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हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।।
चौदहवाँ भाग।
अंक ७-८
जैनहितैषी।
वैशाख, ज्येष्ठ २४४६ अप्रल, मई १९२०
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न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी।
बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी' ॥ जगतकी रचना और उसका विचारसे किसी विषयकी जाँच तथा खोज कर
नेका अर्थ सिवाय इसके और कुछ भी नहीं __ प्रबंध।
होता है कि संसारमें जो कुछ भी हो रहा है [ लेखक, श्रीयुत बा० सूरजभानुजी, वकील।] उससे उन कार्यों के नियमोंको निश्चय कर लें
यह जगत् किस तरह बना और किस तरह और फिर उन्हीं नियमोंको अपनी जाँचकी इसका यह सब प्रबन्ध चल रहा है, इस विषयमें कसौटी बना लें । जैसा कि गेहूँ के बीजसे सदा लोगोंमें बहुत ही ज्यादा मतभेद पाया जाता गेहूँका ही पौधा उगता हुआ देखकर हम यह है । सभी अपने मतको 'आप्तवचन' या 'सर्व- सिद्धांत ठहरा लें कि गेहूँ के बीजस तो गेहूँ का ही ज्ञवाक्य ' बता रहे हैं। इससे इस विषयका पौधा उग सकता है, गेहूँके सिवाय अन्य किसी निर्णय शब्द प्रमाणके द्वारा होना तो बिलकुल भी अनाजका पौधा नहीं उग सकता। इस प्रकार ही असम्भव प्रतीत होता है । एक मात्र अनुमान यह सिद्धान्त निश्चय करके और इसे अटल ।' प्रमाणसे ही निश्चय किये जानेका सहारा रह नियम मानकर आगामीको गेहँके बीजसे गेहँका गया है। इसी हेतु हम भी आज इस लेखके पौधा पैदा हो जानेकी बात तो सही और सच्ची द्वारा, तर्क और अनुमानसे इस गहन विषयकी ठहराते रहें तथा गेहूँके बीजसे चने या मटरका खोज पाठकोंके सामने रखते हैं । आशा है कि पौधा पैदा हो जानेकी बातको असत्य मानते रहें। सत्यके इच्छुक हमारे इस लेखको ध्यानके साथ ' इसी प्रकार स्त्रीपुरुष द्वारा ही मनुष्यकी उत्पत्ति पढ़ेंगे और जो बात सच्ची तथा सही सिद्ध होगी देखकर प्रत्येक मनुष्यका अपने माँ-बाप द्वारा उसके मानने में कुछ भी आनाकानी न करेंगे। पैदा होना ही ठीक समझें, इसके विपरीत किसी . इस विषयमें विचार करने योग्य सबसे पहली भी बातको सत्य न मानें । इसी प्रकारकी जाँच बात यह है कि तर्क या अनुमान अर्थात् बुद्धि- और खोजको बुद्धिकी जाँच कहते हैं । अनुभव
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द्वारा खोजे हुए इसी प्रकार के नियमोंसे आपसमें लोगों के मतभेदका निर्णय हो सकता है और होता है ।
जैनहितैषी -
यद्यपि इस विचारणीय विषयके सम्बन्धमें यहाँ दुनियामें सैकड़ों प्रकारके मत माने जा रहे हैं तो भी वे सब, मोटे रूपसे, तीन भागों में विभाजित हो जाते हैं । ( १ ) एक विभागवाले तो एक परमेश्वर या ब्रह्मको ही अनादि अनन्त मानते हैं । इनमें से भी कोई तो यह कहते हैं कि उस ईश्वर या ब्रह्मके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, यह जो कुछ भी सृष्टि दिखाई दे रही है वह स्वमके समान एक प्रकारका भ्रम मात्र है । कुछ यह कहते हैं कि भ्रम मात्र तो नहीं है, दुनिया के सब पदार्थ सत्रूप विद्यमान तो हैं परन्तु इन सभी चेतन अचेतन पदार्थोंको उस परमेश्वरने ही नास्ति से अस्तिरूप कर दिया है । पहले तो एक परमेश्वर के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं था; फिर उसने किसी समयमें अवस्तुसे ही ये सब वस्तुएँ बना दी हैं, जब वह चाहेगा तब इन सब पदार्थोको नास्तिरूप कर देगा और तब सिवाय उस एक ईश्वरके अन्य कुछ भी न रह जायगा । ( २ ) दूसरे विभागवाले यह कहते हैं कि अवस्तुसे कोई वस्तु बन नहीं सकती; वस्तुसे ही वस्तु बना करती है; इस कारण जीव अजीव ये दोनों प्रकारकी वस्तुएँ जो संसार में दिखाई देती हैं न तो किसी के द्वारा बनाई गई हैं और न बनाई ही जा सकती हैं । जिसप्रकार परमेश्वर सदासे है और सदातक रहेगा उसी प्रकार जीव अजीवरूप वस्तुएँ भी सदा से हैं और सदा रहेंगी । परन्तु इन जीवअजीवरूप वस्तुओंकी अनेक अवस्थाओं-अनेक रूपों का बनाना बिगाड़ना उस परमेश्वरके ही हाथमें है । ( ३ ) तीसरे प्रकारके लोगों का यह कहना है कि जीव और अजीव ये दोनों ही प्रकारकी वस्तुएँ अनादिसे हैं और अनन्त तक रहेंगी।
[ भाग १४
इनकी अवस्था और रूपको बदलनेवाली, संसारचक्रको चलानेवाली, कोई तीसरी वस्तु नहीं है । बल्कि इन्हीं वस्तुओं के आपस में टक्कर खाने से इन्हीं गुण और स्वभावके द्वारा संसारका यह सब परिवर्तन होता रहता है-रंग-बिरंगे रूप बनते बिगड़ते रहते हैं ।
इस प्रकार, यद्यपि इन तीनों प्रकारके लोगों के सिद्धान्तों में धरती आकाशका सा अन्तर है तो भी एक जरूरी विषय में सभी सहमत हैं; अर्थात् ये तीनों ही किसी न किसी वस्तुको अनादि अवश्य मानते हैं । नम्बर अव्वल तो यह कहता है कि परमेश्वरको किसीने नहीं बनाया, वह तो बिना बनाये ही सदासे चला आता है और अपने अनादि स्वभावानुसार ही इस सारे संसारको चला रहा है- अनेक प्रकारकी वस्तुओंको बना बिगाड़ रहा है । नम्बर दोका यह कहना है कि परमेश्वरके समान जीव और अजीवको भी किसीनें नहीं बनाया, वे सदासे चले आते हैं और सदातक रहेंगे । इसी तरह नं० ३ भी कहता है कि जीव और अजीवको किसीने नहीं बनाया, किन्तु ये दोनों प्रकार की वस्तुएँ बिना बनाये ही सदासे चली आती हैं । इन तीनों विरोधी मतवालोंमें यह विवाद तो उठ ही नहीं सकता कि बिना बनाये सदासे भी कोई वस्तु हो सकती है या नहीं और जब यह बात भी सभी मानते हैं कि वस्तुमें कोई न कोई गुण या स्वभाव भी अवश्य ही होता है; अर्थात् बिना किसी प्रकारके गुण या स्वभाव के कोई वस्तु हो ही नहीं सकती है, तब ये तीनों ही प्रकारके लोग यह बात भी जरूर मानते हैं कि जो वस्तु अनादि है उसके गुण और स्वभाव भी अनादि ही होते हैं । अर्थात्, अल एक परमेश्वरको अनादि माननेवाले तो उस परमे -- श्वरके गुण और स्वभावको अनादि बताते हैं; जीव, अजीव और परमेश्वरको अनादि मानने
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अङ्क ७–८ ]
बाले इन गुणोंको अनादि कहते हैं, और केवल जीव और अजीवको ही अनादि माननेवाले इन दोनोंहीके गुणोंको अनादि बताते हैं । अतः इन दो बातो में तो संसारके सभी मतवाले सहमत हैं कि ( १ ) संसारमें कोई वस्तु बिना बनाये अनादि भी हुआ करती है और (२) उसके गुण और स्वभाव भी बिना बनाये अनादि होते हैं । अब केवल इतनी ही बात निश्चय करनी बाकी रह जाती है कि कौन वस्तु तो बिना बनी हुई अनादि है और कौन वस्तु बनी हुई अर्थात् सादि है ।
जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध ।
इस बातका निर्णय करनेके वास्ते हम अपने पाठकों को फिर उस बातकी याद दिलाते हैं जिसका उल्लेख हमने ऊपर किया है; अर्थात्, ऐसी बातोंके निर्णय करनेके हेतु मनुष्य • जो कुछ भी अपने बुद्धिबलसे कर सकता है वह यही हैं कि संसारके चलते हुए कारखाने के नियमोंको ढूँढ निकाले और फिर उन्हीं नियमोंके द्वारा इन गुप्त और गहन विषयोंका भी निर्णय कर लेवे । परन्तु इस प्रकार खोज करने पर संसारमें तो ऐसी कोई भी वस्तु नहीं मिलती • है जो बिना किसी वस्तु के ही बन गई हो, अर्थात् नास्तिसे ही अस्तिरूप हो गई हो । और न कोई ऐसी ही वस्तु देखी जाती है जो किसी समय नास्तिरूप हो जाती हो । बल्कि यहाँ तो वस्तुसे ही वस्तु बनती देखी जाती है; अर्थात् प्रत्येक वस्तु किसी न किसी रूपमें सदा ही बनी रहती है । भावार्थ, न तो कोई नवीन वस्तु पैदा ही होती है और न कोई वस्तु नाश ही होती है, बल्कि जो वस्तुएँ पहले से चली आती हैं उन्हींका रूप बदल बदल कर नवीन नवीन वस्तुएँ दिखाई देती रहती हैं; जैसा कि सोना रूपा आदि धातुओं से ही अनेक प्रकार के आभूषण बनाये . जाते हैं । सोना रूपा आदि के बिना ये आभूपण कदाचित् भी नहीं बन सकते हैं । फिर
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उन्हीं आभूषणोंको तोड़कर अन्य अनेक प्रका रके आभूषण बना लिये जाते हैं। उन्हीं का तार खींच कर गोटा ठप्पा आदि बना लिया जाता है, अथवा पत्रा छेत ( गढ़ ) लिया जाता है । गरज यह कि एक सोना या रूपा आदि धातुएँ यद्यपि भिन्न भिन्न प्रकारके रूप धारण करती रहती हैं परन्तु सभी रूपोंमें वे धातुएँ अवश्य विद्यमान रहती हैं । इसी प्रकार बीज, मिट्टी, पानी और वायु आदि परमाणुओंके संगठन से ही वृक्ष बनता है और फिर उस वृक्षको जला देनेसे वे ही परमाणु कोयला धूआँ और राख आदिका रूप धारण कर लेते हैं और फिर आगेको भी अनेक रूप धारण करते रहते हैं । इस तरह जहाँ तक भी इस संसारकी वस्तुओंकी जाँच की जाती है उससे तो यही सिद्ध होता है कि जगतका एक भी परमाणु कमती बढ़ती नहीं होता । बल्कि जो कुछ भी होता है वह यही होता है कि उनका रूप और अवस्था बदल बदल कर नवीन नवीन वस्तुएँ बनतीं और बिगड़ती रहती हैं । ऐसी दशा में मनुष्य के पास तो ऐसा कोई हेतु हो ही नहीं सकता जिससे वह यह कह सके कि किसी समय में कोई वस्तु बिना किसी वस्तुके ही बन गई थी, अर्थात् नास्ति से अस्तिरूप हो गई थी; बल्कि तर्क प्रमाण तथा बुद्धिबलसे काम लेने, और दुनिया के चलते हुए कारखानोंके नियम टटोलने पर तो मनुष्य इसी बात के मानने पर बाध्य होता है कि नास्तिसे अस्ति हो जाना अर्थात् बिना वस्तुके वस्तु बन जाना बिलकुल ही असम्भव हैं और इस लिये यह बात तो स्पष्ट ही सिद्ध है कि संसारकी वस्तुएँ नास्तिसे अस्तिरूप नहीं हो गई हैं किन्तु किसी न किसी रूपमें सदासे ही विद्यमान चली आती हैं और आगेको भी किसी न किसी रूपमें सदा विद्यमान रहेंगीं । अर्थात् संसार की सभी जीव, अजीवरूप वस्तुएँ
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जैनहितैषी
[भाग १४
अनादि अनन्त हैं जिनके अनेक प्रकारके नवीन होना मानना पड़ता है। आगे चलकर हम" नवीन रूप होते जानेके द्वारा ही यह विचित्र वस्तुस्वभावकी खोज करते हैं तो उनके स्वभाव संसार चल रहा है।
भी अनादि और अनन्त ही पाते हैं । अर्थात्, ___ इस प्रकार जीव और अजीवरूप संसारकी अग्निका जो स्वभाव जलाने, उष्णता पहुँचाने और सभी वस्तुओंकी नित्यता सिद्ध हो जाने पर प्रकाश करनेका अब है वह उसमें सदासे ही अब केवल यह बात निर्णय करनेके योग्य है और सदा तक रहेगा । इसी प्रकार लोहे, रह जाती है कि संसारके ये सब पदार्थ किस पीतल, सोने, चाँदी, नमक, सुहागा और प्रकारसे नवीन नवीन रूप धारण करते हैं, फिटकरी आदि सभी पदार्थोके गुण और स्वभाव अर्थात् इन अनादि वस्तुओंके द्वारा इस विचित्र भी सदासे ही चले आते हैं। इनके ये गुण संसारका कारखाना किस तरह चल रहा और स्वभाव अटल होनेके कारण ही मनुष्य है। इस बातके निश्चय करनेके वास्ते भी मनुष्य इनके स्वाभावोंकी खोज करता है और फिर सिवाय इसके और कुछ नहीं कर सकता कि उन खोजे हुए उनके स्वभावोंके द्वारा उनसे. वह संसारके ढाँचेकी जाँच करे और उसकी नाना प्रकारके काम लेता है और बेखटके कार्यप्रणालीके नियमों को ढूंढ निकाले। परन्त उनको काममें लाता है। यदि वस्तुओंके ये इस प्रकारकी खोजमें लगते ही सबसे पहली गुण और स्वभाव अटल न होते-बदलते रहा बात मनुष्यको यह मालूम होती है कि मनुष्य करते-तो मनुष्यको किसी वस्तुके. छूने और मनुष्यसे ही पैदा होता अनादि कालसे चला उसके पास जाने तकका भी साहस न होता; आता है । गाय, भैंस, घोड़ा, गधा, भेड़, बकरी, क्यों कि तब तो यही खटका बना रहता कि कुत्ता, बिल्ली, शेर, भेड़िया, चील, कबूतर, न जाने आज इस वस्तुका क्या स्वभाव हो कौआ, और चिड़िया आदि पशु पक्षियोंकी गया हो, और इसके छूनेसे न जाने क्या फल बाबत भी जो अपने मा-बापसे ही पैदा हुए पैदा हो । परन्तु संसारमें तो यही दिखाई दे रहा देखे जाते हैं, यह मानना पड़ता है कि वे भी है कि वस्तुका जो स्वभाव आज है वही कल था नसल दर नसल सदासे ही चले आते हैं और और वही आगामी कलको रहेगा । इसी कारण बिना माँ-बापके पैदा नहीं किये जा सकते वह वस्तुओंके स्वभावके विषयमें अपने और हैं । गेहूँ, चना, मक्का, बाजरा, उड़द, मूंग, अपनेसे पहलेके लोगोंके अनुभव पर पूरा भरोसा और आम अमरूद आदि उन पौधोंकी बाबत करता है और सभी वस्तुओंके स्वभावको अटल. भी, जो अपने पौधेके बीज, जड़ शाखा आदिसे मानता है । इससे साफ साफ यही नतीजा ही पैदा होते हैं, यह मानना पड़ता है कि निकलता है कि किसी खास समयमें कोई वे भी सन्तानक्रमसे सदासे ही चले आते हैं, किसी वस्तुमें कोई खास गुण पैदा नहीं कर और किसी समयमें एकाएक पैदा होने शुरू नहीं सकता है, बल्कि जबसे वह वस्तु है तभीसे हो गये हैं। इस तरह इन पशु, पक्षी, वनस्पति उसमें उसके गुण भी हैं। और चूंकि संसारकी
और मनुष्योंका अपने माँ बाप या बीज आदिके वस्तुएँ अनादि हैं इस वास्ते उनके गुण भी द्वारा अनादि कालसे पैदा होता हुआ चला आना अनादि ही हैं-उनको किसीने नहीं बनाया है । मानकर इन सबकी उत्पत्ति और निवासस्थानके इसी प्रकार संसारकी वस्तुओंकी जाँच करनेसें, वास्ते इस धरतीका भी अनादि कालसे ही मौजूद यह भी मालूम हो जाता है कि दो या अधिक.
