुष्टि माडर्न रिव्यू के सम्पादक श्री बाबू रामानन्द चटर्जीके लेखका हवाला दिया है । चटर्जी बाबू बड़े भारी सुधारक हैं। स्त्रियोंके लिए वे ऊँचीसे ऊँची शिक्षा देनेके पक्षपात हैं । वे तो राज्यकी बड़ी बड़ी कौंसिलों तक में स्त्रियोंका जाना और उन्हें सम्मति देनेका अधि कार मिलना आवश्यक समझते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि ब्रह्मचारीजी भी अपने समाजकी स्त्रियोंको ऐसा ही बनाया चाहते हैं ।
अब जरा सूक्ष्म शास्त्रीय बुद्धिसे इस बातपर विचार कीजिए । यह निश्चय है कि ब्रह्मचारीजी केवल पूजा- पाठ सूत्र - भक्तामर, सामायिक-आलोचना आदिकी शिक्षाको ही पर्याप्त नहीं समझते हैं। वे उन्हें व्याख्यान देनेके, पाठशालाओं में पढ़ा सकनेके, सर्वसाधारणमें ऊँचे विचार फैला सक-के और अपने गृहको स्वर्ग बना सकनेके योग्य बनाना चाहते हैं । ये बातें सुननेमें तो बड़ी
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