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जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध |
अङ्क ७-८ ]
वस्तुओंको किसी विधि के साथ मिलानेसे जो - नवीन वस्तु इस समय बन जाती है वह इस प्रकारके मिलाप से पहले भी बनती थी और वही आगे को भी बनेगी, जैसा कि नीला और पीला रंग मिलनेसे जो हरा रंग इस समय बनता है वही सदासे बनता रहा है और सदाको बनता रहेगा । ऐसे ही किसी वस्तुके प्रभावसे जो परि वर्तन किसी दूसरी वस्तु हो जाता है वह पहले भी होता था और वही आगेको भी होगा ; जैसा कि आगकी गर्मी से पानीकी जो भाप इस समय बनती है वही पहले बनती थी और वही आगेको भी बनती रहेगी । लकड़ियोंको आगमें डालनेसे, इस समय, जैसी वे कोयला धुआँ और राखरूप हो जाती हैं वैसी ही पहले भी होती थीं और आगेको भी होती रहेंगीं । सारांश यह कि, संसारकी वस्तुओं के आपस में अथवा अन्य वस्तुओंपर अपना प्रभाव डालने या अन्य वस्तुओंसे प्रभा वित होने आदिके सब प्रकारके गुण और स्वभाव ऐसे नहीं हैं जो बदलते रहते हों या बदल सकते हों, बल्कि वस्तुओंकी जाँच और खोजके द्वारा उनके ये सब स्वभाव अटल ही दिखाई देते हैंअनादि अनन्त ही सिद्ध होते हैं । इस प्रकार मनुष्यको अपने बुद्धिबलसे काम लेने पर जब यह बात सिद्ध हो जाती है कि वृक्षसे बीज और बीजसे वृक्षकी उत्पत्तिके समान या मुरगी और मुरगीसे अंडेके समान संसारके मनुष्य, अनेक पशु पक्षी और वनस्पतियाँ नसल दर नसल, सन्तान दर सन्तान, अनादिकाल से ही चले आते हैं, किसी समयमें इनका आदि नहीं हो सकता और इन सबके अनादि होनेके कारण इस पृथ्वीका भी अनादि होना जरूरी . है जिसपर वे अनादि कालसे उत्पन्न होते और वास करते हुए चलें आवें। साथ ही, वस्तुओंके गुण, स्वभाव और आपस में एक दूसरे पर असर डालने तथा एक दूसरेके असरको ग्रहण करनेकी
अंडे से
सभी
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麻
प्रकृति आदि भी अनादि काल से ही चली आती है, तब जगतके प्रबन्धका सारा ही ढाँचा मनुव्यकी आँखों के सामने हो जाता है, उसको साफ साफ दिखाई देने लग जाता है कि दुनियामें जो कुछ भी हो रहा है वह संत्र वस्तुओंके गुण और स्वभावसे ही हो रहा है । संसारकी इन सब वस्तुओंके सिवाय न तो कोई भिन्न प्रकार की शक्ति ही इस प्रबन्धमें कोई कार्य कर रही है और न किसी भिन्न शक्तिकी किसी प्रकारकी कोई जरूरत ही है । जैसा कि जब समुद्रके पानी पर सूरज की धूप पड़ती है तो उस धूपमें जितना ताप होता है उसीके अनुसार समुद्रका पानी उस तापसे प्रभावित हो ( तप्त हो) भाफ बनजाता है और जिधरको हवाका प्रवाह होता है। उधरको ही माफके रूपमें बहा चला जाता है । फिर जहाँ कहीं भी उसे इतनी ठंड मिल जाती है कि वह पानीका पानी हो जावे वहीं पानी होकर बरसने लगता है । पुन: वह बरसा हुआ पानी अपने समतल रूप रहनेके स्वभावके कारण ढालहीकी तरफको बहने लग जाता है और धरतीकी उस वस्तुको, जो पानी में घुल सकती है, घोलता और अपने साथ लेता हुआ चला जाता है । इसी प्रकार जो वस्तुएँ पानीपर तैर सकती हैं वे भी उस पानी पर तैरती हुई साथ साथ चली जाती हैं, परन्तु जो वस्तुएँ न पानीमें घुल सकती हैं और न पानी पर तैर सकती हैं, वे प्रवाहित पानी के धक्कोंसे कुछ दूरतक तो लढ़कती हुई साथ जाती हैं परन्तु जिस स्थानपर धरतीका ढाल कम होनेके कारण पानीका प्रवाह हलका हो जाता है वहीं वे वस्तुएँ रह जाती हैं । पानीका यह प्रवाह अपने मार्गकी हलकी हलकी रुकावटों को हटाकर अपना मार्ग साफ करता, बलवान् रुकावटोंसे अपना मार्ग अदलता बदलता, घूमता घामता ढालहीकी ओर बहता जाता है । और जहाँ कहीं भी कोई गड्ढा पाता है वहीं जमा
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जैनहितैषी
[ भाग १४ होने लग जाता है तथा जो पानी गड्डेसे अधिक होता है कि जिसको दूर हटाना और विचारहोता है वह आगेको बहता चला जाता है; यहाँ क्षेत्रमें खड़ा रहना ही असम्भव हो जाता है । हाँ, तक कि वह बहता बहता समुद्र में ही जा विचारके क्षेत्रसे दूर भाग जाने पर, पक्षपात और पहुँचता है।
• अंधविश्वासकी लाठीको चारों तरफ घुमाकर किसी __धूप, हवा, पानी और मिट्टी आदिके इन भी हेतु या प्रमाणको अपने पास न फटकने उपर्युक्त स्वभावोंसे दुनिया भरमें लाखों और देनेकी अवस्थामें हम जो चाहे मान सकते हैं; करोड़ों ही परिवर्तन हो जाते हैं, जिनसे फिर पर ऐसी दशामें हमारे लिये यह बात भी जरूरी नवीन नवीन लाखों करोड़ों काम होने लग हो जाती है कि न अपनी कहें और न किसीजाते हैं। और भी जिन जिन कार्योंपर दृष्टि की सुनें-अर्थात्, स्वयं भी जो चाहे विश्वास दौड़ाते हैं उन उनपर इसी प्रकार वस्तुस्वभावके बाँध कर बैठ जावें और दूसरोंको भी उलटा द्वारा ही कार्य होता हुआ पाते हैं और होना भी पुलटा जो मन चाहे विश्वास बाँध लेने देवें । चाहिए ऐसा ही; क्योंकि जब संसारकी सारी वस्तुएँ गरज न तो अपने विश्वासको झूठा बतानेका तथा उनके स्वभाव सदासे हैं; जब संसारकी सारी किसीको अधिकार देवें और न स्वयं किसीके वस्तुएँ आपसमें एक दूसरे पर अपना अपना विश्वासको असत्य ठहरावें । प्रभाव डालती हैं और दूसरी वस्तुओंके प्रभावसे विचारनेकी बात है कि जब समुद्र के पानीकी प्रभावित होती हैं तब तो यह बात जरूरी ही ही भाफ बन कर उसका ही बादल बनता है है कि उनमें सदासे ही बराबर खिचड़ीसी पकती तब यदि वस्तुस्वभावके सिवाय कोई अन्य ही रहे और संसारकी वस्तुओंके स्वभावानुसार नाना बारिश बरसानेका प्रबन्ध करनेवाला होता तो प्रकारके परिवर्तन होते रहें। यही संसारका सारा वह तो कदाचित् भी उस समुद्र पर पानी न कार्य-व्यवहार है जो वस्तुस्वभावके द्वारा अपने बरसाता जिसके पानीकी भाफ बन कर ही यह आप हो रहा है और अविचारी पुरुषोंको बादल बना था । परन्तु देखनेमें तो यही आता चकित करके भ्रममें डाल रहा है।
है कि बादलको जहाँ भी इतनी ठंड मिल जाती इस प्रकार दुनियाके इस सारे ढाँचेकी पड़- है कि भाफका पानी बन जावे वहीं वह बरस ताल करने पर, बुद्धि और विचारसे काम लेने पड़ता है । यही कारण है कि वह समुद्र पर भी पर, सिवाय इसके और कुछ भी सिद्ध नहीं बरसता है और धरती पर भी । वह बादल तो होता कि जिन जिन वस्तुओंसे यह दुनिया इस बातकी जरा भी परवाह नहीं करता कि बनी हुई है वे सभी जीव, अजीव तथा उनके मुझे कहाँ बरसना चाहिए और कहाँ नहीं । गुण और स्वभाव अनादि अनन्त हैं। उनके इन इसी कारण कभी तो यह वर्षा समय पर हो अनादि स्वभावोंके द्वारा ही जगतका यह सब जाती है और कभी कुसमय पर होती है, बल्कि कार्य्य व्यवहार चल रहा है। इन जीव अजीव कभी कभी तो यहाँ तक भी होता है कि सारी पदार्थोके सिवाय न तो कोई तीसरी वस्तु सिद्ध फसल भर अच्छी बारिश बरस कर और खेतीकी होती है और न उसके होनेकी कोई जरूरत ही अच्छे प्रकार पालना होकर अन्तमें एक आध मालूम होती है। इसके सिवाय यदि विचारके बारिशकी ऐसी कमी हो जाती है कि सारी वास्ते कोई तीसरी वस्तु मान भी लें तो उसके करी कराई खेती मारी जाती है। यदि वस्तु-." विरुद्ध आक्षेपोंका ऐसा भारी समूह सामने आ खड़ा स्वभावके सिवाय कोई दूसरः प्रबंध करनेवाला
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अङ्क ७-८]
जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध ।
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होता तब तो ऐसी अंधाधुंधी कभी भी न होती। सान । इसीसे कभी कभी ऐसी गड़बड़ी भी हो इस स्थान पर यदि यह कहा जावे कि उसकी जाती है कि जहाँ जरूरत नहीं होती वहाँ तो तो इच्छा ही यह थी कि इस वर्ष इस खेतमें बारिश बरस जाती है और जहाँ जरूरत होती अनाज पैदा न हो या कमती पैदा हो । परन्तु है वहाँ एक बूंद भी नहीं पड़ने पाती । किसी यदि यही बात होती तब तो वह सारी फसल भर प्रबंधकर्ताके न होनेके कारण ही तो मनुष्य, अच्छी अच्छी बारिशें बरसा कर उस खेतीको कुएँ खोद कर और नहर आदि निकाल कर, इतनी बड़ी ही क्यों होने देता ? बल्कि वह तो यह प्रबंध कर सका है कि यदि बारिश न बरसे उस खेतके किसानको ही इतना साहस न करने तो भी वह अपने खेतोंको पानी देकर सब कुछ देता जिससे वह उस खेतमें बीज बोवे । यदि अनाज पैदा कर लेवे। किसान पर उस प्रबंधकर्ताका काबू नहीं चल इसके सिवाय जब प्रत्येक धर्म और पंथके
सकता था और बीजके बोये जानेको वह नहीं कथनानुसार संसारमें इस समय पापोंकी ही • रोक सकता था तो खेतमें पड़े हुए बीजको ही अधिकता हो रही है और नित्य ही भारी भारी 'न उगने देता । यदि बीज पर भी उसका काबू अन्याय देखने में आते हैं, तब यह कैसे माना . नहीं था तो कमसे कम बारिशकी एक बूंद भी जा सकता है कि जगतका कोई प्रबंधकर्ता भी उस खेतमें न पड़ने देता, जिससे वह बीज ही अवश्य है, जिसकी आज्ञाओंको न माननेके कारण जल भुन कर वहीं नष्ट हो जाता । और यदि ही ये सब पाप और अपराध हो रहे हैं । संभव संसारके उस प्रबंधकर्ताकी यही इच्छा होती है कि यहाँ पर कोई भाई ऐसा भी कहने लगें कि इस वर्ष अनाज पैदा ही न हो या कमती कि राजाकी आज्ञा भी तो भंग होती रहती है । पैदा हो, तो वह केवल उन्हीं खेतोंको खुश्क न उनको यह विचारना चाहिये कि राजा न तो करता जो बारिशके ऊपर ही निर्भर हैं बल्कि सर्वका ज्ञाता सर्वज्ञ ही होता है और न सर्वउन खेतोंको भी जरूर खुश्क करता, जिनमें शक्तिमान् । इसलिये न तो उसको सर्व प्रकारक नहरसे पानी आता है । परन्तु देखनेमें यही अपराधों तथा अपराध करनेवालोंका पता लग आता है कि जिस वर्ष बारिश नहीं होती या सकता है और न वह सर्व प्रकारके अपराधोंको कमती बारिश होती है उस वर्ष उन खेतोमें तो दूर ही कर सकता है । परन्तु जो सर्वज्ञ हो, सर्वप्रायः कुछ भी पैदा नहीं होता जो बारिश पर शक्तिमान हो, संसार भरका प्रबंध करनेवाला ही निर्भर हैं, हाँ, नहरसे पानी आनेवाले खेतोंमें हो और एक छोटेसे परमाणुसे लेकर धरती उन्हीं दिनों सब कुछ पैदा हो जाता है। इससे आकाश तककी गति-स्थितिका कारण हो, उसके यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है कि संसारका कोई सम्बंधमें यह बात कभी भी नहीं कही जा एक प्रबंधकर्ता नहीं है, बल्कि वस्तुस्वभावके सकती कि, वह ऐसा प्रबंध नहीं कर सकता, कारण ही जब बारिश बरसनेका सामान बँध जिससे कोई भी उसकी आज्ञाको भंग न कर जाता है तब पानी बरस जाता है और जब सके और सारा कार्य उसकी मर्जी के मुताबिक वैसा सामान नहीं बँधता तब वह नहीं बरसता। (इच्छानुसार ) ही होता रहे । एक ओर तो वर्षाको इस बातकी कुछ भी परवाह नहीं है कि संसारके एक एक कण ( अणु ) का उसे प्रबंधउसके कारण कोई खेती हरी होगी या सूखेगी कर्ता बताना और दूसरी ओर अपराधोंके रोकऔर संसारके जीवोंको नफा पहुँचेगा या नुक- नेमें उसे असमर्थ ठहराना, यह तो वास्तवमें उस
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जैनहितैषी
. [भाग १४ प्रबंधकर्ताका मखौल ही उड़ाना है; बल्कि यों है। परन्तु इसके विरुद्ध, जब तक मनुष्यको कहना चाहिये कि इस तरह तो असिलमें यह खयाल बना रहेगा कि खुशामद करने, उसका न होना ही सिद्ध करना है।
स्तुतियाँ पढ़ने या भेट चढ़ाने आदिके द्वारा भी . अफसोस है कि मनुष्योंने वस्तुस्वभावको मेरे अपराध क्षमा हो सकते हैं तब तक वह बुरे न जानकर विना किसी हेतुके ही संसारका कृत्य करनेसे नहीं बच सकता और न शुभ आचएक प्रबन्धकर्ता मान लिया है । पृथ्वी पर रणोंकी तरफ लग सकता है । अतः मैं संसारके राजाओंको मनुष्योंके बीचमें प्रबंधसम्बंधी कार्य सभी लोगोंसे पुकार पुकार कर यह अपील करता करता हुआ देखकर सारे संसारके प्रबंधकर्ताको हूँ कि वे कारण-कार्यके अटल सिद्धान्तको मान भी वैसा ही कमशक्तिवाला समझ लिया है कर वस्तुस्वभाव पर पूरा पूरा विश्वास लावें, और जिस प्रकार राजा लोग खुशामद तथा अपने भले बुरे कृत्योंका फल भुगतनेके वास्ते स्तुतिसे प्रसन्न होकर खुशामद करनेवालोंके पूरी तौरसे तय्यार रहें और उनका फल टल काबू में आ जाते हैं और उनकी इच्छाके अन- जाना बिलकुल ही असंभव समझें । ऐसा भान सार ही उलटे सीधे कार्य करने लग जाते हैं लेने पर ही मनुष्योंको अपने ऊपर पूरा भरोसा उस ही प्रकार दुनियाके लोगोंने संसारके होगा, वे अपने पैरोंके बल खड़े होकर अपने प्रबंधकर्ताको भी खुशामद तथा स्ततिसे आचरणोंको ठीक बनानेके लिये कमर बाँध काबूमें आजानेवाला मानकर उसकी भी खशा- सकेंगे और तब ही दुनियासे ये सब पाप और मद करनी शुरू कर दी है और वे अपने आच- अन्याय दूर हो सकेंगे। नहीं तो, किसी प्रबंधरणको सुधारना छोड़ बैठे हैं। यही कारण कर्ताके माननेकी अवस्थामें, अनेक प्रकारके है कि संसारमें ऐसे ऐसे महान् पाप फैल भ्रम हृदयमें उत्पन्न होते रहेंगे और दुनियाके रहे हैं जो किसी प्रकार भी दूर होनेमें नहीं लोग पाप करनेकी तरफ ही झुकेंगे । एक तो आते। जब संसारके मनुष्य इस कच्चे खया- यह सोचने लग जायगा कि यदि उस प्रबंधलको हृदयसे दूर करके वस्तुस्वभावके अटल कर्ताको मुझसे पाप कराना मंजूर न होता तो सिद्धान्तको मानने लग जावें तब ही उनके वह मेरे मनमें पाप करनेका विचार ही क्यों आने दिलोंमें यह खयाल जड पकड सकता है कि जिस देता; दूसरा विचारेगा कि यदि वह मुझसे इस प्रकार आँखोंमें मिरच झोंक देनेसे या घाव पर प्रकारके पाप कराना न चाहता तो वह मुझे नमक छिड़क देनेसे दर्दका हो जाना जरूरी है ऐसा बनाता ही क्यों, जिससे मेरे मनमें इस
और वह दर्द किसी प्रकारकी खुशामद या प्रकारके पाप करनेकी इच्छा पैदा होवे; तीसरा स्तुतिके करनेसे दूर नहीं हो सकता, उस ही कहेगा कि यदि वह पापोंको न कराना चाहता प्रकार जैसा हमारा आचरण · होगा उसका तो पापोंको पैदा ही क्यों करता; चौथा सोचेगा फल भी हमको अवश्य ही भुगतना पड़ेगा, कुछ ही हो अब तो यह पाप कर लें फिर वह केवल खुशामद तथा स्ततिसे टाला न ट- संसारके प्रबंधकर्ताकी खशामद करके औ लेगा। जैसा बीज वैसा वृक्ष और जैसी करनी नजर भेट चढ़ाकर क्षमा करा लेंगे; गरज यह वैसी भरनीके सिद्धान्त पर पूर्ण विश्वास हो कि संसारका प्रबंधकर्ता माननेकी अवस्थामें आने पर ही यह मनुष्य बुरे कृत्योंसे बच तो लोगोंको पाप करनेके लिये सैकड़ों बहाने। सकता है और भले कृत्योंकी तरफ लग सकता बनानेका अवसर मिलता है, परन्तु वस्तुस्वभावके .
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अङ्क ७-८] जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध । द्वारा ही ससारका संपूर्ण कार्य व्यवहार चलता राज्यमें दिनदहाड़े सैंकड़ों ही मतोंके प्रचारक हुआ माननेकी अवस्थामें सिवाय इसके और अपने अपने धर्मोका उपदेश करते हैं, अपने कोई विचार ही नहीं उठ सकता कि जैसा अपने सिद्धान्तोंको उसी एक परमेश्वरकी आज्ञा
करेंगे उसका फल भी हम स्वयं वैसा ही अवश्य बताकर उसके ही अनुसार चलनेकी घोषणा _ भुगतेंगे । ऐसा मानने पर ही हम बुरे आचरणोंसे करते हैं, और यह सब कुछ होते हुए भी उस
बच सकते हैं और अच्छे आचरणोंकी तरफ परमेश्वर या संसारके प्रबंधकर्ताकी तरफसे कुछ लग सकते हैं।
भी रोक-टोक, इस विषयमें, नहीं होती। ऐसे पाठक जरा यह भी विचार करें कि यदि भारी अन्धेरकी अवस्थामें तो कदाचित् भी यह कोई प्रबंधकर्ता होता तो क्या ऐसा ही अन्धेर नहीं माना जा सकता कि कोई महाशक्तिरहता जैसा कि अब हो रहा है। अर्थात्, किसीको संपन्न प्रबंधकर्ता इस संसारका प्रबंध कर रहा है; भी इस बातकी खबर नहीं कि हमको इस समय बल्कि ऐसी दशामें तो यही माननेके लिये जो कुछ भी सुख दुःख मिल रहा है वह हमारे ।
विवश होना पड़ता है कि वस्तुस्वभाव पर ही कौनसे कृत्योंका फल है। प्रबंधकर्ता होनेकी हालतमें हमें वह बात प्रकट रूपसे अवश्य ही ।
" संसारका सारा ढाँचा बँध रहा है और उसीके बतलाई जाती, जिससे हम आगामीको बरे अनुसार जगतका यह सब प्रबन्ध चल रहा है। कृत्योंसे बचते और भले कृत्योंकी तरफ लगते, यही वजह है कि यदि कोई मनुष्य वस्तुस्वभापरंतु अब यह मालूम होना तो दूर रहा कि वको उलटा पुलटा समझकर गलती खाता है हमको कौन कौन दुःख किस किस या दूसरोंको बहकाकर गलतीमें डालता है तो कृत्यके कारण मिल रहा है, यह भी संसारकी ये सब वस्तुएँ उसको मना करने अथवा मालूम नहीं है कि पाप क्या होता है और से
र रोकने नहीं जातीं और न अपने अपने स्वभापुण्य क्या । इसीसे दुनियामें यहाँतक अन्धेर
वके अनुसार अपना फल देनेसे ही कभी चूकती छाया हुआ है कि एक ही कृत्यको कोई • पाप मानता है और कोई पण्य अथवा हैं। जैसे आगमें चाहे तो कोई नादान बञ्चा
धर्म । और यही वजह है कि संसारमें सैकडों अपने आप हाथ डाल देवे और चाहे किसी प्रकारके मत फैले हुए है, जिनमें यह बड़े बुद्धिमान-पुरुषका हाथ भूलसे पड़ जावे, परंतु तमाशेकी बात है कि सब ही अपने अपने वह आग उस बच्चेकी नादानीका और बुद्धिमामतको उसी सर्वशक्तिमान प्रबंधकर्ताका प्रचार नके अनजानपनेका कुछ भी खयाल नहीं करेगी, किया हआ बतलाते हैं । जहाँतक हम समझते बल्कि अपने स्वभावके अनुसार उन दोनोंके हैं ऐसा अंधेर तो मामूली राजाओंके राज्यमें भी ,
हाथोंको जलानेका कार्य अवश्य कर डालेगी । नहीं होता । प्रत्येक राजाके राज्यमें जिस प्रकारका कानून जारी होता है उसके विरुद्ध ,
मनुष्यके शरीरमें सैकड़ों बीमारियाँ ऐसी होती हैं यदि कोई मनुष्य कोई विपरीत नियम चलाना जो उसके विना जाने बूझे दोषोंका ही फल चाहे तो वह राजविद्रोही समझा जाता है और होती हैं, परन्तु प्रकृति या वस्तुस्वभाव उसे यह दंड पाता है, परंतु सर्वशक्तिमान परमेश्वरके नहीं बताती कि तेरे अमुक दोषके कारण तुझको
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.१९४
जैनहितैषी
[ भाग १४ यह बीमारी हुई है। इसी तरह हमारे आत्मीय फिर कभी शराबका नाम तक भी न लेवे । दोषोंका फल भी हमको वस्तुस्वभावके अनुसार इसी तरह व्यभिचार तथा चोरी आदिकी भी ही मिलता है और वस्तुस्वभाव हमको यह नहीं ऐसी ही सजा मिलनी चाहिये थी, जिससे बतलाता है कि हमको हमारे किस कृत्यका वह कदापि व्यभिचार तथा चोरी न करने कौन फल मिला, परन्तु फल प्रत्येक कृत्यका
पाता। जो जीव चोरों तथा वेश्याओंके यहाँ
पैदा किये जाते हैं उनका ऐसी जगह पैदा मिलता अवश्य है।
करना तो चोरी और व्यभिचारकी शिक्षा इस प्रकार वस्तुस्वभावके सिद्धान्तानुसार तो दिलानेकी ही कोशिश करना है । संसारके यह बात ठीक बैठ जाती है कि सुख दुःख भुग- प्रबंधकर्ताकी बाबत तो ऐसा कभी भी खयाल तते समय क्यों हमको हमारे उन कृत्योंकी नहीं किया जा सकता कि उसीने ऐसा प्रबंध खबर नहीं होती, जिनके फलरूप हमको वह सुख किया हो अर्थात्, वही पापियों और अप-. दुःख भुगतना पड़ता है। परन्तु किसी प्रबंधकर्ताके राधियोंको चोरों तथा व्यभिचारियोंके यहाँ माननेकी हालतमें वह बात कभी ठीक नहीं पैदा करके चोरी और व्यभिचारकी शिक्षा बैठती, बल्कि उलटा बड़ा भारी अंधेर ही दृष्टि
दिलाना चाहता हो । ऐसी बातें देखकर तो
. लाचार यही मानना पड़ता है कि संसारका गोचर होने लगता है । यदि हम यह मानते हैं ,
हम यह मानत ह कोई भी एक बुद्धिमान प्रबंधकर्ता नहीं हैकि जो बच्चा किसी चोर, डाकू या बेश्या आदि बल्कि वस्तुस्वभावके द्वारा और उसीके अनुपापियोंके घर पैदा किया गया है वह अपने भले सार ही जगतका यह सब प्रबंध चल रहा है, बुरे कृत्योंके फलस्वरूप ही ऐसे स्थानमें पैदा दुनियाका सब कार्य व्यवहार हो रहा है। किया गया है तो प्रबन्धकर्ता परमेश्वर मानने- अतः किसी प्रबंधकर्ताकी खुशामद करके या की अवस्था में यह बात भी ठीक नहीं बैठती भेट चढ़ाकर उसको राजी कर लेनेके भरोसे क्योंकि शराबी यदि शराब पीकर और पागल न रह कर हमको स्वयं अपने आचरणोंको बनकर फिर भी शराबकी दुकानपर जाता है ..
सुधारनेकी ही ओर दृष्टि रखनी चाहिये और
यही श्रद्धान बाँधे रखना चाहिये कि जगत् और पहलेसे भी ज्यादा तेज शराब माँगता है
ज्यादा तन शराब मांगता है अनादिनिधन है और उसका कोई एक बुद्धितो वस्तुस्वभावके अनुसार तो यह बात ठीक मान प्रबंधकर्ता नहीं है। बैठ जाती है कि शराबने उसके दिमागको ऐसा खराब कर दिया है, जिससे अब उसको पहलेसे भी ज्यादा तेज शराब पीनेकी इच्छा उत्पन्न हो गई है। सत्यसमान कठोर, न्यायसम पक्षविहीन, परन्तु जगतके प्रबंधकर्ताके द्वारा ही फल मिलनेकी हूँगा मैं, परिहास-रहित, कूटोक्ति-क्षीण। अवस्थामें तो शराब पीनेका यही दंड मिलना नहीं करूंगा क्षमा, इंचभर नहीं टलँगा, चाहिये था कि वह किसी ऐसी जगह पटक तो भी हूँगा मान्य, ग्राह्य, श्रद्धेय बनूँगा ।। दिया जाय जहाँसे वह शराबकी दुकान तक
_ --हितैषी । ही न पहुँच सके और ऐसा दुःख पावे कि
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अङ्क ७-८] जैनाचार्योंका शासनभेद।
१९५ ... जैनाचार्योंका शासनभेद । संख्यामें कोई आपत्ति मालूम नहीं होती-प्रायः
सभी आचार्योंने, जिन्होंने गुणव्रत और शिक्षा[ तृतीय लेख । ]
वतका विधान किया है, गुणवतोंकी संख्या गुणवत और शिक्षाव्रत ।। तीन और शिक्षाव्रतोंकी संख्या चार बतलाई हैजैनधर्ममें, अणुव्रतोंके पश्चात्, श्रावकके बा
तो भी इनके भेद तथा स्वरूपादिकके प्रति
पादनमें कुछ आचार्योंके परस्पर मत-भेद है । रह व्रतोंमें तीन गुणवतों और चार शिक्षावतोंका
आज उसी मत-भेदको स्थूलरूपसे, यहाँपर, विधान पाया जाता है । इन सातों व्रतोंको सप्त शीलवत भी कहते हैं। गुणवतोंसे अभिप्राय उन
दिखलानेका यत्न किया जाता है:व्रतोंका है जो अणुव्रतोंके गुणार्थ अर्थात् उप
१-श्रीकुंदकुंदाचार्य, अपने 'चारित्रपाहुकारके, लिये नियत किये गये हैं-भावनाभूत हैं- .
ड'में, इन व्रतोंके भेदोंका प्रतिपादन इस प्रकाअथवा जिनके द्वारा अणुव्रतोंकी वृद्धि तथा :
. रसे करते हैं:पुष्टि होती है । और शिक्षाव्रत उन्हें कहते हैं दिसविदिसमाण पढमं अणत्थदंडस्स वजणं विदियं ।
भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि ॥ २५॥ जिनका मुख्य प्रयोजन शिक्षा अर्थात् अभ्यास है जो शिक्षाके स्थानक तथा अभ्यासके विषय तइयं अतिहीपुजं चउत्थं संलेहणा अंते ॥ २६ ॥'
सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । हैं-अथवा शिक्षाकी--विद्योपादानकी-जिनमें
अर्थात्-१ दिशाविदिशाओंका परिमाण, प्रधानता है और जो विशिष्ट श्रुतज्ञानभावनाकी परिणति द्वारा निर्वाह किये जानेके योग्य होते
२ अनर्थदंडका त्याग और ३ भोगोपभोगका हैं । इनमें गुणवत प्रायः यावज्जीविक कहलाते हैं; 'शिक्षाव्रतत्वं चास्य शिक्षाप्रधानत्वात् परिमितकाल. अर्थात, उनके धारणका नियम प्रायः जीवनभर- भावित्वाच्च ।' के लिये होता है-वे प्रतिसमय पालन किये
-इत्याशाधरः स्वसागारधर्मामृतटीकायां । जाते हैं और शिक्षाव्रत यावज्जीविक न होकर २-अनुवृंहणाद्गुणानामाख्यान्त गुणव्रतान्यार्याः ।
--इति स्वामिसमन्तभद्रः । प्रतिदिन तथा नियत दिवसादिकके विभागसे अभ्यसनीय होते हैं- उनका अभ्यास प्रति
३-अणुव्रतानां परिपालनाय भावनाभूतानि गुण
व्रतानि।' 'शिक्षापदानि च शिक्षाव्रतानि वा तत्र समय नहीं हुआ करता, उन्हें परिमितकाल
शिक्षा अभ्यासः स च चारित्रनिबंधनविशिष्टक्रियाभावित समझना चाहिये । यही सब इन दोनों
कलापविषयस्तस्य पदानि स्थानानि तद्विषयानि वा प्रकारके व्रतोंमें परस्पर उल्लेखयोग्य भेद पाया व्रतानि शिक्षाव्रतानि ।' जाता है * । यद्यपि इन दोनों जातिके व्रतोंकी
-इति श्रावकप्रज्ञप्तिटीकायां हरिभद्रः ।
- ४-'शीलं च गुणशिक्षाव्रतं । तत्र गुणव्रतानि... * यथाः
- अणुव्रतानां भावनाभूतानि । यथाणुव्रतानि तथा गुण१-'गुणार्थमणुव्रतानामुपकारार्थव्रतं गुणव्रतं । शि- व्रतान्यपि सकृदगृहीतानि यावज्जीवं भावनीयानि ।' क्षायै अभ्यासाय व्रतं देशावकाशिकादीनां प्रतिदिवसा- 'शिक्षाभ्यासस्तस्याः पदानि स्थानानि अभ्यासभ्यसनीयत्वात् । अतएव गुणव्रतादस्यभेदः । गुणवतं विषयस्तान्येव व्रतानि शिक्षापदव्रतानीति । गुणव्रतानि हि प्रायो यावज्जीविकमाहुः । अथवा शिक्षाविद्योपा- तु न प्रतिदिवसग्राह्याणि सकृद्ग्रहणान्येव । दानं शिक्षाप्रधानं व्रतं शिक्षाव्रतं देशावकाशिका- -इति तत्त्वार्थसूत्रस्य स्वस्वटीकायां सिद्धसेनगणिः . देविशिष्टश्रुतज्ञानभावनापरिणतत्वेनैव निर्वायत्वात् ।'
यशोभद्रश्च ।
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- जैनहितैषी
[साग १४ परिमाण, ये ही तीन गुणवत हैं। १ सामायिक, वाय उन्होंने गुणवतोंमें 'देशविरति' नामके २ प्रोषध, ३ अतिथिपूजन और ४ अन्तमें एक नये व्रतकी कल्पना की है और, साथ ही, सल्लेखना, ये चार शिक्षाव्रत हैं।
भोगोपभोगपरिमाण व्रतको गुणवतोंसे निकाल
कर शिक्षाव्रतोंमें दाखिल किया है । तत्त्वार्थसूत्रके ___ २-तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता श्रीउमास्वाति आचार्यने यद्यपि अपने सूत्रमें 'गुणवत' ऐसा
टीकाकारों पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानंदस्पष्ट नामोल्लेख नहीं किया तो भी सप्तशील
मेंसे किसीने उनके इस कथनपर कोई आपत्ति व्रतोंका जिस क्रमसे निर्देश किया है उससे
नहीं की। बल्कि विद्यानंदने एक वाक्यद्वारा साफ मालूम होता है कि उन्होंने १ दिग्विरति, २
"" तौरसे सल्लेखनाको अलग दिखलाया है और देशविरति, ३ अनर्थदंडविरतिको गुणवत, और
यह प्रतिपादन किया है कि जिस प्रकार मुनियोंके
महाव्रत और शीलवत सम्यक्त्वपर्वक तथा सल्लेख१ सामायिक, २ प्रोषधोपवास, ३ उपभोगपरिभोगपरिमाण, ४ अतिथिसंविभागको शिक्षावत माना
नान्त होते हैं उसी प्रकार गृहस्थके पंच अणुव्रत
और गुणवत-शिक्षाव्रतके विभागको लिये हुए, है । यथाः
सप्तशीलवत भी सम्यक्त्वपूर्वक तथा सल्लेखनान्त दिग्देशानर्थदंडविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोग- समझने चाहियें। अर्थात्, इन व्रतोंसे पहले सम्यपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रतसंपन्नश्च ।
क्त्वकी जरूरत है और अन्तमें-मृत्युके संनिकट . इस सूत्रकी टीकामें-सर्वार्थसिद्धिमें-श्रीपूज्य- होनेपर-सल्लेखना, संन्यास अथवा समाधिका पाद आचार्य भी दिग्विरतिः, देशविरतिः, अनर्थ- विधान होना चाहिये । वह वाक्य इस प्रकार है:दंडविरतिरिति । एतानि त्रीणिगुणवतानि, 'तेन गृहस्थस्य पंचाणुव्रतानि सप्तशीलानि गुण इस वाक्यके द्वारा पहले तीन व्रताको गुणवत व्रतशिक्षाव्रतव्यपदेशभांजीति द्वादशदीक्षाभेदाः सम्यक्त्वसूचित करते हैं । और इसलिये बाकीके चारों ,
पूर्वकाः सल्लेखनाताश्च महाव्रततच्छीलवत् ।' व्रत शिक्षाव्रत हैं, यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है;
____ इस वाक्यमें गृहस्थके बारहव्रतोंको 'द्वादश क्योंकि शीलवत गुणशिक्षावतात्मक कहलाते हैं।
' दीक्षाभेद' प्रकट किया है, जिससे उन लोगोंका सप्तशीलानि गुणवतशिक्षाव्रतव्यपदेशभांजीति, बहुत कुछ समाधान हो सकता है जो अभीतक
ऐसा, श्लोकवार्तिकमें, श्रीविद्यानन्द स्वामीका यह समझे हुए हैं कि श्रावकके बारहव्रतोंका भी वाक्य है।
युगपत् ही ग्रहण होता है, क्रमशः अथवा ___ इससे उमास्वाति आचार्यका शासन, और व्यस्त रूपसे नहीं।। संभवतः उनके समर्थक श्रीपूज्यपाद और विद्या- हाँ, श्वेताम्बर टीकाकारोंमें श्रीसिद्धसेनगणि नंदस्वामीका शासन भी, इस विषयमें, कुंदकुंदा- और यशोभद्रजीने उमास्वातिके उक्त सूत्र पर चार्यके शासनसे एकदम विभिन्न जान पड़ता कुछ आपत्ति जरूर की है। उन्होंने, दिग्विरतिके हैं। उमास्वातिने सल्लेखनाको शिक्षाव्रतोंमें तो बाद देशविरातिके कथनको परमागमके क्रमसे क्या, श्रावकके बारह व्रतोंमें भी वर्णन नहीं विभिन्न सूचित करते हुए, एक प्रश्न खड़ा किया; बल्कि व्रतोंके अनन्तर उसे एक जुदा ही किया है ओर उसके द्वारा यह विकल्प उठाया धर्म प्रतिपादन किया है, जिसका अनुष्ठान मुनि है कि, जब परमागममें गुणवतोंका क्रमसे और श्रावक दोनों किया करते हैं। इसके सि- निर्देश करनेके बाद शिक्षावतोंका उपदेश
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अङ्क ७-८]
जैनाचार्योका शासनभेद। दिया गया है तो फिर सूत्रकार ( उमास्वाति )ने है वह कुछ कार्यसाधक मालूम नहीं होता। उसके विरुद्ध भिन्नक्रम किस लिये रक्खा है। सूत्रकार जैसे विद्वानोंसे ऐसी बड़ी गलती कभी अर्थात्, दिग्विरत्यादि गुणवतोंका कथन पूरा नहीं हो सकती कि वे, जानते बूझते और किये बिना ही बीचमें 'देशविरति' नामके मानते हुए भी, ख्वामख्वाह एक जातिके शिक्षाव्रतका उपदेश क्यों दिया है ? और फिर व्रतको दूसरी जातिके व्रतोंमें शामिल कर दें, आगे स्वयं ही इस क्रमभंगके आरोपका समाधान उन्हें ऐसी बातोंका खास खयाल रहता है किया है । यथाः-
और इसी लिये उन्होंने अपने सूत्रमें अनेक ___“संप्रति क्रमनिर्दिष्टं देशव्रतमुच्यते । अत्राह बातोंको, किसी न किसी विशेषताके प्रतिपादवक्ष्यति भगवान् देशव्रतं । परमार्षप्रवचनक्रमः कैम- नार्थ, अलग अलग विभक्तियों द्वारा दिखला
.द्भिन्नः सूत्रकारेण । आर्षे तु गुणव्रतानि क्रमेणादिश्य नेकी चेष्टा की है । यहाँ क्रमनिर्देशसे ही गुणशिक्षाव्रतान्युपदिष्टानि सूत्रकारेण त्वन्यथा । तत्रायम-. व्रत और शिक्षाव्रत अलग हो जाते हैं, इस भिप्रायः पूर्वतो योजनशतपरिमितं गमनमभिगृहीतं न लिये किसी विभाक्तिद्वारा उन्हें अलग अलग चास्तिसंभवो यत्प्रतिदिवसं तावती दिगवगाह्याऽतस्तद- दिखलानेकी जरूरत नहीं पड़ी। हाँ, दिग्देनंतरमेवोपदिष्टं देशव्रतमिति । देशे भागेऽवस्थापनं ..
शानर्थदंडके बाद 'विरति' शब्द लगाकर प्रतिदिन प्रतिप्रहर प्रतिक्षणमिति सुखाबबोधार्थ
इन तीनों व्रतोंकी एकजातीयता और दूसरे मन्यथाक्रमः ।"
व्रतोंसे विभिन्नताको कुछ सूचित जरूर किया . इस अवतरणमें क्रमभंगके आरोपका जो
है, ऐसा मालूम होता ह। यदि उमास्वातिको समाधान किया गया है और उसका जो अभि-..
- 'देशविरति ' नामके व्रतका शिक्षाव्रत होना प्राय बतलाया गया है, वह इस प्रकार है:
___इष्ट था तो कोई वजह नहीं थी कि वे उसका “ पहलेसे सौ योजन गमनका परिमाण ग्रहण यथास्थान निर्देश न करते । तत्त्वार्थाधिगमकिया था, परंतु यह संभव नहीं कि प्रति दिन माष्यमें भी, जिसे स्वयं उमास्वातिका बनाया इतने परिमाणमें दिशाओंका अवगाहन हो हुआ भाष्य बतलाया जाता है, इस विषयका सके इस लिये उसके ( दिग्वतके ) बाद ही कोई स्पष्टीकरण नहीं है । यदि उमास्वातिने देशवतका उपदेश दिया गया है। इस तरह सखावबोधके लिये ही ( जो प्रायः सिद्ध सुखसे समझमें आनेके लिये ( सुखावबोधार्थ) नहीं है ) .यह क्रमभंग किया होता और तत्त्वासूत्रकारने यह भिन्नक्रम रक्खा है ।"
धिगमभाष्य स्वयं उन्हींका स्वोपज्ञ टीकाजो विद्वान् निष्पक्ष विचारक हैं उन्हें ऊपरके ग्रंथ था तो वे उसमें अपनी इस बातका स्पष्टीइन समाधानवाक्योंसे कुछ भी संतोष नहीं करण जरूर करते, ऐसा हृदय कहता है। परंतु हो सकता । वास्तवमें इनके द्वारा आरोपका वैसा नहीं पाया जाता और न उनकी इस कुछ भी समाधान नहीं हो सका । देशव्रतको सुखावबोधिनी वृत्तिका श्वेताम्बर सम्प्रदायमें दिग्वतके अनन्तर रखनेसे वह भले प्रकार समै- पीछेसे कुछ अनुकरण देखा जाता है। इस झमें आ जाता है, बादको दूखनेसे वह सम- लिये, विना इस बातको स्वीकार किये कि झमें न आता या कठिनतासे समझमें आता, उमास्वाति आचार्य देशविरति नामके व्रतको ऐसा कुछ भी नहीं है । और इस लिये 'सुखाव- गुणवत और उपभोगपरिभोगपरिमाण नामके बोध' नामके जिस हेतुका प्रयोग किया गया व्रतको शिक्षाबत मानते थे, उक्त क्रमभंगके
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जनहितैषी
भाग १४ आरोपका समुचित समाधान नहीं बनता। हमारी ‘भोगोपभोगसंख्यानं...तृतीयं तत्तदाख्यं स्यात्...॥' रायमें, ऐसा मालूम होता है कि श्वेताम्बर
-धर्मशर्माभ्युदये श्रीहरिचंद्रः । सम्प्रदायके आगम ग्रंथोंसे तत्त्वार्थसूत्रकी विधि ऊपरके इन सब अवतरणोंसे साफ प्रकट है ठीक मिलानेके लिये ही यह सब खींचातानी कि श्रीसोमदेवसरि, चामंडराय, अमितगति की गई है । अन्यथा, उमास्वाति आचार्यका मत आचार्य और श्रीहरिचंद्रजीने दिम्बिरति, देशइस विषयमें वही मालूम होता है जो इस नम्बर विरति , अनर्थदंडविरति इन तीनोंको गणवत (२) के शुरूमें दिखलाया गया है और और सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग जिसका समर्थन श्रीपूज्यपादादि आचार्योंके परिमाण, अतिथिसंविभाग, इन चारोंको शिक्षावाक्योंसे भले प्रकार होता है । और भी बहुतसे व्रत वर्णन किया है। साथ ही, इन सभी विदाआचार्य तथा विद्वान् इस मतको माननेवाले नोंने भी सल्लेखनाको श्रावकके बारह व्रतोंसे हुए हैं, जिनमेंसे कुछके वाक्य नीचे उद्धृत , अलग एक जदा धर्म प्रतिपादन किया है। इस किये जाते हैं:
लिये इनका शासन भी, इस विषयमें, श्रीकुंदक-दिग्देशानर्थदंडानां विरतिस्त्रितयाश्रयम् । कुंदाचार्यके शासनसे विभिन्न है । परंतु उसे गुणव्रतत्रयं सद्भिः सागारयतिषु स्मृतम् ॥ उमास्वातिके शासनके अनुकूल समझना चाहिये। आदौ सामायिकं कर्म प्रोषधोपासनक्रिया ।
३-स्वामी समंतभद्र, अपना शासन, इस सेव्यार्थनियमो दानं शिक्षाव्रतचतुष्टयं ॥ विषयमें, कुंदकंद और उमास्वातिके शासनसे
-यशस्तिलके सोमदेवः। कुछ भिन्नाभिन्नरूपसे स्थापित करते हुए, अपने यहाँ 'सेव्यार्थनियम' से उपभोगपरिभोग- 'रत्नकरंडक' नामके उपासकाध्ययनमें, इन परिमाणका और 'दान' से अतिथिसंविभागका व्रताका प्रतिपादन इस प्रकारसे करते हैं:अर्थ समझना चाहिये।
दिग्वतमनर्थदंडव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । . ख-स्थवीयसी विरतिमभ्युपगतस्य श्रावकस्य व्रत- अनुबृंहणाद्गुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्यार्याः ॥ विशेषो गुणव्रतत्रयं शिक्षाव्रतचतुष्टयं शीलसप्तकमित्यु- देशावकाशिकं वा सामयिक प्रोषधोपवासो वा । च्यते । दिग्विरतिः, देशविरतिः, अनर्थदंडविरतिः, वैय्यावृत्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारिं शिष्टानि ॥ सामायिकं, प्रोषधोपवासः, उपभोगपरिभोगपरिमाणं,
__अर्थात्-दिग्वत, अनर्थदंडवत और भोगोअतिथिसंविभागश्चेति ।
पभोगपरिमाण; इन तीन व्रतोंके द्वारा -चारित्रसारे श्रीचामुंडरायः
गुणोंकी ( अणुव्रतों अथवा समंतभद्र प्रतिपादित म-दिग्देशानर्थदंडेभ्यो विरतिर्या विधीयते
अष्ट मूलगुणोंकी) वृद्धि तथा पुष्टि होनेसे आर्य जिनेश्वरसमाख्यातं त्रिविधं तद्गुणवतं ॥
पुरुष इन्हें गुणव्रत कहते हैं । देशावकाशिक, -सुभाषितरत्नसंदोहे अमितगतिः। सामायिक, प्रोषधोपवास और वय्यावृत्य, ये "देशविरतेर्द्वितीयं गुणव्रतं वर्ण्यते तस्य ॥” . चार शिक्षाव्रत बतलाये गये हैं। "भोगोपभोगसंख्या शिक्षाव्रतमुच्यते तस्य ॥” इससे स्पष्ट है कि गुणवतोंके सम्बंधमें स्वामी
___-उपासकाचारे अमितगतिः। समंतभद्र और कुंदकुंदाचार्यका शासन एक है। घ-दिग्देशानर्थदंडेभ्यो यत्रिधा विनिवर्तनम्। परंतु शिक्षाव्रतोंके सम्बंधमें वह एक नहीं है ।
पोतायते भवाम्भोधौ त्रिविधं तद्द्वणव्रतम् ॥' समंतभद्रने 'सल्लेखना' को शिक्षात्रतोंमें नहीं
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अङ्क ७-८]
जैनाचार्योका शासनभेद।
रक्खा बल्कि उसकी जगह 'देशावकाशिक' ही रखना पसंद किया है । और उसका लक्षण नामके एक दूसरे व्रतकी तजवीज की है और भी दानार्थप्रतिपादक किया है । यथाःउसे शिक्षावतोंमें सबसे पहला स्थान प्रदान किया व्रतमतिथिसंविभागः पात्रविशेषाय विधिविशेषेण । है। रही उमास्वातिके साथ तुलनाकी बात, द्रव्यविशेषवितरणं दातृविशेषस्य फलविशेषाय ॥५-४१ समंतभद्रका शासन उमास्वातिके शासनसे दोनों देशावकाशिक व्रतका वर्णन करते हुए, ही प्रकारके व्रतोंमें कुछ विभिन्न है । उमास्वातिने टीकामें, पं० आशाधरजीने लिखा है कि, शिक्षाजिस देशविरति व्रतको दूसरा गुणवत बात- की प्रधानता और परिमितकाल भावितपनेकी लाया है समंतभद्रने उसे 'देशावकाशिक' वजहसे इस व्रतको शिक्षाक्तत्वकी प्राप्ति है । नामसे पहला शिक्षाक्त प्रतिपादन किया है। यह दिग्वतके समान यावज्जीविक नहीं होता ।
और समंतभद्रने जिस · भोगोपभोगपरिमाण' परंतु तत्त्वार्थसूत्र आदिकमें जो इसे गुणनामके व्रतको गुणवतोंमें तीसरे नम्बर पर रक्खा व्रत माना है सो वहाँ इसका लक्षण दिग्वतको है उसे उमास्वातिने शिक्षाव्रतोंमें तीसरा स्थान
संक्षिप्त करने मात्र विवक्षित मालूम होता है । साथ प्रदान किया है। इसके सिवाय 'अतिथिसंविभाग' ही वहाँ इसे दूसरे गुणवतादिकोंका संक्षेप करनेके .के स्थानमें 'वैय्यावृत्य' को रखकर समंतभद्रने लिये उपलक्षण रूपसे प्रतिपादित समझना उसकी व्यापकताको कछ अधिक बढ़ा दिया चाहिये । अन्यथा, दूसरे व्रतोंके संक्षेपको यादे है। उससे अब केवल दानका ही प्रयोजन नहीं अलग अलग व्रत करार दिया जाता तो व्रतोंकी
'बारह' संख्या में विरोध आता । यथाःरहा बल्कि उसमें संयमी पुरुषोंकी दूसरी प्रकार
'शिक्षाव्रतत्वं चास्य शिक्षाप्रधानत्वात्परिमितकालकी सेवा टहल भी आ जाती है। इसी बातका
भावित्वाचोच्यते । न खल्वेतदिग्व्रतवद्यावज्जीविमपीस्पष्टीकरण करनेके लिये आचार्य महोदयने, घ्यति । यत्तु तत्त्वार्थादौ गुणव्रतत्वमस्य श्रूयते तद्दिव्रतअपने ग्रंथमें, दानार्थप्रतिपादक पद्यसे भिन्न संक्षेपण लक्षणत्वमात्रस्येव विवक्षित्वाल्लक्ष्यते । दिव्रतएक दूसरा पद्य भी दिया है जो इस प्रकार है:- संक्षेपकरणं चात्रा (न्य ) गुणवतादि संक्षपकरणस्याव्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । प्युपलक्षणं द्रष्टव्यं । एषामपि संक्षेपस्यावश्यकर्तव्यत्वावैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥ प्रतिव्रतं च संक्षेपकरणस्य भिन्नत्रतत्वे गुणा: स्युाद
पं० आशाधरजीने अपने सागारधर्मामतमें- शेति संख्याविरोधःस्यात् ॥' इन व्रतोंका कथन प्रायः स्वामी समंतभटके मता- पं० आशाधरजीके इन वाक्यासे यह बात नुसार ही किया है । गुणव्रतोंका कथन प्रारंभ आर भा स्पष्ट हा ,
और भी स्पष्ट हो जाती है कि उमास्वातिका करते हुए, टीकामें, “आहब्रवन्ति स्वामिमतान- शासन, चाहे वह किसी भी विवक्षासे * क्यों न सारिणः' इस वाक्यके द्वारा उन्होंने स्वामी समंत- * पं० आशाधरजीने जिस विवक्षाका उल्लेख किया भद्रके मतकी औरोंसे भिन्नता और अपनी उसके है उसके अनुसार 'देशव्रत' गुणव्रत हो सकता है
और उसका नियम भी यावज्जीवके लिये किया जा साथ अनुकूलताको खुले शब्दोंमें उद्घोषित किया
सकता है । इसी तरह भोगोपभोगपरिमाण यावहै । परंतु शिक्षावतोंका प्रारंभ करते हुए टीकामें
जीविक भी होता है. ऐसा न मानकर यदि उसे ऐसा कोई वाक्य नहीं दिया, जिसका कारण नियतकालिक ही माना जावे तो इस विवक्षासे वह शायद यह मालूम होता है कि उन्होंने समंत- शिक्षावों में भी जा सकता है । विवक्षासे केवल भद्रके 'वैय्यावृत्य' नामक चौथे शिक्षावतके विरोधका परिहार होता है। परंतु शासनभेद और स्थानमें उमस्वातिके 'अतिथिसंविभाग' व्रतको भी अधिकताके साथ दः तथा स्पष्ट हो जाता है।
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जैनहितैषी -
हो, इस विषय में समंतभद्रके शासनसे और उन श्वेताम्बर आचार्यों के शासन से विभिन्न है जिन्होंने ' देशावकाशिक ' को शिक्षावत प्रतिपादन किया है ।
४ - स्वामिकार्तिकेयने, अपने अनुपेक्षाग्रंथ में, देशावकाशिकको चौथा शिक्षावत प्रतिपादन किया है । अर्थात्, शिक्षावतों में उसे पहला दर्जा न देकर अन्तका दर्जा प्रदान किया है । साथ ही, उसके स्वरूप में दिशाओंके परिमाणको संकोचने के साथ साथ इंद्रियोंके विषयोंको अर्थात् भोगोपभोगके परिमाणको भी संकोचनेका विधान किया है । यथा:
पुव्वपमाणकदाणं सव्वदिसणं पुणोवि संवरणं । इंदियविसयाण तहा पुणोवि जो कुणदि संवरणं ॥ वासादिकयपमाणं दिदिणे लोहकामसमणत्थं । सावज्जवजण तस्स चउत्थं वयं होदि ॥
।
इस तरह उनके इस व्रतका क्रम तथा विषय समंतभद्रके क्रम तथा विषयसे कुछ भिन्न है और इस भिन्नताके कारण दूसरे शिक्षाव्रतोंके क्रम में भी भिन्नता आ गई है - उनके नम्बर बदल गये हैं । इसके सिवाय स्वामि कार्तिकेयने वैय्यावृत्य के स्थानमें 'दान' का ही विधान किया है । इन सब विभिन्नताओंके सिवाय अन्य प्रकारसे उनका शासन, इस विषय में, समंतभद्रके शासनसे प्रायः मिलता जुलता हैं । और इस लिये यह कहनेमें कोई संकोच नहीं हो सकता कि स्वामिकार्तिकेयका शासन कुंदकुंद, उमास्वाति, पूज्यपाद, विद्यानंद, सोमदेव, अमितगति और कुछ समंतभद्र के शासन से भी भिन्न है ।
५-श्रीजिनसेनाचार्य, अपने आदिपुराण ग्रंथके १० वें पर्व में, लिखते हैं:
दिग्देशानर्थदंडेभ्यो विरतिः स्याद्गुणव्रतम् । भोगोपभोग संख्यानमप्याहुस्तद्गुणव्रतम् ॥ ६५ ॥ ... दाणं जो देदि सयं णवदाणविहीहिं संजुत्तो । सिक्खावयं च तिदियं तस्स हवे...... ॥
*
*
[भाग १४
समतां प्रोषधविधिं तथैवातिथि संग्रहम् । मरणान्ते च संन्यासं प्राहुः शिक्षा व्रतान्यपि ॥ ६६ ॥ अर्थात् -दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदंडविरति, ( तीन ) गुणवत हैं । भोगोपभोगपरिमाणको भी गुणव्रत कहते हैं । समता ( सामायिक ), प्रोषधविधि, अतिथिसंग्रह ( अतिथिपूजन ) और मरणके संनिकट होने पर संन्यास, इन ( चारों ) को शिक्षावत कहते हैं ।
इससे मालूम होता है कि श्रीजिनसेनाचार्यका मत, इस विषय में, समन्तभद्र के मंतसे बहुत कुछ भिन्न है । उन्होंने देशविरतिको शिक्षावतोंमें न रख कर उमास्वाति तथा पूजापादादिके सदृश उसे गुणवतों में रक्खा है, और " साथ ही संन्यास ( सल्लेखना ) को भी शिक्षाव्रत प्रतिपादन किया है। इसके सिवाय भोगोपभोगपरिमाणको भी जो उन्होंने गुणव्रत सूचित किया है उसे केवल समन्तभद्रादिके मतका उल्लेख मात्र समझना चाहिये । अन्यथा, गुणव्रतोंकी संख्या चार हो जायगी, और यह मत प्रायः सभी से भिन्न ठहरेगा । हाँ, इतना जरूर हैं कि इसमें गुणवतसंबंधी प्रायः सभी मतोंका समावेश हो जायगा । शिक्षाव्रतोंके सम्बंध में आपका मत कुंदकुंदको छोड़कर उमास्वति, पूज्यपाद, विद्यानंद, सोमदेव, अमितगति, समंत - और स्वामिकार्तिकेय आदि प्रायः सभ आचार्योंसे भिन्न पाया जाता है ।
भद्र
२ - श्रीवसुनन्दी आचार्यने, अपने श्रावकाचार में, शिक्षाव्रतोंके १ भोगविरति, २ परिभोगनिवृति, ३ अतिथिसंविभाग ओर ४ सल्लेखना ये चार नाम दिये हैं । यथाः-
'तं भोयविरइ भणियं पढमं सिक्खावयं सुत्ते । ' " तं परिभोयणिवृत्ती विदिय सिक्खावयं जाणे । ' अतिहिस्स संविभागो तिदियं सिक्खावयं मुणेयब्वं ।" सल्लेखणं चत्थं सुत्ते सिखावयं भणियं । '
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अङ्क ७-८]
.
जैनाचार्योंका शासनभेद।
इससे. स्पष्ट है कि वसुनन्दी आचार्यका जिस प्रकार परिधियाँ नगरकी रक्षा करती हैं शासन, इस विषयमें, पहले कहे हुए सभी आचा- उसी प्रकार 'शील' ब्रतोंकी पालना करते हैं, यौँके शासनसे एकदम विभिन्न है । आपने ऐसा श्रीअमृतचन्द्र आचार्यका कहना हैx। भोगपरिभोगपरिमाण नामके व्रतको, जिसे श्वेताम्बराचार्य श्रीसिद्धसेनगणि और यशोभद्रकिसीने गुणव्रत और किसीने शिक्षावत माना जी भी अणुव्रतोंकी दृढताके लिये शीलवतोंका
था, दो टुकड़ोंमें विभाजित करके उन्हें शिक्षा- उपदेश बतलाते हैं+ । अतः अहिंसादिक व्रतोंकी . व्रतोंमें सबसे पहले दो व्रतोंका स्थान प्रदान रक्षा, परिपालना और दृढता संपादन करना ही किया है और भोगविरतिके संबंधमें लिखा है सप्तशीलोंका मुख्य उद्देश्य है। और इस दृष्टिसे कि उसे सूत्र में पहला शिक्षाव्रत बतलाया है। सप्तशीलोंमें वर्णित सामायिक और प्रोषधोपवासमालूम नहीं वह कौनसा सूत्रग्रंथ है, जिसमें को नगरकी परिधि और शस्यकी वृत्ति (धान्यकेवल भोगविरतिको प्रथम शिक्षाव्रत प्रतिपादन की बाड़ ) के समान अणुव्रतोंके परिरक्षक किया है । इसके सिवाय आपने सामायिक और समझना चाहिये । वहाँ पर मुख्यतया रक्षणीय प्रोषधोपवास नामके दो व्रतोंको, जिन्हें उपर्युक्त व्रतोंकी रक्षाके लिये उनका केवल अभ्यास सभी आचार्योंने शिक्षाव्रतोंमें रक्खा है, इन होता है, वे स्वतंत्र व्रत नहीं होते। परंतु अपनी व्रतोंकी पंक्तिमेंसे ही कतई निकाल डाला है। अपनी प्रतिमाओंमें जाकर वे स्वतंत्र व्रत बन शायद आपको यह खयाल हुआ हो कि जब जाते हैं और तब परिधि अथवा वृति (बाड़) 'सामायिक' और 'प्रोषधोपवास' नामकी के समान दूसरोंके केवल रक्षक न रहकर नगर दो प्रतिमाएँ ही अलग हैं तब व्रतिक प्रतिमामें अथवा शस्यकी तरह स्वयं प्रधानतया रक्षणीय इन दोनों व्रतोंके रखनेकी क्या जरूरत है। हो जाते हैं । यही इन व्रतोंकी दोनों अवस्थाओंमें
और इसी लिये आपको वहाँसे इन व्रतोंके निका- परस्पर भेद पाया जाता है। लनेकी जरूरत पड़ी हो अथवा इस निकालनेकी मालम नहीं उक्त वसुनन्दी सैद्धान्तिकने, कोई दूसरी ही वजह हो । कुछ भी हो, यहाँ और श्रीकंदकुंद तथा जिनसेनाचार्यने हम, इस विषयमें, कुछ विशेष विचार उपस्थित भी, सल्लेखनाको शिक्षावतोंमें क्यों रक्खा है, करनेकी जरूरत नहीं समझते । परंतु इतना जब कि शिक्षाव्रत अभ्यासके लिये नियत जरूर कहेंगे कि बारह व्रतोंमें व्रतिक प्रतिमामें- किये गये हैं और सल्लेखनामरणके संनिकट सामायिक और प्रोषधोपवास शीलरूपसे निर्दिष्ट होनेपर एक बार ग्रहण की जाती है, उसका हैं और अपने अपने नामकी प्रतिमाओंमें वे पनः पुनः अनुष्ठान नहीं होता और इसलिये व्रतरूपसे प्रतिपादित हुए हैं* । शीलका लक्षण उसके द्वारा प्रायः कोई अभ्यासविशेष नहीं अकलंकदेव और विद्यानंदने, अपने अपने बनता। दूसरे, प्रतिमाओंका विषय अपने अपने वार्तिकोंमें 'व्रतपरिरक्षण' किया है। पूज्यपाद पूर्वगुणोंके साथ क्रमविवृद्ध बतलाया गया है। भी 'व्रतपरिरक्षणार्थ शीलं,' ऐसा लिखते हैं। -
- - परिचय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति • यथाः-यत्प्राक सामायिकं शीलं तद्रतं प्रतिभावतः। शीलानि ।
-पुरुषार्थसिद्धथुपायः। यथा तथा प्रोषधोपवासोऽपीत्यत्र युक्तिवाक् ॥ + प्रतिपन्नस्याणुव्रतस्यागारिणस्तेषामेवाणुव्रतानां दा
-आशाधरः। व्यापादनाय शीलोपदेशः। -तत्त्वार्थसूत्रटीका
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[भाग १४
अर्थात्, उत्तर-उत्तरकी प्रतिमाओंमें, अपने अपने नहीं दिया। और लक्षण अथका स्वरूप जो गुणोंके साथ, पूर्व-पूर्वकी प्रतिमाओंके सारे गुण दिया है वह इस प्रकार है:विद्यमान होने चाहिये। बारह व्रतोंमें सल्लेख- अयदंडपासविक्कयकूडतुलामाणकूरसत्ताणं । नाको स्थान देनेसे 'वतिक' नामकी दूसरी जं संगहो ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तिदियं ॥ प्रतिमामें उसकी पूर्ति आवश्यक हो जाती है। इसमें लोहेके दंड-पाशको न बेचने और बिना उस गुणकी पूर्तिके अगली प्रतिमाओंमें
झूठी तराजू , झूठे बाट तथा क्रूर जंतुओंके
ही आरोहण नहीं हो सकता और सल्लेखनाकी संग्रह न करनेको तीसरा गुणव्रत बतलाया गया पर्तिपर शरीरकी ही समाप्ति हो जाती हैं, फिर है। अनर्थदंडका यह लक्षण अथवा स्वरूप समंतअगली प्रतिमाओंका अनुष्ठान कैसे बन सकता भद्रादिकके पंचभेदात्मक अनर्थदंडके लक्षण तथा है। अतः सल्लेखनाको शिक्षाव्रत मानकर दूसरी स्वरूपसे बिलकुल विलक्षण मालूम होता है। प्रतिमामें रखनेसे तीसरी सामायिकादि प्रतिमा- इसी तरह देशविरतिका लक्षण भी आपका औओंका अनुष्ठान अशक्य हो जाता है और वे रोंसे विभिन्न पाया जाता है । आपने उस देशमें केवल कथनमात्र रह जाती हैं, यह बड़ा दोष गमनके त्यागको देशविरति बतलाया है जहाँ आता है। इस पर विद्वानोंको विचार करना व्रतभंगका कोई कारण मोजूद हो * । और इस चाहिये। इसी लिये प्रसंग पाकर यहाँ पर यह लिये जहाँ व्रतभंगका कोई कारण नहीं उन देशोंमें विकल्प उठाया गया है। संभव है कि ऐसे ही गमनका त्याग आपके उक्त व्रतकी सीमासे बाहर किन्हीं कारणोंसे समंतभद्र, उमास्वाति, सोमदेव, समझना चाहिये । दूसरे आचार्योंके मतानुसार अमितगति और स्वामिकार्तिकेयादि आचार्याने देशावकाशिक व्रतके लिये ऐसा कोई नियम नहीं सल्लेखनाको शिक्षावतोंमें स्थान न दिया हो। है। वे कुछ कालके लिये दिग्वतद्वारा ग्रहण किये अथवा वसनंदी आदिकका सल्लेखनाको शिक्षावत हुए क्षेत्रके एक खास देशमें स्थितिका संकल्प करार देने में कोई दूसरा ही हेतु हो । उन्हें प्रति- करके अन्य संपूर्ण देशों-भागोंके त्यागका विधान माओंके विषयका अपने पूर्व गुणोंके साथ विवृद्ध करते हैं चाहे उनमें व्रतभंगक कोई कारण हो होना ही इष्ट न हो-कुछ भी हो उसके मालूम या न हो । जैसा कि देशावकाशिक व्रतीके होनेकी जरूरत है । और उससे आचार्याका शास- निम्न लक्षणसे प्रकट है।नभेद और भी अधिकताके साथ व्यक्त होगा। ..
स्थास्यामीदमिदं यावदियत्कालमिहास्पदे । गुणवतोंके सम्बंधमें भी वसुनन्दीका शासन इति संकल्प्य संतुष्टस्तिष्टन्देशावकाशिकी ॥ समंतभद्रादिके शासनसे विभिन्न है। उन्होंने
-इत्याशाधरः । दिग्विरति, देशविरति और संभवतः अनर्थदंड- यहाँ पर हमें इन व्रतोंके लक्षणादिसंबंधी विशेष विरतिको गुणव्रत करार दिया है। अनर्थदंडके मतभेदको दिखलाना इष्ट नहीं है । वह वसुसाथमें 'संभवतः' शब्द इस वजहसे लगाया नन्दीसे पहले उल्लेख किये हुए आचार्योंमें भी गया है कि उन्होंने अपने ग्रंथम उसका नाम थोडा बहत, पाया जाता है। और इन व्रतोंके * श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु। अतीचारोमि भी अनेक आचार्योंके परस्पर मतस्वगुणाः पूर्वगुणैः सह संतिष्टन्ते क्रमविवृद्धाः ॥
• वयभंगकारणं होइ जम्मि देसाम्म तत्थ णियमेण । --समंतभदः। कीरइ गमणणियत्ती तं जाण गुणव्वयं विदियं ॥२१४॥
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अङ्क ७-८ ]
भेद है । इस संपूर्ण मतभेदको दिखलाने से लेख बहुत बढ़ जायगा । अतः लक्षण, स्वरूप तथा अतीचारसंबंधी विशेष मतभेदको फिर स्वतंत्र शीर्षकों द्वारा दिखलानेका यत्न किया जायगा । यहाँ, इस समय, सिर्फ इतना ही समझना चाहिये कि इन दोनों प्रकारके व्रतोंके भेदादिक प्रतिपादन में आचार्योंके परस्पर बहुत कुछ मतभेद है । इन व्रतोंका विषयक्रम ( कोर्स course ) कक्षाओंके पठन की तरह समय समय पर बदलता रहा है । और इस लिये यह कहना बहुत कठिन है कि महावीर भगवानने इन विभिन्न शासनों में से कौनसे शासनका प्रति पादन किया था । संभव है कि उनका शासन इन सबोंसे कुछ विभिन्न रहा हो । परंतु इतना जरूर कह सकते हैं कि इन विभिन्न शासनोंमें परस्पर सिद्धान्तभेद नहीं है— जैनसिद्धान्तोंसे कोई विरोध नहीं आता - और न इनके प्रतिपादन में जैनाचार्योंका परस्पर कोई उद्देश्यभेद पाया जाता है | सबका उद्देश्य सावद्य कर्मोंके त्यागकी परिणतिको क्रमशः बढ़ाने- उसे अणुव्रतोंसे महावतों की ओर ले जाने और लोभादिकका निग्रह कराकर संतोष के साथ शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करानेका मालूम होता है । हाँ, दृष्टिभेद, अपेक्षाभेद, विषयभेद, क्रमभेद, प्रतिपादकोंकी • समय और प्रतिपाद्यों की स्थिति आदिका भेद अवश्य है, जिसके कारण उक्त शासनोंको विभिन्न जरूर मानना पड़ेगा । और इस लिये यह कभी नहीं कहा जा सकता कि महावीर भगवान ही इन सब विभिन्न शासनोंका विधान किया था उनकी वाणीमें ही ये सब मत अथवा इनके प्रतिपादक शास्त्र इसी रूपसे प्रकट हुए थे । ऐसा मानना और समझना नितान्त भूलसे परिपूर्ण तथा वस्तुस्थितिके विरुद्ध होगा । अतः श्री कुंदकुंदाचार्यने गुणव्रतों के संबंध में, 'एव शब्द लगाकर - 'इयमेव गुणव्वया तिण्णि" ऐसा
,
जैनाचार्योका शासनभेद ।
२०३
लिखकर - जो यह नियम दिया है कि, दिशाविदिशाओंका परिमाण, : अनर्थदंडका त्याग और भोगोपभोगका परिमाण, ये ही तीन गुणवत. हैं दूसरे नहीं, इसे उस समयका, उनके सम्प्रदायका अथवा खास उनके शासनका नियम समझना चाहिये । और श्रीअमितगतिने 'जिनेश्वरसमाख्यातं त्रिविधं तद्गुणत्रतं' इस वाक्य के द्वारा दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदंडविरतिको जो जिनेंद्रदेवका कहा हुआ गुणव्रत बतलाया है उसका आशय प्राय: इतना ही लेना चाहिये कि अमितगति इन व्रतोंको जिनेंद्रदेवका - महावीर भगवानका - कहा हुआ समझते थे अथवा अपने शिष्योंको इस ढंगसे समझाना उन्हें इष्ट था । इसके सिवाय यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि, महावीर भगवानने ही इन दोनों प्रकारके गुणव्रतोंका प्रतिपादन किया था। इसी तरह अन्यत्र भी जानना । वास्तवमें हर एक आचार्य उसी मतका प्रतिपादन करता है जो उसे इष्ट होता है और जिसे वह अपनी समझ के अनुसार सबसे अच्छा तथा उपयोगी समझता है और इस लिये इन विभिन्न शासनों को आचार्योंका अपना अपना मत समझना चाहिये । हमारी राय में ये सब शासन भी, जैसा कि हमने अपने पहले लेखोंमें प्रकट किया है, पापरोगकी शांति के नुसखे ( Prescriptions ) हैं - ओषधिकल्प हैं- जिन्हें आचार्योंने अपने अपने देशों तथा समयोंके शिष्योंकी प्रकृति और योग्यता आदिके अनुसार तय्यार किया था । और इस लिये सर्व देशों, सर्व समयों और सर्व प्रकारकी प्रकृतिके व्यक्तियोंके लिये अमुक एक ही नुसखा उपयोगी होगा, ऐसा हठ करने की जरूरत नहीं है। जिस समय और जिस प्रकारकी प्रकृति आदिके व्यक्तियोंके लिये जैसे ओषधिकल्पोंकी जरूरत होती है, बुद्धिमान वैद्य, उस समय और उस प्रकारकी प्रकृति आदिके व्यक्तियोंके
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जैनहितैषी
[भाग १४
लिये वैसे ही ओषधिकल्पोंका प्रयोग किया उनका व्यावहारिक रूप समझना चाहिये, और करते हैं। अनेक नये नये ओषधिकल्प गढ़े जाते इस दृष्टिसे उसे महावीर भगवानका शासन भी हैं, पुरानोंमें फेरफार किया जाता है और ऐसा कह सकते हैं। परंतु भिन्न शासनोंकी हालतमें करनेमें कुछ भी आपत्ति नहीं होती, 'यदि वे महावीर भगवानने यही कहा, ऐसा ही सब रोगशांतिके विरुद्ध न हों। इसी तरह पर कहा, इसी क्रमसे कहा, इत्यादिक मानना देशकालानुसार किये हुए आचार्योंके उपर्युक्त मिथ्या होगा और उसे प्रायः मिथ्यादर्शन भिन्न शासनोंमें भी प्रायः कोई आपत्ति नहीं की समझना चाहिये । अतः उससे बचकर यथार्थ जा सकती। क्योंकि वे सब जैनसिद्धान्तोंके वस्तुस्थितिको जानने और उसपर ध्यान रखनेअविरुद्ध हैं। हाँ, आपेक्षिक दृष्टिसे उन्हें प्रशस्त- की कोशिश करनी चाहिये । इसीमें वास्तविक अप्रशस्त, सुगम-दुर्गम, अल्पविषयक-बहु- हित संनिहित है। विषयक, अल्पफलसाधक-बहुफलसाधक इत्यादि यहाँ, श्वेताम्बर आचार्योंकी दृष्टिसे, हम इस जरूर कहा जा सकता है, और इस प्रकारका समय सिर्फ इतना और बतला. देना चाहते हैं, भेद आचार्योंकी योग्यता और उनके तत्तत्का- कि श्वेताम्बरसम्प्रदायमें आमतौरपर १ दिग्वत, लीन विचारों पर निर्भर है। अस्तु, इसी सिद्धा- २ उपभोगपरिभोगपरिमाण, ३ अनर्थदंडन्ताविरोधकी दृष्टिसे यदि आज कोई महात्मा विरति, इन तीनको गुणवत और १ सामायिक, वर्तमान देशकालकी परिस्थितियोंको ध्यानमें २ देशावकाशिक, ३ प्रोषधोपवास, ४ अतिथि रखकर उपर्युक्त शीलवतोंमें भी कुछ फेरफार संविभाग, इन चारको शिक्षावत माना है । करना चाहे और उदाहरणके तौरपर १ क्षेत्र- उनका 'श्रावक प्रज्ञप्ति' नामक ग्रंथ भी इन्हींका (दिग्देश) परिमाण, २ अनर्थदंडविरति, विधान करता है और, योगशास्त्रमें, श्रीहेमचंद्रा३ भोगोपभोगपरिमाण, ४ आवश्यकतानु- चार्यने भी इन्हीं व्रतोंका, इसी क्रमसे, प्रतित्पादन,५अन्तःकरणानुवर्तन, ६सामायिक पादन किया है। तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार और ७ निष्कामसेवा (अनपेक्षितोपकार-) श्रीसिद्धसेनगणि और यशोभद्रजी, अपनी नामके सप्तशीलवत, अथवा गुणव्रत और अपनी टीकाओंमें, लिखते हैं:शिक्षाव्रत, स्थापित करे तो वह खुशीसे ऐसा 'गुणव्रतानि त्रीणि दिग्भोगपरिभोगपरिमाणानर्थदंडकर सकता है । उसमें कोई आपत्ति किये विरतिसंज्ञानि। शिक्षापदव्रतानि सामायिकदेशावकाजानकी जरूरत नहीं है और न यह कहा जा शिकप्रोषधोपवासातिथिसंविभागाख्यानि चत्वारि ।' सकता है कि उसका ऐसा विधान जिनेंद्रदेवकी *ये सब व्रत प्रायः वही हैं जो ऊपर स्वामी समंतआज्ञाके विरुद्ध है अथवा महावीर भगवानके भद्राचार्यके शासनमें दिखलाये गये हैं और इस शासनसे बाहर है; क्योंकि उक्त प्रकारका विधान लिये श्वेताम्बर आचार्यों का शासन, इस विषयमें, जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध नहीं है। और जो प्रायः समंतभद्रके शासनसे मिलता जुलता है। सिर्फ विधान जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध नहीं होता वह
दो एक व्रतोंमें, क्रमभेद अवश्य है । समंतभद्रने
अनर्थदंडविरतिको दूसरे नम्बर पर रक्खा है और पर महावीर भगवानके अनुकूल है । उस यहाँ उसे तीसरा स्थान प्रदान किया गया है । इसा प्रकारान्तरसे जैनसिद्धान्तोंकी व्याख्या अथवा तरह शिक्षाव्रतोंमें देशावकाशिकको यहाँ पहले नम्बर
१ जरूरतोंको बढ़ने न देना, प्रत्युत घटाना । . पर न रख कर दूसरे नम्बर पर रक्खा गया है। इसके २ अन्तःकरणकी आवाजके विरुद्ध न चलना। सिवाय चौथे शिक्षाव्रतके नाममें भी कुछ परिवर्तन है।
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अङ्क ७-८] जैनाचार्योंका शासनभेद।
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maaaaaaaaaaa इससे भी उक्त व्रतोंका समर्थन होता है। कुछ भी हो, अभी तक हम इस विषयमें यथार्थ बल्कि इन दोनों टीकाकारोंने जिस प्रकारसे निर्णय नहीं कर सके । समयाभाव और ग्रंथोंउमास्वातिपर आर्षक्रमोल्लंघनका आरोए लगाकर की अप्राप्तिके कारण यह भी मालूम नहीं कर उसका समाधान किया है, और जिसका ऊपर सके कि उक्त व्रतोंके नामादिक संबंधमें किसी उल्लेख किया गया है, उससे ऐसा मालूम होता विशेष मतभेदको रखनेवाले भी कोई आचार्य, है कि श्वेताम्बरसम्प्रदायके आगम ग्रंथोंमें भी, श्वेताम्बरसंप्रदायमें, हुए हैं या कि नहीं । मालूम जिन्हें वे गणधर सुधर्मास्वामी आदिके बनाये होने पर प्रकट किया जायगा । यदि कोई श्वेताहुए बतलाते हैं, इन्हीं सब व्रतोंका इसी क्रमसे म्बर विद्वान हमें, इस विषयमें, किसी विशेष विधान किया गया है। परंतु उनमें गुणवत बातसे सूचित करनेकी कृपा करेंगे तो हम
और शिक्षाव्रतका विभाग भी किया गया है उनके इस कृत्यके लिये बहुत आभारी होंगे। या कि नहीं, यह बात अभी संदिग्ध है। क्योंकि सरसावा । ता० ११ जून सन १९२० । 'उपासकदशा' नामके आगम ग्रंथमें, जो द्वादशांगवाणीका सातवाँ अंग कहलाता है, ऐसा कोई विभाग नहीं है । उसमें इन व्रतोंको,
__“ समाचारपत्र एक संस्था है जिसे निरन्तर उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्र, तत्वार्थाधिगमभाष्य
उत्कर्ष और संशोधनके लिये संग्राम करते रहना और सूत्रकी उक्त दोनों टीकाओंकी तरह, चाहिये, जिसे चाहिए कि कभी भी अन्याय वा शीलव्रत भी नहीं लिखा, बल्कि सात शिक्षा अनीतिको सहन न करे, सदा सब दलोंके व्रत बतलाया है । यथाः
(ऐसे) बेअसूले अगुओंसे लड़ता रहे (जो “समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिएपं चाणुव्वइयं
जनताके अंधविश्वासों और कमजोरियोंसे लाभ सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजाहि।" उठाते हों), स्वयं कभी किसी दल विशेषका ___ इसके सिवाय अतिथिसंविभागको ‘यथा
होकर न रहे, अनुचित अधिकार पाई हुई संविभाग' व्रत प्रतिपादन किया है। इससे
श्रेणियों और जनताके लूटनेवालोंका सदा विरोध ऐसा मालूम होता है कि श्वेताम्बर संप्रदायमें
" करता रहे, कभी भी गरीबोंकी ओर सहानुभूपहले इन व्रतोंको सात शिक्षावत माना जाता
तिमें कमी न करे, हमेशा सार्वजनिक कल्या
" णकी बातोंमें अनन्यभावसे लिप्त रहे, केवल था, बादमें इनके गुणवत और शिक्षाव्रत ऐसे ।
खबरें छाप देनेसे ही कभी भी संतुष्ट न रहे, वरन् दो विभाग किये गये हैं । साथ ही, इन्हें 'शील' . संज्ञा भी दी गई है। इसी तरह यथासंविभागके.सदा जोकि साथ स्वाधीन रहे और कभी भी स्थानमें बादको अतिथिसंविभागका परिवर्तन ।
किसी दुष्कर्म पर हमला करनेसे न डरे, चाहे किया गया है । संभव है कि इस बादके संपूर्ण
वह दुष्कर्म धनाढ्य और अधिकारप्राप्त लुटेपरिवर्तनको कुछ आचार्योंने स्वीकार किया हो और
- रोंकी ओरसे हो और चाहे निर्धन लुटेरोंकी
ओरसे । " * . कुछने स्वीकार न किया हो । और यह भी संभव
-दि वर्ल्ड । है कि दूसरे आगमग्रंथों में पहलेहीसे गुणव्रत और * ये वाक्य दैनिक ‘भविष्य' के शुरूमें श्रीयुत शिक्षावतके व्यपदेशको लिये हुए इन व्रतोंका जोजफ पुलिटजर द्वारा संपादित ‘दि वर्ल्ड' नामक शीलव्रतरूपसे विधान हो और चौथे शिक्षा- अमरीकन पत्रके प्रथम अंकके अग्रलेखसे उदधृत किये वतका नाम अतिथिसंविभाग ही दिया हो। गये हैं और वहींसे यहाँपर लिये गये हैं। -संपादक ।
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२०६ जैनहितैषी
[भाग १४ कलकत्ता जैनसभाकी आज्ञा! इस प्रस्तावमें जिन दो पत्रोंको अजैनपत्र
करार दिया गया है उन्हें हम बराबर पढ़ते
आये हैं । ये दोनों पत्र जैनसमाजसे सम्बंध संपादकीय विचार।
रखते हैं, जैनियोंके हिताहितकी चिन्ता करते हैं, हालमें दिगम्बरजैनसभा कलकत्ताने, ब्रह्म- जैनसमाज ही इनका ध्येय तथा आराध्य है, चारी शीतलप्रसादजीके सभापतित्वमें, एक और दूसरे समाजोंसे इनका प्रायः कोई सम्बंध प्रस्ताव पास किया है और उसके द्वारा संपूर्ण विशेष नहीं है । ऐसी हालतमें इन्हें जैनपत्र न जैनियोंके नाम यह आज्ञा जारी की है कि वे मानकर अजैन कहना, यह बात हमें अभी सुन'सत्योदय ' और 'जातिप्रबोधक' नामके दो नेको मिली है । समझमें नहीं आता कलकत्ता पत्रोंको ‘जैनपत्र ' न समझें, न वैसा समझकर जैनसभाने जैनपत्रका क्या लक्षण तजवीज किया खरीदें और न उन्हें पढ़ें । सभाकी तरफत है-किसको जैनपत्र माना है । ' जैन' शब्दके प्रस्तावकी एक नकल, हितैषीमें प्रकाशित होनेके साथ न होनेसे किसी पत्रका अजैन होना तो लिये; हमारे पास भी आई है । उसे पढ़कर सभाको इष्ट नहीं हो सकता; क्योंकि ऐसी हालहमारे हृदयमें जिन जिन विचारोंका उदय हुआ तमें सत्यवादी, पद्मावतीपुरवाल आदि और है उनके साथ हम उक्त प्रस्तावको नीचे प्रका- भी दूसरे अनेक ऐसे पत्रोंको अजैन कहना होगा, शित करते हैं । वह प्रस्ताव इस प्रकार है:- जिनके साथ 'जैन शब्द' लगा हुआ नहीं है। ___ "कलकत्ता दिगम्बरजैनसभा प्रस्ताव करती इसी तरह सभाकी दृष्टि में यह भी इष्ट नहीं हो है कि सत्योदय इटावा व जातिप्रबोधक झांसी सकता कि जो पत्र जैनव्यक्तियों द्वारा संपादित पत्रोंके लेखोंसे पर ('यह' या 'प्र' १) होते हैं वे ही जैनपत्र हैं; क्योंकि अजैन व्यक्तियोंस्पष्ट झलकता है कि उसके लेख जैनधर्मके ,
द्वारा भी जैनपत्र संपा विरुद्ध तथा जैनधर्मके गौरवको अयोग्य
- इसके सिवाय जिन दो पत्रोंको उसने अजैन करार वाग्जालद्वारा घटानेका उद्योग करनेवाले निकलते हैं जिससे ये पत्र कभी जैनपत्र नहीं माने
दिया है वे दोनों ही जैनव्यक्तियों द्वारा संपादित जा सकते अतएव कोई भी जैनी भाई उनको होते हैं-दोनोंके एडीटर जैन हैं-एकके वर्तमान जैनपत्र समझकर न खरीदें और न पढें इस एडीटर तो खास पं० गोपालदासजीके शिष्योंमेंप्रस्तावकी नकल तमाम जैनपत्रों में तथा पंचाय- से हैं और वे बहुत दिनोंतक उक्त पंडितजीके तीमें भेज दी जाय।
सत्संगमें रहे हैं । इन दोनों संपादकोंमेंसे हालमें प० पं0 जयदेवजी
किसीने जैनधर्मका परित्याग भी नहीं किया है
और न जैनजातिने ही उन्हें अपनेसे पृथक्स० पं० कस्तूरचन्दजी
किया है, जिससे जैन न रहनेके कारण उनके पं० बल्देवदासजी
पत्रोंको अजैन समझ लिया जाता । तब क्या . अ० पं० भूरामलजी पं० बाबूलालजी वैद्य
* दिगम्बरजैनमहासभाका मुखपत्र 'जनगजट'
एक बार अजैन व्यक्ति द्वारा संपादित हुआ था और सभापति ब्र० शीतलप्रसादजी धर्माभ्यदय' नामका जैनपत्र एक अजैन व्यक्ति ( प्रस्ताव सर्वसम्मतिसे पास ) २१-४-२०” द्वारा संपादित होता है ।
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अङ्क ७-८]
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कलकत्ता जैनसभाकी आज्ञा !
२०७
उक्त सभा निम्न लक्षणों से किसी एक लक्षणसे होते हैं क्योंकि, जैसा कि हमने ऊपर बयान लक्षित पत्रको जैनपत्र समझती है ?- किया है, ये दोनों ही पत्र जैनसमाजसे खास
१-जो केवल जैनधर्मसे सम्बंध रखता हो सम्बंध रखते हैं, उसीको लक्ष्य करके निकाले और एक मात्र उसके सिद्धान्तोंका ही प्रति- जाते हैं, जैनसमाज ही इनका ध्येय तथा पादक हो।
आराध्य है और ये बराबर उसके हित, अहित ___२-जो जैनधर्मके मूल सिद्धान्तोंसे अविरुद्ध
तथा उत्थानकी चिन्ता किया करते हैं । यह हो-उनका विरोध न करता हो।
दूसरी बात है कि एक व्यक्ति जिसे हित समझता
है दूसरा उसे अहित मानता हो, अथवा हित३-जिसका खास समाजसे सम्बंध हो और
साधनके उपायोंमें दोनोंके परस्पर मतभेद हो। जो प्रायः उसीके हित, अहित तथा उत्थानकी
क्योंकि ऐसा हरएक शख्स अपने अपने बुद्धिचिन्तामें निमग्न रहता हो।
वैभवके अनुसार ही समाजकी हितचिन्तना और पहले लक्षणानुसार इस समय समाजमें हितसाधनाके उपायोंकी योजना किया करता है। कोई भी पत्र विद्यमान नहीं है । अर्थात् इस चिन्तना और योजनामें भूलका होना भा ऐसा कोई भी पत्र मौजूद नहीं है जो केवल संभव है, जिसका सुधार हो सकता है । परंतु जैनधर्मके सिद्धान्तोंका ही प्रतिपादन या विवे
इतनेपरसे ही बिना किसी कलुषितहृदयता अथवा चन करनेवाला हो, और सामाजिक आदि
शत्रुताका स्पष्ट प्रमाण मिले-कोई व्यक्ति समादूसरे विषयोंसे जिसका कुछ भी सम्बंध न हो। जहितैषियोंकी पंक्तिसे बाहर नहीं हो जाता। ऐसा लक्षण करने पर ‘जैनमित्र' आदि समा- फिर नहीं मालम सभाने उक्त दोनों पत्रोंको जके उन सभी पत्रोंको अजैन कहना होगा किस आधार पर अजैन करार दिया है। हा, जिनमें आधिकतर सामाजिक आदि विषयोंका
प्रस्तावसे इतना जरूर मालम होता है कि सभा ही प्रसंग रहता है और जो खालिस जैनसिद्धा
इन पत्रोंके लेखोंको जैनधर्मके विरुद्ध और न्तोंके प्रतिपादक नहीं हैं।
जैनधर्मके गौरवको घटानेका उद्योग करनेवाले दूसरा लक्षण मानने पर देश विदेशके उन समझती है। नहीं मालूम सभाने जैनधर्म और सभी राष्ट्रीय ( पोलीटिकल ), वैज्ञानिक, उसकी विरुद्धताका क्या आशय समझा है। न्यापारिक और कलाकौशलादि संबंधी पत्रोंको क्या वह, जैनधर्मके मूल सिद्धान्तोंपर आघात न भी जैनपत्र कहना होगा, जिनका किसी भी करते हुए, प्रचलित रीति-रिवाजोंके विरोधकोधर्मसे कुछ सम्बंध नहीं है, और इस लिये जो उनमें देशकालानुसार कुछ परिवर्तन करनेके जैनधर्मके सिद्धान्तोंका कुछ भी विरोध नहीं परामर्शको-भी जैनधर्मका विरोध समझती हैं ? करते । परंतु जैनसमाजसे भी इन पत्रोंका कोई अथवा अमक सिद्धान्त जैनधर्मका सिद्धान्त हैं खास सम्बंध नहीं, और न वे खास जैन समा- या कि नहीं-हो भी सकता है या कि नहीं, जको लक्ष्य करके निकाले जाते हैं । इस लिये इस प्रकारके विवेचनको भी धर्मविरुद्धतामें उन्हें कोई जैनपत्र नहीं कहता।
परिगणित करती है ? यदि ऐसा है तो समझना तीसरा लक्षण स्वीकार करने पर 'सत्योदय' चाहिये कि सभा बड़ी भारी भूल कर रही है । और 'जातिप्रबोधक' उसकी सीमासे बाहर वह अंधश्रद्धा-अंधविश्वासका एकच्छत्र राज्य नहीं रहते-वे बराबर जैनपत्र कहलानेके योग्य चाहती है, अविवेकको आश्रय देने-पुष्टिप्रदान
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जैनहितैषी
[भाग १४
करनेका यत्न करती है और परीक्षाप्रधानताका धविरुद्धताका कलंक लगाया जा सके । रही गला घोंटनेके लिये तय्यार है । उसे अभीतक जैनधर्मका गौरव घटानेके उद्योगकी बात, सो किसी कविका यह वाक्य मालम नहीं है- जहाँ तक हमने इन पत्रोंको देखा है इनमें बराजिनमतमहल मनोज्ञ अति कलियुगछादित पंथ । बर जैनधर्मकी प्रशंसाके गीत गाये जाते हैं। समझबूझके परखियो चर्चा निर्णय-ग्रंथ ॥ .. जो शख्स खुले दिलसे दूसरेका यशोगान करता
अनगारधर्मामृतकी टीकामें, पं० आशाधरजी हो उसके सम्बंधमें यह कभी खयाल नहीं किया द्वारा उद्धृत किसी विद्वानके निम्न वाक्यकी भी जा सकता कि वह जान बूझकर उसके गौरवको उसे खबर नहीं है:
घटानेका कोई काम कर रहा है । हाँ, यह हो पंडितैम॒ष्टचारित्रैबठरैश्च तपोधनैः।
सकता है कि गौरवको समझनेमें उसकी समझमें - शासनं जिनचंद्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् * ॥ कछ फर्क हो-वह किसी अपमानकी बातको
शायद वह जैनशास्त्रोंके परस्परविरुद्ध भी गौरव समझता हो-परंतु इससे उसपर यह कथनोंको भी सोलह आना महावीर भगवान• इलजाम नहीं लगाया जा सकता कि वह जान द्वारा प्रतिपादित समझती है और इसी लिये बूझकर गौरवको घटानेका उद्योग करनेवाला है। परीक्षा तथा विवेकका दर्वाजा बंद करना चा- डिपुटी कालेरायके इजलासमें एक देहातीका हती है । अस्तु; यह उसकी समझ उसके साथ मुकदमा था । डिपटी साहबने पूरा न्याय किया है; कोई भी सहृदय विद्वान् और विचारवान् और वह देहाती जीत गया। इस पर देहातीने मनुष्य उसकी इस समझका साथी नहीं प्रसन्न होकर भरे इजलासमें दोनों बाँह उठाकर हो सकता।
डिपटी साहबका गुणानुवाद गाते हुए यह भी . और यदि उक्त सभा वैसा नहीं समझती और कहा कि " तेरा नाम किस बड़चोदने कालेन परिगणित करती है तो फिर हम नहीं समझते राय धरा तौं तो मेरा धोलेराय है।" इस वाक्यकि वह कैसे इन पत्रोंके लेखोंको सर्वथा जैन- को सुनकर डिपटी साहब कुछ मुसकराहटके धर्मके विरुद्ध कहनेका साहस करती है ! इन साथ चुप हो गये, उन्हें जरा भी क्षोभ नहीं पत्रों में प्रायः ऐसे ही तो लेख रहा करते हैं जो आया और वे यही खयाल करते रहे कि यह प्रचलित रीति-रिवाजोंके विरोध-उनमें देश- गँवार है, इसे इस बातकी तमीज (विवेक ) कालानुसार परिवर्तनसे सम्बंध रखते हैं, प्राचीन नहीं कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ उससे डिपटी रीति-रिवाजोंपर टीका-टिप्पण किया करते हैं साहबके पितादिकको गाली भी दे रहा हूँ। क्योंअथवा इस प्रकारके विचार पबलिकके सामने कि वे जान रहे थे कि उसका आशय बुरा नहीं रक्खा करते हैं कि अमुक सिद्धान्त जैनसिद्धा- है-वह भक्तिसे परिपूर्ण है-इस लिये उन्होंने न्त है या कि नहीं और हो भी सकता है या उक्त वाक्यसे अपना कुछ भी अपमान नहीं कि नहीं। 'जातिप्रबोधक' नामका पत्र तो समझा और न दूसरोंने ही उससे डिपटी साहखास कर सामाजिक विषयोंसे ही सम्बंध रखता बके गौरवमें कुछ खलल ( वाधा ) आते देखा, है । उसमें जैनधर्मके सिद्धान्तोंका ऊहापोह बल्कि सबको उस देहातीके गँवारपन पर ही करनेवाले ऐसे कोई लेख निकले भी नहीं जिनपर हँसी आई। __ * जिनेंद्र भगवानके निर्मल शासनको भ्रष्टचरित्र शीतकालमें एक मुनि महाराज रात्रिके पंडितों और धूर्त मुनियोंने मलीन कर दिया है ! समय जंगलमें नग्न बैठे हुए ध्यान लगा रहे थे।
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अङ्क ७-८]
कलकत्ता जैनसभाकी आज्ञा !
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एक गँवार ग्वाला वहाँ आया। उसके हृद- यह साबित हो कि ये जान बूझकर गौरवको यमें मुनिको इस प्रकारसे जाड़े अकड़ते देख- गौरव और अगौरवको अगौरव समझते हुए भी कर बहुत दया उत्पन्न हुई और उसने अपना अमुक द्वेषभावसे जैनधर्मके गौरवको घटानेका कम्बल उन्हें ओढ़ा दिया । साथ ही, जंग- उद्योग कर रहे हैं । यदि सभाके पास ऐसा कोई लसे कुछ लकड़ियाँ वगैरह इकट्ठा करके उसने प्रमाण मौजूद नहीं है बल्कि वह सिर्फ इतना उनके पास आग भी जला दी । मुनिराजने ही जानती है कि जिसे मैं गौरव, गौरव घटाना ग्वालेके इस कृत्यको उपसर्ग समझा और वे या गौरव घटानेका उद्योग समझती हूँ दूसरे भी सवेरे तक विना कुछ हले चले उसी तरह बैठे उसको वैसा ही समझते होंगे, तो यह उसकी रहे । प्रातःकाल जब कुछ श्रावक वहाँ पर महामूर्खता और कोरी अनुभवशून्यता है । आये और उन्होंने कम्बलादिकको दूर किया हम पूछते हैं, बहुतसे जैनी भाई देवोंके तब मुनि महाराजने उपसर्ग टला समझ कर आगमन, आकाशमें गमन और चंवरछत्रादि अपना ध्यान खोला और वे दूसरे कामों में लगे। विभूतिको जिनेन्द्र भगवानके गौरवकी उनके शास्त्रोंमें बतलाया गया है कि यद्यपि मनि- अतिशय, चमत्कारकी चीज समझते हैं । परंतु राजने ग्वालेके इस कृत्यको उपसर्ग समझा श्रीसमन्तभद्राचार्य महावीर भगवानको लक्ष्य
और वह उनकी चर्यानसार था भी उनके करके कहते हैं कि इन बातोंसे मेरे हृदयमें लिये उपसर्ग, तो भी ग्वालेका भाव उपसर्ग आपका कोई गौरव नहीं है-मैं इनके आधार करनेका नहीं था, वह उनके शीतोपसर्गको पर आपको महान्-पूज्य-नहीं मानता, ये बातें दूर करके उन्हें आराम ही पहुँचाना चाहता था।
तो मायावियों-इंद्रजालियोंमें भी पाई जाती उसे यह खबर नहीं थी कि ऐसे कामोंसे.
हैं* । क्या सभा स्वामी समंतभद्रके इन उद्गाभी दिगम्बर मुनियोंको उपसर्ग हुआ करता
रोको जैनधर्म अथवा महावीर भगवानका है । और इस लिये उसके इस कृत्यसे
" गौरव घटानेवाले अथवा घटानेका उद्योग करनेपुण्यका ही बंध हुआ पापका नहीं । लोगोंने
वाले समझती है ? यदि नहीं समझती, तो भी उसकी अज्ञता, दयार्द्रता और सरल- फिर किसी पत्रमें यदि इस प्रकारके विचारहृदयके कारण उसे मुनिको उपसर्ग करने या भेदको लिये हुए कोई लेख निकलें अथवा इन उनका गौरव घटाने आदि किसी भी अपरा- पत्रोंके कोई लेखक किसी बातको जैनधर्मके घका अपराधी नहीं समझा। इन दोनों गौरवकी चीज न समझकर उसको वैसी ही अथवा उदाहरणोंसे हमारे पाठक गौरव घटाने, अप- गौरव घटानेवाली प्रतिपादन करें तो उससे मान करने या नुकसान पहुँचाने आदिके उद्यो- सभा उत्तेजित क्यों होती है ? क्या वह इतनेगका रहस्य बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं। हीसे उनकी बदनीयती समझती है ? उदाहकिसी मनुष्य पर गौरव घटाने या नुकसान रणके लिये हालमें 'स्वामी समन्तभद्रकी अद्भुत पहुँचाने आदिके उद्योगका आरोप ( इलजाम) कथा' शीषर्क एक लेख सत्योदयमें प्रकाशित उस वक्त तक नहीं लगाया जा सकता जब हुआ है । इस लेखमें लेखक बाबू सूरजभानजी तक कि उसका कलुषित भाव सिद्ध न हो- वकीलने श्रीसमंतभद्राचार्यकी खुले. दिलसे बदनीयती साबित न कर दी जाय । क्या *देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः। सभाके पास ऐसा कोई स्पष्ट प्रमाण मौजूद है मायाविष्वपि दृश्यते नातस्त्वमसि नो महान् ॥ जिससे इन पत्रोंकी बदनीयती पाई जाय और
-आप्तमीमांसा ।
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२१०
जैनहितैषी
[भाग १४
प्रशंसा की है और उन्हें भगवान्, अद्वितीय उससे साधारण जनता पर बुरा असर भी विद्वान, न्यायविद्याके पारगामी, जैनधर्मको पड़ता है । इसी तरह जातिप्रबोधककी लेखनप्रकाश करनेवाले अद्वितीय सूर्य, इस कलिका- प्रणालीको भी हम अनेक अंशोंमें अच्छा लमें धर्मको परवादियोंसे बचानेवाले, जैन- नहीं समझते हैं, परंतु इतनेसे ही ये पत्र जैनकी धर्मके स्तंभस्वरूप, आचार्यों में भी उत्कृष्ट आचार्य कोटिसे निकलकर अजैन नहीं हो जाते । जैन इत्यादि विशेषणोंके साथ स्मरण करके उनके शब्द एक बहुत व्यापक शब्द है। उसमें दिगप्रति अपना बहुमान प्रदर्शित किया है । परंतु म्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी और उनकी शाखा साथ ही आपकी कथा जोड़नेवाले ब्रह्मचारी प्रतिशाखायें सभी शामिल हैं, सभा किस नमिदत्तकी बुद्धि पर दुःख प्रकाशित करते हुए किसको अजैन करार देगी? सभाका काम यह भी जतलाया है कि यह कथा बिल- ज्यादा
बिल- ज्यादासे ज्यादा इतना ही हो सकता था कि
माता कुल असम्बद्ध और बनावटी है, इससे
वह इन पत्रोंकी लेखनप्रणाली पर शोक प्रकाभगवान् समंतभद्रका गौरव उलटा नष्ट होता
शित करती, खेद जतलाती, उन्हें अपनी चालहै, इतना ही नहीं, बल्कि इससे जैनजाति और जैनधर्मकी कीर्तिमें भी बहुत बड़ा घब्बा
ढाल सुधारनेकी प्रेरणा करती । और उसके
सदस्योंका यह कर्तव्य था कि उनके ज्ञानमें जो लगता है । यद्यपि हम बाबू साहबके इस लेखसे
जो बातें स्पष्ट रूपसे जैनधर्मके विरुद्ध और "बहुतसे अंशोंमें सहमत नहीं है और अवकाश
उसके गौरवको घटानेवाली झलकी थीं उन्हें मिलने पर उस पर कुछ लिखना भी चाहते हैं
प्रमाणसहित विशद रूपसे सर्वसाधारण पर तो भी इतना जरूर कहेंगे कि इस लेखके प्रकट करते, जिससे जनताका भ्रम दूर होता । लिखनेमें बाबू साहबका कोई बुरा भाव मालूम परंतु ऐसा कुछ भी न करके सभाने जो यह नहीं होता । क्या सभा इस लेखको जैनधर्म प्रस्ताव पास किया है इससे उसकी अनधिकार अथवा स्वामी समंतभद्रके गौरवको घटानेका चेष्टा पाई जाती है । एक साधारण और स्थानीय उद्योग समझती है ? यदि ऐसा है तो कहना सभा होनेकी हैसियतसे सभाको इस प्रकारकी होगा कि यह सभाकी बड़ी भारी भूल है । नहीं तजवीज देनेका कोई अधिकार नहीं था, और मालूम एक साधारण ग्रंथकर्ताकी भूलें प्रकट यह बात तो उसके अधिकारसे बिलकुल ही बाहर करनेका जैनधर्मके गौरवसे क्या संबंध है, थी कि वह संपूर्ण जैनियों और जैन पंचायतिऔर उस लेखमें ऐसे कौनसे शब्द है, जिनसे योंके नाम इस प्रकारकी आज्ञा जारी करे कि जैनधर्म अथवा स्वामी समंतभद्रके प्रति लेख- कोई भी जैनी अमुक अमुक पत्रोंको जैनपत्र कका कोई बुरा भाव पाया जाय और जिससे न समझे, न तदृष्टिसे खरीदे और न पढ़े। उनके लेखको गौरव घटानेका उद्योग समझ उसका काम सम्मति प्रकाश करनेका था आज्ञा लिया जाय ? उत्तर इसका कुछ भी नहीं हो जारी करनेका नहीं। सकता । हाँ, हम इतना जरूर कह सकते हैं हमारी रायमें कलकत्ता जैनसभाने इस प्रकि लेखोंकी लेखनप्रणाली अच्छी नहीं है और स्तावको पास करके अपने हृदयकी संकीर्णता, उसमें कुछ ऐसी बातें भी हैं, जिनमें लेखकको अनुदारता, अदूरदृष्टता और नासमझीका ही भ्रम हुआ है । बल्कि सत्योदयके विषयमें हमारी परिचय नहीं दिया, बल्कि साथ ही विद्वानोंके शुरूसे यह धारणा है कि उसके अधिकांश प्रति अपनी धृष्टता भी प्रकट की है। लेखोंकी लेखनप्रणाली अच्छी नहीं होती। सरसावा । ता० १६ मई सन् १९२०.
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अङ्क ७-८] मुक्तिके मार्ग ।'
१११. मुक्तिके मार्ग । प्रकारके सिद्धान्त पर आना पड़ता है । परन्तु
दुःखकी बात यह है कि जिस रसनाने एक बार
ज्ञानवृक्षके फलका रसास्वादन कर लिया है उसे [ अनु०-श्रीयुत पं० नाथूराम प्रेमी।] उस रसके खोजनेसे रोकना एक प्रकारसे
बहुत समयसे एक किम्वदन्ती चली आ रही असाध्य कार्य हो जाता है और इस लिए इस है कि मनुष्यजातिके आदिम माता पिताने रोकनेकी चेष्टासे कुछ भी लाभ नहीं होता है। (आदम और हव्वाने) ज्ञानवृक्षके फल खाकर तो भी, जब दुःखनिवृत्ति ही परम पुरुषार्थ है संसारमें पाप, दुःख और मृत्युको निमंत्रण और उस परमपुरुषार्थके साधनका उपाय करना दिया था। .
ही मानवजातिके गुरुओं और शिक्षकोंके जीवइस किम्वदन्तीमेंसे एक आध्यात्मिक तत्त्व
- नका व्रत है, तब उन गुरुओं और शिक्षकोंने निकाला जा सकता है । ज्ञानसे पापकी और मानवोंके दुःख दूर करनेके लिए किस किस प्रकातज्जात दुःखकी उत्पत्ति हुई है । अज्ञान अवस्थामें रके उपाय किये, यूरोपके लगभग डेढ़ हजार पाप नहीं है और तज्जात दुःख भी नहीं है। वर्षके इतिहासमें, वे खूनके अक्षरों में लिखे हुए हैं। यह जगतका अन्यतम विभीषिकामय सत्य है। सभ्यताके प्रारंभिक कालमें, यूरोपमें यूना
अन्य स्थानों में इससे सर्वथा विपरीत और नने जो ज्ञानका दीपक जलाया था, वह कई एक तत्त्व प्रचलित है । जिस तरह ज्ञानसे सौ वर्षातक सारे पश्चिमी देशोंको आलोकित दुःखकी उत्पत्ति मानना किसी किसी समाजके करता रहा था। पीछे, ईसाई मतका अभ्युदय प्रचलित धर्मतत्त्वकी दीवार है. उसी प्रकार होनेपर, राष्ट्रीय शक्ति और याजक शक्ति ज्ञानकी पर्णता होनेसे दःखका विनाश मामा (पादरियोंकी शक्ति) ने एक होकर, किस अन्य कई समाजोंके प्रचलित धर्मतत्त्वकी जड है। प्रकारसे उस ज्ञानके दीपकको बुझाकर गभीर यहाँ इस बातकी आलोचना करनेकी आव
- अन्धकारकी सृष्टि की, सो इतिहासमें स्पष्ट शब्दोंमें श्यकता नहीं है कि इनमेंसे कौनसी बात सत्य
लिखा हुआ है। कोई डेढ़ हजार वर्षतक ईसाई है। पर यह स्वीकार किये बिना नहीं चल
पादरियोंने किसीको भी किसी प्रकारका उजेला सकता कि दोनों बातोंके मूलमें कुछ न कुछ केवल यही इतिहास है। उसने बड़ी ही निल.
नहीं करने दिया * । यूरोपके ईसाई मतका सत्य अवश्य छुपा हुआ है। तब यह ऐतिहासिक सत्य है कि उक्त दो
जताके साथ अपनी सारी शक्ति इस दीवारकी वाक्य मानवजातिके दो बड़े समाजोंको एक * ईसाई धर्मका इतिहास बड़ा ही भयंकर है। दूसरेसे सर्वथा भिन्न दो मार्गों पर खींच ले बाइबलमें जो कुछ लिखा हुआ है, उसके विरुद्ध कोई गये हैं।
एक शब्द भी नहीं कह सकता था । यदि कोई
विद्वान् कोई नई खोज करता था जब ज्ञानसे दुःखकी उत्पत्ति हुई है, तब
और वह बाइबलसे
विरुद्ध होती थी, तो उसकी शामत आ जाती थी। जान पड़ता है कि किसी न किसी तरहसे-योग- गैलेलियोने जब यह सिद्धान्त प्रकाशित किया कि यागसे-ज्ञानका नाश साधन कर सकनेसे ही पृथ्वी चलती है और सूर्य स्थिर है, तब सारा ईसाईदुःखसे रक्षा की जा सकती है । कमसे कम संसार उसपर टूट पड़ा और उसको बड़े ही अमातर्कशास्त्रकी निर्दिष्ट युक्तियोंके बलसे इसी नुषिक कष्ट दिये गये।
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२१२ जैनहितैषी
[भाग १४ जड़को उखाड़ डालनके लिए लगा रक्खी कि यह उसीके बहकानेमें भूल कर, उसके दिये जिसके ऊपर प्रतिष्ठालाभ करके मनुष्य अपने हुए कुपथ्यका सेवन करके ठगा गया है । महत्त्वको अव्याहत बनाये आ रहा है और यह ठीक है कि ज्ञानसे दुःखकी उत्पति अबतक प्रकृतिके निष्ठुर कवलसे अपनी रक्षा हुई है; परन्तु उस दुःखबन्धनसे छूटनके लिए कर सका है।
ज्ञानके प्रकाशको छोड़कर अज्ञानके अन्ध- इस विश्वासके कारण मनुष्य बहुत युगोंतक कारमें प्रवेश करना होगा, इस प्रकारकी आज्ञा ठगा गया है कि जब ज्ञानसे दुःखकी उत्पत्तिः माननेके लिए तो कोई भी सुस्थ और मोहहुई है तब ज्ञानका पथ रुद्ध कर देनेसे ही उस मुक्त मनुष्य सिरं झुकाकर तैयार न होगा। दुःखसे छुटकारा हो जायगा । जिन लोगोंने यह बड़े ही सौभाग्यकी बात है कि सब इस तरह अपनेको ठगाया है, वे पुकार पुकार देशोंकी सभी जातियोंने इस बातको स्वीकार कर कहते आ रहे हैं कि यदि दुःखसे मुक्त होना नहीं किया कि ज्ञानके मार्गको छोड़कर दुःख- . चाहते हो तो ज्ञानमार्गको छोड़कर अन्धवि- नाशके उपायका अवलम्बन किया जाय । श्वासके मार्गका अवलम्बन करो, यदि तुम्हारी कमसे कम एक बड़े भारी समाजमें* यह मत इच्छा परमपुरुषार्थ प्राप्त करनेकी है तो बुद्धि- ग्रहण किया गया है कि अपूर्ण ज्ञानसे जिसकी वृत्तिका निरोध करो, ज्ञानके अन्वेषणमें व्यर्थ उत्पत्ति होती है, ज्ञानका पूर्ण विकास होना समय मत खोओ; जविनके मार्गपर व्यक्तिविशेष ही उसके नाशका एक मात्र उपाय है। + और वाक्यविशेषमें x विश्वास स्थापन करके,
' परन्तु, ज्ञानकी पूर्णता होने पर वास्तवमें चलनेसे ही परमपुरुषार्थ प्राप्त होगा।
दुःखकी निवृत्ति होना सम्भवपर है या नहीं, वास्तवमें देखा जाय तो मनुष्यके समान
इसकी आतोचना अवश्य कर देखनी चाहिए । अभागा जीव संसारमें शायद ही कोई हो।
जहाँ तक देखा जाता है, जान तो यही पड़ता मनुष्य क्षुद्र और दुर्बल है; और सदासे चले
ल है कि ज्ञानके विकाशके साथ साथ दुःखकी
की आये नियमके अनुसार जो क्षुद्र है वह अभागा है और जो दुर्बल है वह दीन है । वह अपनी देने की चेष्टायें अनेक प्रकारसे की गई हैं।
मात्रा भी बढ़ती जाती है । इस प्रश्नका उत्सर असमर्थताके कारण दूसरोंके आगे कृपा-भिक्षाके लिए सदासे लालायित है और अपनी पर- कोई कोई तो पृथिवीमें दुःखका अस्तित्व ही मुखापेक्षिता (पराया मुंहताकनेकी आदत के नहीं स्वीकार करना चाहते, मंगल (ईश्वर ) फलसे सदासे प्रतारित ( ठमाया हुआ) है। के राज्यमें अमंगलका आस्तित्व स्वीकार करनेमें मनुष्य प्रकृत्तिके द्वारा तरह तरहसे पीडित उन्हें संकोच होता है । किन्तु मनुष्यकी अनुहोकर दुःखकी यंत्रणासे ' हाय हाय' करता भूतिका तीवतम और मुख्यतम विषय दु:ख ही आ रहा है, इस लिए जब जब जिस किसी है। इसके अस्तित्वमें सन्देह करनेसे काम नहीं व्यक्तिने अपनी मर्खता और निर्लज्जताके भरोसे चल सकता । यहूदी ‘जेकब' से लेकर हिन्दू अपनेको इस सनातन दुःखरोगका एक मात्र ‘रामप्रसाद' तक सबने ही एक स्वरसे इसे चिकित्सिक (वैद्य ) प्रकट किया तब तब मान लिया है। पृथिवीपर अवतीणे होते ही मनु
+ ईसा या मुहम्मद आदि धर्मप्रवर्तक । * भारतवर्षके ब्राह्मण, जैन, बौद्ध आदि संप्र.xबाइबल या कुरान आदि धर्मग्रन्थ ।
दायोंमें ।
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मुक्तिके मार्ग।
ध्यको पद पद पर जीवनकी प्रसारण-विरोधी सर्व- उनकी व्यवस्था और आदेश है । उनके ग्रासी जडशक्ति और समाजशक्तिके साथ प्रतिद्वन्दी दुःखविधाताके बहकानेसे मानवजातिके संग्राम करके आगे बढ़ना पड़ता है, यह नित्य- आदिम माता-पिता (आदम और हव्वा ) ने की घटना और प्रत्यक्ष व्यापार है। यही मनु- उनकी आज्ञाकी अवहेला की थी, इसी लिए प्यका जीवन है । इस संग्राममें जरा भी शिथि- .उनका मनुष्यजातिके ऊपर यह दुर्जय कोप है। लता आई कि फिर जीवनरक्षा असाध्य हो आदिम माता-पिताके पापसे भविष्यत् वंशपरंपरा जाती है। यहाँ तक कि सावधानता और वीर- किस प्रकार दण्डनीय हो सकती है और परम तासे युद्ध चलाते रहने पर भी जीवनरक्षा दयालुताके साथ इस तीव्र प्रतिहिंसाप्रवृत्ति अन्त तक साध्य नहीं होती, यही तो जीवनकी (बदलेकी इच्छा) का किसप्रकार सामञ्जस्य विशिष्टता है । यह दूसरी बात है कि तुम हो सकता है, इसका कोई सन्तोषजनक उत्तर उसका नाम दुःख मत रक्खो; वह भाषागत नहीं मिलता । जान पड़ता है, यह खुदाका विवादका विषय है, परन्तु इससे हम जिसे दुःख एक खयाल मात्र है, अथवा उसकी रहस्यमय नाम दे रहे हैं, उसका अभाव सिद्ध नहीं होता। जागतिक विधानावलियोंमेंसे . एक रहस्यमय
पर सभी लोग दुःखके अस्तित्वको अस्वी- विधान मात्र है । कुछ भी हो, जब प्रतिद्वन्द्वी कार नहीं करते और इसकी उन्नतिके कारण दुःखविधाता उनके प्यारे जगतमें झगड़ा मचाभी और और बतलाते हैं।
कर अनर्थघटित करनेमें समर्थ हुआ है, तब इसे जैरथोस्तके मतानुसार संसारमें दो प्रति- सर्वशक्तिमानकी अदूरदृष्टिताका ही फल समद्वन्दी विधाता प्रभुत्व कर रहे हैं, एकका कार्य झना पड़ता है । परन्तु वे इस अनर्थका है सुखविधान और दूसरेका दुःखविधान । मा
प्रतिकार करनेमें समर्थ हैं और किसी समय अन्तमें जान पड़ता है सुखविधाताकी ही जय इसका प्रतीकार कर भी देंगे, मनुष्य इसी भरोसे होती है, अतएव मनुष्यका कर्तव्य है कि वह पर ढाढ़स.
पर ढाढ़स बाँधे रहता है । उस सुखविधाताने सुखविधाताका ही आश्रय ग्रहण करे ।
१९ मानवजातिके आदि दम्पती (जोड़े) को 'शेमेटिक जातियोंने भी संभवतः यही मत
स्वाधीन इच्छाके साथ साथ असमर्थता प्रदान
करके क्यों अपने प्रतिद्वन्दीकी ईर्ष्यावृत्तिको तृप्त ग्रहण करके दो विधाताओंका-खुदा और
करनेका सुयोग दिया, यह भी एक सोचने शैतानका अस्तित्व स्वीकार किया है । सुख
समझनेकी बात है। .. विधाताका पराक्रम दुःखविधाताकी अपेक्षा सर्वतोभावसे अधिक है, यहाँतक कि यदि वे वास्तवमें विधातामें करुणामयत्वका आरोफ, चाहते तो सारे दुःखोंका विलोप-साधन भी कर करके उसकी सृष्टि में दुःखका अस्तित्व स्वीकार सकते । परन्तु उनकी आज्ञाकी अवहेलना ही करनेसे बड़ा ही गोलमाल मच जाता है । इसी इस अभागिनी मनुष्यजातिके प्रति उनके निदा- लिए इस दुःखकी नाना प्रकारकी व्याख्यायें रुण क्रोधका कारण हो गई है, और मनुष्यको करके दुःखके अस्तित्वको ढंक देने अथवा उडा इसी क्रोधका फल निर्दिष्ट काल तक अपने देनेके लिए नाना प्रकारकी चेष्टायें की गई हैं। पापके प्रायश्चित्तस्वरूप भोगना पड़ेगा । यही
१ खुदा और शैतानको माननेवाले सभी धर्म खुदा १पारसी-धर्मके प्रवर्तक जरदुछ या. जरथोस्त । या ईश्वरको परमदयालु करुणासागर मानते हैं।
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जैनहितैषी -
एक तरहकी व्याख्या और भी हैं । दुःखकी परिणति परम सुख है। यदि दुःखका अभाव होता तो सुखानुभूति बाधा पड़ती, इस लिए अन्त तक सुखकी मात्रा बढ़ाने के लिए ही इस दुःखकी सृष्टि हुई है । अर्थात् अन्तमें परम सुखदान ही दुःखसृष्टिका उद्देश्य है ।
- आजकल जो लोग अभिव्यक्तिवाद (विकाशवाद या उत्क्रान्तिवाद ) की नीव पर दार्शनिक तत्त्वोंकी आलोचना करने बैठते हैं, वे भी इस प्रकारकी एक बात कह कर मानवजातिको आश्वस्त करने या ढाढस बँधानेकी चेष्टा किया करते हैं । अभिव्यक्तिवादका एक और नाम क्रमोन्नति है । अभिव्यक्तिके फलसे सुखकी उन्नति और दुःखका ह्रास क्रम क्रमसे होता जायगा । किन्तु जब मृत्युके समान महादुःखजनक व्यापार प्रत्येक मनुष्यके और सारे मानव कुलके सन्मुख हर समय उपस्थित रहता है और उस मृत्यु के साथ अविराम युद्ध करना ही जीवोंका जीवन है, एवं मृत्युसे बचनेकी चेष्टा में ही जीवकी क्रमोन्नति या अभिव्यक्ति है, परन्तु मृत्यु के हाथसे बचनेका कोई भी उपाय अब तक कोई भी जीव आविष्कार नहीं कर सका है, तब, अभिव्यक्तिका यह परिणाम देखते हुए, इस प्रकारसे, दुःखके अपलाप करने की चेष्टा निष्फल ही प्रतीत होती है । फलतः जिस तरह यह सच है कि दुःख के साथ सुख आता है, अविमिश्र दुःख जगतमें नहीं है, उसी तरह यह भी सच है कि सुखके साथ दु:ख आता है, अविमिश्र सुख जगत में नहीं है । इसमें सन्देह करनेसे सत्यका अपलाप होता है ।
ज्ञानकी वृद्धि दुःख नाश करनेका प्रयास मात्र है, बस यहीं तक निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है; किन्तु यह बात नहीं कही
[ भाग १४
जा सकती कि ज्ञानकी वृद्धिसे दुःखका ह्रास होकर सुखका परिणाम बढ़ेगा ।
इस बातकी यथार्थता के सम्बन्ध में चारों ओरसे संशय आकर उपस्थित हो जाते हैं कि ज्ञानकी पूर्णता होने पर दुःखसे छुटकारा हो जायगा । आश्चर्य नहीं जो मनुष्यजातिका पूर्वोक्त समाज ( ईसाई आदि धर्मोका माननेवाला ) इसी कारण से ज्ञानका मार्ग छोड़कर अतिशय निरुपाय होकर विश्वासका मार्ग अवलम्बन करनेका उपदेश देता हो। तुम कहते हो कि ज्ञानवृद्धि के साथ साथ दुःखकी उत्पत्ति हुई है और ज्ञानवृद्धि के साथ साथ उसकी मात्रा बढ़ती जाती है । ऐसी दशा में यह कैसे माना जा सकता है कि ज्ञानकी पूर्णता होने पर दुःखका नाश हो जायगा ?
.
इस प्रश्नका कोई संगत उत्तर है या नहीं, यह तो हम नहीं जानते; परंतु एक इस प्रकारका उत्तर देने की चेष्टा की गई है:
तुम जिसे ज्ञान कहते हो वह जगत के सम्पकैसे ज्ञान है । इससे यह सिद्ध नहीं होता कि इस ज्ञानके न रहने पर भी जगत् रहेगा । उस तथाकथित ज्ञानके अभाव में यदि जगतका अभाव माना जाय, तो फिर उस जगतके साथ उस ज्ञानका एक अविच्छेद्ध सम्बन्ध खड़ा हो जाता है; एकके बिना दूसरेका अस्तित्व नहीं रहता । ज्ञानसे ही इस सुखदुःखमय जगतकी उत्पत्ति हुई है । इस जगतकी उत्पति के साथ दुःखकी उत्पत्ति और सुखकी उत्पत्ति हुई है । सुख दुःख दोनों ही इस ज्ञाननामधारक भ्रान्तिसे उत्पन्न हुए हैं। दोनों ही एक तरह के विकारके फल हैं ; एक ही विक्रियाके दो बाजू हैं । एक बाजूसे देखने पर जो सुख है, दूसरी बाजूसे देखनेसे वह दु:ख है । यदि तुम विशुद्ध सुख चाहो, तो वह तुम्हें कहीं नहीं
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__ अङ्क ७-८]
मुक्तिके मार्ग।
२१५
मिलेगा; यदि विशुद्ध दुःख चाहो तो वह भी है। अत एव मुक्तिका अर्थ केवल दुःखसे ही कहीं नहीं मिलेगा । एक कढ़ाहा (कटाह) मुक्त होना नहीं है, वह सुखसे भी मुक्त होना एक तरफसे जैसे भीतरको फंसा हुआ और है, प्रान्तिके जालसे मुक्त होना है, और जगतके दूसरी तरफसे ऊपरको उठा हुआ होता है; बन्धनसे मुक्त होना है। इस तरह सुखदुःख‘घुसाहुआ-पन ' मिटानेसे जैसे 'उठाहुआ-पन'' विनिर्मुक्त होकर रहना यदि कल्पनीय हो, तभी चला जाता है और 'उठाहुआ-पन' मिटानेसे परम पुरुषार्थ साधित होगा। “साहुआ-पन' नहीं रहता है, और एकके एक समय भारतवर्ष में इसी प्रकारका मुक्तिमिटाने के साथ दोनोंके मिट जानेसे कढ़ाहेका तत्त्व प्रचारित हुआ था। इस मुक्तिवादने भारकटाहत्व भी नहीं रहता है, उसी प्रकार इस तवर्षके जनसमाजको गठित, नियमित और जगतके दुःखभागको लोप करनेका प्रयत्न कर- चालित किया था। अब तक भी यहाँके जननेसे सुखका भाग आप ही लोप हो जाता है, समाजकी अस्थि-मज्जाओंमें यह मत गूढभावसे सुखभागको लोप करनेसे दुःखका भाग भी लुप्त निहित रह कर उसे जीवनके पथमें प्रेरित कर हो जाता है और सुखदुःख दोनोंको लुप्त कर- रहा है। हम यह नहीं कहते कि अन्य देशोंमें नेसे सुखदुःखमय जगतका अस्तित्व नहीं रहता और अन्य समाजोंमें इस मतकी क्षीण ध्वनि है। इस जगतमें सुख भी नहीं है, और सुख- भी नहीं सुनी गई है। किन्तु अन्य देशोंमें यह दुःख भोगनेके लिए चेतन कोई नहीं है, उस मत मानवजीवनकी गतिका नियामक हुआ है, अचेतन जगतका अस्तित्व अकल्पनीय है। या मनुष्यके गन्तव्य मार्गमें इसने कोई विशेष ज्ञान नामक परिचित भ्रान्तिसे इसकी उत्पत्ति है अनुकलता उत्पन्न कर दी है, यह इतिहासमें
और वह भ्रान्ति जबतक वर्तमान रहेगी तबतक नहीं लिखा । यह मत विचारसह है या नहीं, सुखदुःखपरिहारकी चेष्टा व्यर्थ है।
यह पथ सपथ है या नहीं, इन बात .. ज्ञान नामसे परिचित इस भ्रान्तिका नाश करना इस लेखका आलोच्य विषय नहीं है ।* करना कुछ असाध्य नहीं है । परन्तु उसके लुप्त नाटः-यद्यपि हम इस लेखके विचारोंसे सर्वथा होने पर जिस तरह दुःख नहीं रहेगा, उसी सहमत नहीं हैं तो भी अपने पाठकोंको विभिन्न तरह सख भी नहीं रहेगा और तब यह जो विचारोंका परिचय कराने और विज्ञ पाठकोंको उनपर प्रत्यक्षगोचर सुखदुःखका आश्रय जगत् है,
विचार करनेका अवसर देनेके लिये इसे प्रका. शित किये देते हैं।
-सम्पादक। उसका भी अस्तित्व विलुप्त हो जायगा। ___ दुःखसे मुक्त होना मनुष्यके लिए वाञ्छनीय हो सकता है, इसमें कोई हर्ज नहीं है; परन्तु दुःखके बदले, दुःखको दूर करके उसके स्थानमें , * स्वर्गीय पं० रामेन्द्रसुन्दर त्रिवेदी एम० ए० के सुखप्रतिष्ठाकी आशा रखना बड़ी भारी मूर्खता बंगलालेखका अनुवाद ।
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२१६ ... जैनहितैषी
[भाग १४ श्रीहरिषेणकृत कथाकोश। भेद था। यह द्राविडसंघका नामान्तर जान
__पड़ता है। द्रविडदेशीय होनेके कारण इसका • [ लेखक-श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी।]
ही द्रविडसंघे नाम हुआ है । पुन्नाट भी संभवतः
द्रविड देशका ही नामान्तर है । इस कथाकोशमें दिगम्बर और श्वेताम्बरसम्प्रदायके विद्वानों
. ही भद्रबाहु-कथानकमें लिखा है:द्वारा अनेक कथाकोश रचे गये हैं, परंतु अभी
____अनेन सह संघोऽपि समस्तो गुरुवाक्यतः।। तक जितने कथाकोश उपलब्ध हुए हैं, वे अपे
___दक्षिणापथदेशस्थपुन्नाटविषयं ययौ ॥ ४० ॥ क्षाकृत अर्वाचीन हैं-ग्यारहवीं शताब्दीके पह
इससे सिद्ध है कि पुन्नाट दक्षिणापथका ही लेका अभी तक कोई कथाकोश प्राप्त नहीं
• एक देश है और उसे द्रविडदेश मानना कुछ हुआ है । इस लेखमें हम जिस कथाकोशका
असंगत नहीं हो सकता। उस समय शायद परिचय देना चाहते हैं वह शक संवत् ८५३,
कर्नाटक देश भी द्रविडदेशमें गिना जाना था। विक्रम संवत् ९८९ और खर नामक वर्तमान
इस संघका एक और नाम द्रविडसंघ भी है : संवत्के २४ वें वर्षका बना हुआ है और इस
न्यायविनिश्चयालंकार और पार्श्वनाथचरित लिए इस समय हम उसे सबसे प्राचीन जैन
आदिके कर्ता सुप्रसिद्ध तार्किक वादिराजने अपकथाकोश कह सकते हैं।
नेको द्रविडसंघीय लिखा है । द्रविडदेशको इस कथाकोशकी एक प्रति पूनेके "भाण्डार
। द्रमिलदेश भी कहते हैं। कर-प्राच्यविद्यासंशोधन मन्दिर" में मौजूद है.
सुप्रसिद्ध हरिवंशपुराणके कर्ता प्रथम जिनजो वि० सं० १८६८ की लिखी हुई है । यह
सेन भी इसी पुन्नाट संघके आचार्य थे:जयपुरके गोधाजीके मन्दिर में लिखी गई थी और
___“व्यत्सृष्टापरसंघसन्ततिबृहत्पुन्नाटसंघान्वये-" संभवतः वहींसे गवर्नमेण्टके लिए खरीदी गई है।
. हरिवंश-प्रशस्ति । इसकी श्लोकसंख्या १२५००, पत्रसंख्या ३५० यह कथाकोश भी उसी वर्द्धमाननगरमें और कथासंख्या १५७ है । प्रायः सारा ग्रन्थ बनाया गया है जहाँ कि जिनसेनसूरिने हरिवंशअनुष्टुप् छन्दोमें रचा गया है । रचना बहुत प्रौढ
पुराणकी रचना की थी। और जब कि जिनऔर सुन्दर तो नहीं है; परन्तु दिगम्बर सम्प्र
सेन पुन्नाट संघके ही आचार्य हैं तब संभव है दायके अन्य कथाकोशोंसे अच्छी है।
कि हरिषेण आचार्य जिनसेनकी ही शिष्यपर___ इसके कर्ता हरिषेण नामक आचार्य हैं जो म्परामें हों। यदि मौनिभट्टारककी गरुपरम्पराका अपनी गुरुपरम्परा इस भांति बतलाते हैं-१ पता लग जाय तो इस बातका निर्णय सहज मौनि भट्टारक, २ श्रीहरिषेण, ३ भरतसेन और ही हो जाय। ४ हरिषेण । हरिषेण पुन्नाट संघके आचार्य थे। वर्द्धमानपुर कर्नाटक देशका ही कोई प्रसिद्ध यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदायके अनेक आचार्योंने नगर है। मालूम नहीं, इस समय वह किस इस संघको पांच जैनाभासमि' एक बैंतलाया नामसे प्रसिद्ध है। जिनसेनसरि लिखते हैं:है; परन्तु फिर भी यह दिगम्बर सम्प्रदायका ही
___दक्षिणमहुराजादो दाविडसंघो महा१ मेरे द्वारा सम्पादित और जैनग्रन्थरत्नाकर कार्या- मोहो॥२८॥
देवसेन। 'लय, बम्बई द्वारा प्रकाशित 'दर्शनसार' में जैनाभा- २ आपटेकी संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरीमें पुन्नाटका सोंका विस्तृत विवेचन देखिए।
- अर्थ 'कर्नाटक देश' लिखा है।
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अङ्क ७-८]
श्रीहरिषेणकृत कथाकोश।
"कल्याणैः परिवद्धमानविपुलश्रीवर्द्धमाने पुरे, नुवाद मात्र है। ये दोनों कथाकोश इस कथाश्रीपालियननराजवसतो पर्याप्तशेषःxx" कोशकी अपेक्षा छोटे हैं, इसीलिए जान पड़ता
इसी प्रकार इस कथाकोशके कर्ता लिखते हैं:- है कि इसकी प्रति लिखनेवालेने इसके नामके " जैनालयबातविराजितांते चन्द्रावदातद्युतिसौधजाले। साथ बृहत् विशेषण लगा दिया है । ग्रंथकर्ताने कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे श्रीवर्द्धमानाख्यपुरे xxx॥" स्वयं इसे ' कथाकोश' ही लिखा है।
इससे जान पड़ता है कि उस समय यह हमको इस कथाकोशकी सब कथायें पढ़नगर बहुत समृद्धिशाली था और अनेक जैन- नेका अवसर नहीं मिला। हैं भी वे बहुत मान्दिरोंसे सुशोभित था । वहाँके नन्नराजके मामूली और विशेषत्वहीन । कुछ कथायें ऐतिबनाये हुए पार्श्वनाथालय नामक जैनमन्दिरका- हासिक पुरुषोंसे सम्बन्ध रखनेवाली हैं, जैसे जहाँ कि हरिवंशपुराण समाप्त हुआ था-और चाणक्य, शकटाल, और भद्रबाहु; परन्तु वे भी भी कई ग्रन्थोंमें उल्लेख मिलता है।
वास्तविक इतिहाससे कम सम्बन्ध रखती हैं__ यह ग्रन्थ विनयपाल नामक राजाके सम- केवल जैनधर्मकी महिमा बढ़ानेके उद्देश्यसे यमें लिखा गया है । ग्रन्थप्रशस्तिसे यह मालम लिखी गई हैं। नहीं होता है कि विनयपालकी राजधानी इसमें भद्रबाहुकी जो कथा लिखी गई है कहाँ थी । संभवतः वह वर्धमानपुरमें ही होगी। उसमें दो बातें बड़ी विलक्षण हैं और पुरातत्त्वहम इस बातका पता नहीं लगा सके कि विनय- ज्ञोंके ध्यानमें रहने योग्य हैं। एक तो यह कि, पाल किस वंशका राजा था; परन्तु संभवतः वह भद्रबाहुने १२ वर्षका घोर दुर्भिक्ष पड़नेका राष्ट्रकूट राजाओंका माण्डलिक होगा और चतुर्थ निश्चय करके अपने शिष्योंको ही दक्षिणापथ गोविन्द या सुवर्णवर्षका समकालीन होगा तथा सिन्ध्वादि देशोंको भेज दिया था, पर वे जिसने शक संवत् ८५६ तक राज्य किया था। स्वयं उज्जयिनी में रहे और कुछ दिनोंमें उज्ज___ यह कथाकोश किसी 'आराधना ' नामक यिनीक निकट भाद्रपद-( भेलसा ? ) नामक ग्रन्थसे उद्धत करके सारांश रूपमें या उसके स्थानमें स्वर्गवासी हो मये । दूसरे, उज्जयिनीके सहारसे लिखा गया है, यह बात प्रशस्तिके राजा चन्द्रगुप्तने भद्रबाहुके समीप दीक्षा ले आठवें श्लोकके 'आराधनोद्धतः' पदसे मालम ली थी और वे ही पीछे विशाखाचार्यके नामसे होती है। ऐसी दशामें कहना होगा कि इस देवेन्द्रचन्द्रार्कसमर्चितेन तेन प्रभाचन्द्रमुनीश्वरेण । ग्रन्थकी कथायें अधिक नहीं तो हरिषेणके सम
नहाता हारषणक सम- अनुप्रहार्थ रचितं सुवाक्यैराराधनासारकथाप्रबन्धः॥६॥ यसे सौ दो सौ वर्ष पहलेकी अवश्य होंगी। तेन क्रमणैव मया स्वशक्त्या श्लोकैः प्रसिद्धैश्च निगवते .. दिगम्बर सम्प्रदायमें 'आराधना-कथाकोश' सः । मार्गे न किं भानुकरप्रकाशे स्वलीलया गच्छति नामके दो संस्कृत कथाकोश और भी हैं। इन- सर्वलोकः ॥ ७॥ -नेमिदत्तकृत कथाकोश । मेंसे एक प्रभाचन्द्र भट्टारकका बनाया हुआ २-भद्रबाहुमुनीधारो भयसप्तकवर्जितः। गद्यमें है और दूसरा मल्लिभूषणके शिष्य नेमिदत्त
पंपाक्षुधाश्रमं तीव्र जिगाय सहसोत्थितम् ॥ ४२ ॥ ब्रह्मचारीको पयमें है। यह दूसरा प्रथमका पद्या
प्राप्य भाद्रपदं देशं श्रीमदुज्जयिनीभवम् ।
चकारानसनं धीरः स दिनानि बहून्यलम् ॥४३॥ ...१-नेमिदत्त ब्रह्मचारी वि० सं० १५७५ क लग- आराधना समाराध्य विधिना स चतुर्विधाम् । भग हुए हैं।
समाधिमरणं प्राप्य भद्रबाहुर्दिवं ययौ ॥ ४४ ॥
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जैनहितैषी
[भाग १४
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प्रसिद्ध हुए थे। वे भद्रबाहुके समीप न रह कर किम्वदन्तियों या प्रचलित प्रवादोंके अनुसार दक्षिणापथको चले गये थे। अन्य कई कथा- स्वयं उक्त कथाकोशकारों द्वारा ही की गई है। ओंके और शिलालेखोंके अनुसार भद्रबाहु आचार्य अन्तमें हरिषेणके कथाकोशके प्रारंभका भी दक्षिणापथको गये थे और उनका स्व. मंगलाचरण और अन्तकी प्रशस्ति देकर हम र्गवास श्रवणबेल्गोलके चन्द्रगिरि पर्वतपर हुआ इस लेखको समाप्त करते हैं:था, तथा उनके साथ चन्द्रगुप्त भी गये थे और
ओं नमो वीतरागाय । उनका दूसरा नाम विशाखाचार्य नहीं किन्तु श्रियं परां प्राप्तमनन्तबोधं मुनीन्द्रदेवेन्द्रनरेन्द्रवन्धम् । प्रभाचंद्र थो । विशाखाचार्य नामके आचार्य निरस्तकन्दर्पगजेन्द्रदपै नमाम्यहं वीरजिनं पवित्रम् ॥१। उस. संघमें दूसरे ही थे । इन कथाओं और
विघ्नो न जायते नूनं न क्षुद्रामरलंघनम् । शिलालेखोंके आधारसे ही सम्राट चन्द्रगुप्तके न भयं भव्यसत्त्वानां जिनमंगलकारिणाम् ॥ २ जैन होनेकी सारी दीवाल खड़ी की गई है और
जि (ज) नस्य सर्वस्य कृतानुरागं .. स्वर्गीय विन्सेंट स्मिथ जैसे सुप्रद्धि इतिहासज्ञ
विपश्चितां कर्णरसायनं च । भी चन्द्रगुप्तका जैन होना ' संभवनीय '
, समासतः साधुमनोभिरामं बतला गये हैं। जिन शिलालेखोंसे और कथा- परं कथाकोशमहं प्रवक्ष्ये ॥ ३ ऑसे चन्द्रगुप्तका जैनत्व सिद्ध करनेका प्रयत्न
अन्तमें ग्रंथकर्ता ग्रन्थके अमर होनेकी इच्छा किया जाता है, इसमें सन्देह ही है कि उनमेंसे
करते हुए अपना परिचय इस प्रकार देते हैंकोई भी इस कथाकोशसे प्राचीन हो। हम
यावच्चन्द्रो रविः स्वर्गों यावत्सलिलराशयः। आशा करते हैं कि इतिहासज्ञ इस विषयपर
यावयोम नगाधीशो यावद्वंगादिनिम्नगाः॥१ विशेष विचार करनेकी कृपा करेंगे।
यावत्तारा धरा यावद्रामरावणयोः कथा। इस कथाकोशमें समन्तभद्र, अकलंकदेव और तावच्चारुकथाकोशः तिष्ठतु क्षितिमण्डले ॥ २ . पात्रकेसरी ( विद्यानंद ) की कथायें नहीं हैं;
युगलमिदम् । जो अवश्य होनी चाहिए थीं । क्यों कि इसके यो बोधको भव्यकुमुदतीनां निःशेषराद्धान्तवचोमयः । कर्ता उक्त समन्तभद्रादि आचार्योंके देशके ही पुन्नाटसंघांबरसान्निवासी श्रीमौनिभट्टारकपूर्णचन्द्रः ॥ ३ थे और अकलंकदेव पात्रकेसरीसे थोड़े ही समय जैनालयवातविराजितान्ते चन्द्रावदातातिसौधजाले। बाद हुए थे । प्रभाचन्द्र और नेमिदत्तके कथा- कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे श्रीवर्धमानाख्यपुरे वसन्सः॥४ कोशोंमें ही सबसे पहले उक्त कथायें दिखलाई
युगलमिदम् । देती हैं, जिससे संदेह होता है कि उनकी रचना सारागमाहितमतिर्विदुषां प्रपूज्यो
नानातपोविधिविधानकरो विनेयः । १-भद्रबाहुवचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः।
तस्याभवद्गुणनिधिजनताभिवंद्यः अस्यैव योगिनं पार्श्वे दधौ जैनेश्वरं तपः ॥ ३८॥
श्रीशब्दपूर्वपदको हरिषेणसंज्ञः ॥५ चन्द्रगुप्तमुनिः शीघ्रं प्रथमो दशपूर्विणाम् ।
छन्दोलंकृतिकाव्यनाटकचणः काव्यस्य कर्ता सतो. सर्वसंघाधिपो जातो विशाखाचार्यसंज्ञकः ॥३९॥
वेत्ता व्याकरणस्य तर्कनिपुणस्तत्त्वार्थवेदी परं। अनेन सह संघोपि समस्तो गुरुवाक्यतः।
नानाशास्त्रविचक्षणो बुधगणः सेव्यो विशुद्धाशयः, दक्षिणापथदेशस्थपुन्नाटविषयं यया ॥ ४०॥
सेनान्तो भरतादिरत्र परमः शिष्यः बभूव क्षितौ ॥६ २-इसके लिये देखो जैनसिद्धान्तभास्कर किरण १-२-३, वर्ष १
१ सूर्खस्य वा पाठः।
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अङ्क ७-८]
वेश्यानृत्य-स्तोत्र। ...
लक्षणलक्षविधानविहीनः छन्दसापि रहितः प्रमया च।
वेश्यानृत्य-स्तोत्र । तस्य शुभ्रयशसो हि विनेयःसंबभूव विनयी हरिषणः॥ ७ आराधनोटुतः पथ्यो भव्यानां भावितात्मनाम् ।
--Ne:हरिषेणकृतो भाति कथाकोशो महीतल ॥.८ होनाधिकं चारुकथाप्रबन्धाख्यातं यदस्माभिरतिप्रमुग्धैः। वेश्यानत्य नमस्तुभ्यं स्वार्थचिन्ताविघातिने । मात्सर्यहीनाः कवयो धरण्यो तत्शोधयन्तु स्फुटमादरेण॥९ लज्जा पापादिभीतीश्च हित्वा स्वातंत्र्यदायिने ॥ भद्रं भूयाजिनानां निरुपमयशसां शासनाय प्रकामं, हे वश्यानत्य ! ऐ रंडीके नाच !! तुझे नमजैनो धर्मोपि जीयाज्जगति हिततमो देहभाजां समस्तं । राजानोऽवन्तु लोकं सकलमतितरां चारुवातोऽनुकूल:, .
. स्कार हो, प्रणाम हो, हम तेरे आगे ढाई सर्वे शाम्यन्तु सत्त्वाः जिनवरवृषभाः सन्तु मोक्षप्रदा नः॥ हाथ जाड़त
" हाथ जोड़ते हैं ! संसारके अधिकांश मनुष्य नवाष्टनवकेष्वेषु स्थानेषु त्रिषु जायतः ।
स्वार्थमें फँसकर पतित हो रहे हैं, स्वार्थी और विक्रमादित्यकालस्य परिमाणमिदं स्फुटम् ॥ ११ खुदगजे जैसे बुरे नामसि पुकारे जाते हैं: परन्त शतेष्वष्टसु विस्पष्टं पंचाशत् व्यधिकेषु च ।
जो लोग तेरी शरणागत हैं वे इस कलंकसे शककालस्य सत्यस्य परिमाणमिदं भवेत् ॥ १२ मुक्तं हैं ! तू अपने भक्तोंकी स्वार्थचिन्ताको संवत्सरे चतुर्विशे वर्तमाने खराभिधे । ही दूर कर देता है तेरे उपासकोंको कमाने विनयादिकपालस्य राज्ये शक्रोपमानके ॥ १३ खाने तककी फिकर नहीं रहती, फिर लिखने एवं यथाक्रमोक्तेषु कालराज्येषु सत्सु कौ। पढ़ने और गुरुजनोंकी सेवा-शुश्रूषा आदिकी कथाकोशः कृतोऽस्माभिभव्यानां हितकाम्यया ॥११ बात तो कौन कहे ! वे अर्थकी तो क्या धर्म कथाकोशोऽयमीदक्षो भव्यानां मलनाशनः। पुरुषार्थकी भी कुछ पर्वाह नहीं करते ! ऐसी पठतां शृण्वतां नित्यं न्याख्यातॄणां च सर्वदा ॥ १६ निश्चिन्तावस्था जिसके द्वारा साध्य हो वह सहादशैर्बद्धो नूनं पंचशतान्वितैः।
क्या स्तुतिका पात्र नहीं है ? अवश्य ही जिनधर्मश्रुतोद्युक्तैरस्माभितिवर्जितैः ॥ १७ स्तुतिके योग्य है ! महाशय ! आपके प्रतापसे,
संवत् १८६८ का मासोत्तममासे जेठमास आपके संसर्ग अथवा सत्संगसे भक्तजनोंकी शुक्लपक्ष चतुर्थ्यां तिथौ सूर्यवारे श्रीमूलसंघे नन्द्या- गति सहजहीमें वेश्या महादेवी तक हो जाती म्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दा- है और वे उस रूपेन्धनसे प्रज्वलित कामचार्यान्वये भट्टारकजी श्रीमहेन्द्रकीर्तिजी तत्पट्टे ज्वालामें बड़ी खुशीके साथ अपने धन, धर्भ भट्टारकजी श्रीक्षेमेन्द्रकीर्तिजी तत्पट्टे भट्टारकजी और यौवन सभीका स्वाहा कर डालते हैं, श्रीसुरेन्द्रकीर्तिजी तत्पट्टे भट्टारकशिरोमणी भट्टा. यह कितना बड़ा स्वार्थत्याग है ! सच पूछिये रकजी श्रीसुखेन्द्रकीर्तिजी तदाम्नाये सर्वाई जय- तो त्यागभावकी शिक्षा आपके ही द्वारा प्रारंभ नगरे श्रीमन्नोमनाथचैत्यालये गोधाख्यमान्दरे होती है। आपकी प्रेरणासे कभी कभी मनुष्य इतने पंडितोत्तमपंडितजी श्रीसंतोषरामजी तत्सिख्य- निर्मोही हो जाते हैं कि वे अपनी सर्वांगपंडित वषतरामजी तच्छिष्य हरिवंशदासजी सुन्दर, सच्चरित्र और शीलसम्पन्न गृहदेवियोंका तत्सिष्य कृष्णचन्द्रः तेषां मध्ये वषतरामकृष्णचं- भी त्याग कर देते हैं ! वेश्या महादेवीका द्राभ्यां ज्ञानावरणीकर्मक्षयार्थ बृहदाराधनाकथा- सामीप्य प्राप्त होने पर भक्तजनोंके क्रोध, मान, कोशाख्यं ग्रन्थं स्वाशयेन लिषितं श्रोतृवक्तृज- माया और लोभ शान्त हो जाते हैं-उन नानामिदं शास्त्रं मंगलं भवतु ।" .. पर चाहे कितनी भी गालिवर्षा हुआ करे,
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२२०
जैनहितैषी -
जूतियोंकी मार तक पड़े परंतु वे चूँ तक नहीं करते | उन्हें क्रोध नहीं आता और न वे उसके द्वारा अपना कुछ अपमान ही समझते हैं । खुशी के साथ सब कुछ सहन करते हुए खुले हाथों अपना द्रव्य लुटाते हैं । मायाचार किये उनसे नहीं बनता और न लोभी मनुष्यको उक्त महादेवीका सामीप्य ही प्राप्त होता है । इस तरह जब आपकी बदौलत चारों कषायें ही शांत हो जाती हैं तब स्वार्थचिन्ता कैसे रह सकती है ? फिर तो मुक्तिका सर्टिफिकेट मिला ही समझिये; चाहे वह मुक्ति हो अपने कुटंब परिवारसे, कार्यव्यवहारसे, धनधान्यसे, धर्माचरण से, इज्जत आबरूसे, शरीर मन और या जीवनोपायकी चिन्ताओंसे । गरज है मुक्ति, और वह मुक्ति आपके दर्शनोंसे सहज साध्य हो जाती है । इस लिये आपको हमारा दंडवत् है । महात्मन् ! वास्तव में आपकी महिमा अपरंपार है। आपकी छत्र-छाया में रह कर मनुष्य बहुत कुछ स्वच्छंद हो जाता है, उसके बंधन टूट जाते हैं, वह स्वतंत्र बन जाता है, लोकलाजका भूत फिर उसे नहीं सताता और न गुरुजनोंकी ही उसे कुछ पर्वाह रहती है | आपके अखाड़े में बाप-बेटा, ́ बाबा-पोता, चचा-भतीजा, श्वशुर- जँवाई और मामा-भानजा सभी एक स्थान पर बैठे हुए, विना किसी संकोचके, बड़ी खुशीके साथ उक्त महादेवीकी आराधना किया करते हैं, वह देवी उस समय सभीके विनोद और विलासकी चीज होती है, सभी उसको एक नजर से देखते हैं और उसे अपनी प्राणवल्लभा बनाने की चेष्टा किया करते हैं । वहाँ लज्जाका नाम नहीं और न शरमका कुछ काम होता है। संसार में लोक
[ भाग १४
लाजका बड़ा भारी बंधन है, सैकड़ों अच्छे बुरे काम इसकी वजहसे रुके रहते हैं, गृहस्थोंको परम दिगम्बर मुनिमुद्रा धारण करनेमें भी यही बाधक होती है; सो श्रीमन, इसका बात में हो जाता है, आपके अनुग्रहसे भक्तजनोंविजय आपके प्रतापसे बातकी का यह बंधन शीघ्र टूट जाता है और उनका आत्मबल फिर इतना बढ़ जाता है कि उन्हें एक व्यभिचारिणी, पापप्रचारिणी और मयमांस तथा व्यभिचारादिके सेवनका उपदेश देनेवाली विलासिनी स्त्रीके द्वारतक पहुँचने, दर्वाज़ा खटखटाने और उसकी चरणसेवाको अपना अहोभाग्य समझने में कुछ भी संकोच नहीं होता और न कोई प्रकारका भय रहता है। यह कितना बड़ा स्वात्मलाभ है ! कभी कभी स्त्रियाँ भी आपके प्रसादसे पार उतर जाती हैंबन्धमुक्त हो जाती हैं - उन्हें विवाहादिके अव सरोंपर जब आपके दर्शनोंका शुभ सौभाग्य प्राप्त होता है तब वे आपकी अधिष्ठात्री देवताकी बेहद भक्तिपूजाको देखकर, यह देखकर गद हो जाती हैं, कि अच्छे अच्छे सेठ साहूकार और धनकुबेर भी सामने हाथ बाँधे खड़े अथवा बैठे हैं, उसकी तानमें हैरान व परेशान हैं, भेट तथा नजरें चढ़ा रहे हैं और इस बातकी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब वह देवी एक प्रेमभरी नजर से उनकी ओर देखती है या कमसे कम अपनी मधुर मुस्कराहट से उन्हें पवित्र बनाती है । इस दृश्यसे वे स्त्रियाँ जो हमेशा घरकी चार दीवा - रियोंमें बंद रहती हैं, चौका चूल्हा करती हैं, रसोई बनाती हैं, बर्तन माँजती हैं, संतानका पालन करती हैं और कुटुंबी जनोंकी दूसरी अनेक प्रकारकी सेवाशुश्रूषाओंमें लगी रहती हैं.
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२२१..
अङ्क ७-८)
वेश्यावृत्य-स्तोत्र।। परंतु फिर भी तिरस्कार पाती हैं अपनेको धि- इतने कायर हैं कि पापोंसे ही डरते हैं वे इस कारती हैं-अपने इस दासत्वमय जीवनकी निन्दा संसारसमुद्रसे कैसे पार उतर सकते हैं ? पार करती हैं-और उस महाभाग्यशालिनी देवीके वे ही उतर सकते हैं जो पापोंकी जरा भी पर्वाह जीवनकी सराहना करती हुई, उसे धन्य कहती नहीं करते और न उनसे कुछ भय खाते हैं ! बुई और यह समझती हुई कि पुरुषोंको ऐसी प्रत्युत, पापियोंको उनके पापाचरणमें बराबर स्त्रियाँ पसंद आती हैं, आप भी तद्रूप होनेकी सहायता प्रदान करते रहते हैं ! महानुभाव ! भावना करती हैं ! बहुतसी स्त्रियोंकी व्यभि- यह अभया दशा और यह निर्भय पदकी प्राप्ति चारसे घृणां उठ जाती है ! और किसी किसी- आपके ही द्वारा साध्य होती है ! आपके प्रसाका लज्जाबंधन तो यहाँतक टूट जाता है कि दसे गुरुजनोंका, पञ्च-पंचायतका, और राज्यका वे परपुरुषके साथ घरके जेलखानेसे निकल भी कोई भय नहीं रहता ! आप लज्जा तथा भागती हैं और इसतरह अपनेको स्वतचा- पापादिजन्य भयोंको दूर करके स्वतंत्रता प्रदान रिणी बना लेती हैं ! महोदय ! यह सब आपकी के
करनेवाले हैं । भले ही आपके कारण मनुष्य ही करामात है ! आपके कृपाकटाक्षसे भक्तजन
घरका या घाटका न रहे परंतु वह स्वतंत्र
जरूर हो जाता है । स्वतंत्रता संसारमें उन पंच पापोंका जरा भी भय नहीं करते जरा मा भय नहा करत बड़ी ही स्पृहणीय वस्तु है । सारा संसार
हो जिनसे अच्छे अच्छे महात्मा तथा योगिजन उसके पीछे मारा मारा फिरता है । हर डरते और घबराते हैं । वे वेश्या महादेवीकी एक यही चाहता है कि मैं स्वतंत्र अथवा स्वाधीन आराधनाके लिये सब कुछ पापाचरण करनेको बन जाऊँ; और यह बात है भी अच्छी । क्यों तय्यार रहते हैं । उसे मांस चढ़ाते हैं, शराबकी कि परतंत्रता अथवा पराधीनतामें दुःख ही दुःख बोतलें पिलाते हैं; उसके कारण झठ मरा हुआ है । कहा भी है-“ पराधीन सुपने बोलते हैं, चोरीतक करते हैं, जेवर कपडा सुख नाहीं ।” जब स्वतंत्रता जैसी अच्छी वस्तु छीनकर या अन्य प्रकारसे अपनी ही आपकी बदौलत प्राप्त होती है फिर आपके स्त्रीको सताते हैं, और यह बात तो सब जानते बराब
बराबर उपास्य और कौन हो सकता है ? हैं कि उक्त महादेवीको जो कुछ भेट पजा , महाभाग्य ! इस तरह आप स्वार्थचिन्ताओंका चढ़ाई जाती है उससे वह गौ आदिकी कुर्बानी, नाश करनेवाले और लज्जा तथा पापादिजन्य जरूर करती है परंतु फिर भी भक्तजन उसके चर- भीतियोंको दूर, करके स्वतंत्रता प्रदान करनेणोंमें बराबर द्रव्य अर्पण किये जाते हैं और वाले हैं । अतः आपको हमारा साष्टांग प्रणाम इस बातकी जरा भी पर्वाह नहीं करते कि है ! आप हमारे ऊपर दूरसे ही कृपादृष्टि रक्से उसके द्वारा कितने गोवंशका नाश होगा और और हमेशा हमें ऐसी बुद्धि प्रदान करते रहें। कितने मूक पशुओंकी जाने जायेंगी । यह जिससे हम आपको इसी प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा कितनी बड़ी निर्भीकता है ! भला जो लोग याद करते रहें।
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जैनहितैषी
[भाग १४
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साधु-विवेक ।
(ले०-ला० दलीपसिंहजी कागजी, देहली।)
असाधु । वस्त्र रँगाते, मन न रँगाते, कपटजाल नित रचते हैं; 'हाथसुमरनी पेट कतरनी,' पर-धन-वनिता तकते हैं। आपापरकी खबर नहीं, परमार्थिक बातें करते हैं; ऐसे ठगिया साधु जगतमें, गली गलीमें फिरते हैं ॥१॥
साधु । राग, द्वेष जिनके नहिं मनमें, प्रायः विपिन विचरते हैं; . क्रोध, मान, मायादिक तजकर, पंचमहाव्रत धरते हैं। ज्ञान-ध्यानमें लीनचित्त, विषयोंमें नहीं भटकते हैं। वे हैं साधु; पुनीत, हितैषी, तारक जो खुद तरते हैं॥२॥ .
स्वदेश-सन्देश ।
(ले०-श्रीयुत भगवन्त गणपति गोयलीय।) महावीरके अनुयायी प्रिय पुत्र हमारेश्वेताम्बर, ढूंढिया, दिगम्बर-पंथी सारे। . उठो सबेरा हो गया, दो निद्राको त्याग; कुक्कुट बाँग लगा चुका, लगा बोलने काग।
अँधेरा गत हुआ।
उदयाचलपर बाल-सूर्यकी लाली छाई; उषा सुन्दरी अहो, जगाने तुमको आई। मन्द मन्द बहने लगा, प्रातः मलय समीर; सभी जातियाँ हैं खड़ी, उन्नति-नदके तीर।
लगाने डुबकियाँ ॥
उठो उठो, इस तरह कहाँ तक पड़े रहोगे,, कुटिल कालकी कड़ी धमकियाँ अरे ! सहोगे। मेरे प्यारो सिंहसे, बनो न कायर स्यार; तन्द्रामय-जीवन बिता, बनो न भारत-भार।
शीघ्र शय्या तजो॥
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अङ्क ७-८]
स्वदेश-सन्देश।
(४) मत इसकी परवाह करो क्या कौन कहेगा; तथा सहायक कौन, हमारे संग रहेगा। क्या चिन्ता तुम हो वही, जिसकी शक्ति अनन्त; जिसका आदि मिला नहीं, और न होगा अन्त ।
अटल सिद्धान्त है ॥
यद्यपि कुछ कुछ लोग, मार्ग रोकेंगे आकर; किन्तु शीघ्र ही भाग जायँगे धक्के खाकर। यदपि मिलेंगे मार्गमें, तुमको कितने शूल; पग रखते बन जायँगे, वे सबके सब फूल।
यही आश्चर्य है।
युद्ध स्वार्थ अथवा असत्यसे करना होगा; जीनेही के लिए, तुम्हें अब मरना होगा। तब न मरे अब ही मरे, मरना निस्सन्देह; अब न मरे सब कुछ रहे, रहे न केवल देह।
देह-ममता तजो॥
सुनो सुनो जो आज, कहीं साहस तुम हारे; डूबोगे यों, नहीं लगोगे कभी किनारे। तन मन धनसे देश-हित, करो प्रमाद विसार; सबके सँग मिलकर सहो, भूख-प्यास या मार।
पुनः आनन्द भी॥
पिछड़ गए हो बहुत, लड़ रहे हो आपसमें; पकड़ पकड़ रूढ़ियाँ, घोलते हो विष रसमें । ऐसा ही करते रहे, तो विनाश है पास; बस भविष्यमें देयगा, तव-परिचय इतिहास।
एक मृत-जाति कह ॥
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. जैनहितैषी- ..
[भाग १४
कदम्बवंशीय राजाओंके
जिसका उल्लेख चेरा ( chera ) के दानपत्रोंमें
पाया जाता है। क्योंकि उन पत्रोंमें जिस तीन ताम्रपत्र।
प्रकार कृष्णवर्माको महाराजा और अश्वमेधका
कर्ता लिखा है उसी प्रकार उक्त तीसरे दानपत्रमें आज हम अपने पाठकोंके सामने कदम्ब
भी लिखा है। चेरा दानपत्रोंके कृष्णवर्माका राजाओंके तीन ताम्रपत्र रखते हैं जो कि ऐतिहासिकदृष्टिसे बहुत कुछ पुराने और बड़े समय इ
समय ईसवीसन ४६६ के लगभग निश्चित है। महत्त्वके हैं। ये तीनों ताम्रपत्र, कछ अर्सा इस लिये यह तीसरा दानपत्र भी उसी समयके हुआ, देवगिरि तालका करजघी ( जि. धार- लगभगका होना चाहिये। शेष दोनों दानवाड़ ) का तालाब खोदते समय मिले थे और पत्र इससे पहलेके हैं या पीछेके, यह पूरी तौरसे इन्हें मिस्टर काशीनाथ त्रिम्बक तेलंग, एम. ए., नहीं कहा जासकता । संभवतः इनका समय . एलएल. बी. ने, रायल एशियाटिक सोसायटी- ईसाकी पाँचवीं शताब्दीके लगभग है।" इसके की बम्बईशाखाके जर्नल नं० ३४ की १२ वीं सिवाय आपने अपने अनुसंधानके अन्त में ये जिल्दमें, अपने अनुसंधानोंके साथ प्रकाशित
पंक्तियाँ दी हैं:कराया था। इनमेंसे पहला पत्र ( Plate ) ' समकोण तीनपत्रों ( Rectangular sheets ) से We may now sum up the result of our दूसरा चार पत्रोंसे और तीसरा तीन पत्रोंसे बना investigations. We kind, then, that there हुआ है। अर्थात. ये तीनों दानपत्र जिनमें were tvo branches of the Kadamba
family, one of wbich may be described as जैनसंस्थाओंको दान दिया गया है, क्रमशः Goa branch, and the other as the Vanvasi
नि पत्रों
हुए branch. It is just possible that there was हैं। परंतु प्रत्येक दानपत्रके पहले और अन्तिम
some connection between the two branches,
but we have not at present the materials पत्रका बाहिरी भाग खाली है और भीतरी पत्र tor settling the question. We kind, too, दोनों ओरसे खुदे हुए हैं। इस तरह पर इन that the princes mentioned in our plates दानपत्रोंकी पृष्ठसंख्या क्रमशः ४, ६ और ४
belong to the Vanvàsi branch, and that
.
there is not sufficient ground for refering है। प्रत्येक दानपत्रके पत्रोंमें एक एक मामूली them to a different division from the छल्ला ( Ring ) सुराखमें होकर पड़ा हुआ है Vanvasi Kadambas enumerated in Sir w. जिसके द्वारा वे पत्र नत्थी किये गये हैं। छलों Elliot's paper. We find, turther, that
these princes appear from their recorded पर मुहर मालूम होती है, परंतु वह अब मुशकि
grants to have been independent sover. लसे पढ़ी जाती है । उक्त जर्नलमें इन तीनों eigns, and not under subordination to the दानपत्रोंके प्रत्येक पृष्ठका फोटू भी दिया है Chalukya kings, as their successors were,
and that they flourished, in all probability, आर उस परस य पत्रगुप्त राजाआका लिापम और उस परसे ये पत्र गुप्त राजाओंकी लिपिमें
before the fifth century atter Ohrist. लिखे हुए मालूम होते हैं । मिस्टर काशीनाथजी, Lastly we find that there is great reason अपने अनुसंधानविषयक नोट्समें, लिखते हैं for believing that these early Kadambas
wore of the jain persuation, as we find कि, “ कृष्णवर्मा, जिसका उल्लेख यहाँ तीसरे
some of the latter Kadambas to have दानपत्रमें है, वही कृष्णवर्मा मालूम होता है been from their recorded grants.
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अङ्क ७-८]
कदम्बवंशीय राजाओंके तीन ताम्रपत्र।
२२५
इन पंक्तियोंके द्वारा, काशीनाथजीने अपने पत्र इसी क्रमसे लिखे गये हों जिस क्रमसे अनुसंधानका नतीजा निकाला है, और वह इन पर प्रकाशनके समय नम्बर डाले गये हैं। इस प्रकार है:
तीनों पत्रोंमें 'स्वामि महासेन' और 'मातृ'हमें ऐसा निश्चित हुआ है कि कदम्ब- गण' का उल्लेख पाया जाता है जिनके अनुवंशकी दो शाखाएँ थीं, जिनमेंसे एकको 'गोआ, ध्यानपूर्वक कदम्ब राजा अभिषिक्त होते शाखा और दूसरीको ‘वनवासी' शाखाके थे । जान पड़ता है 'स्वामि महासेन' कदम्ब तौर पर निरूपण किया जा सकता है। यह वशक कोई कुलगुरु थे । इसीसे राज्याभिबिलकुल संभव है कि इन दोनों शाखाओंके षेकादिकके समयमें उनका बराबर स्मरण किया मध्यमें कुछ सम्बंध था, परंतु इस समय उस जाता था। परंतु स्वामि महासेन कब हुए हैं विषयका निर्णय करनेके लिये हमारे पास आर उनका विशेष परिचय क्या है, ये सब सामग्री नहीं है । हमारा यह भी निश्चय बात अभी अधकाराच्छन्न हैं । मातृगणसे अभिहै कि जिन राजाओंका हमारे इन पत्रोंमें प्राय उन स्वर्गीय माताओंके समूहका मालूम उल्लेख है वे 'वनवासी' शाखाके थे. और होता हैं जिनकी संख्या कुछ लोग सात, कुछ यह कि उन्हें सर डबल्यू एलियटके पत्रमें आठ और कुछ और इससे भी अधिक मानते गिनाये गये वनवासी कदम्बोंसे एक मित्र हैं। जान पड़ता है कदम्बवंशके राजघराने में विभागमें स्थापित करनेकी कोई काफी वजह
. इन देवियोंकी भी बहुत बड़ी मान्यता थी। नहीं है। इसके सिवाय, हमारा निर्णय यह ।
जिन कदम्ब राजाओंकी ओरसे ये दानपत्र है कि ये राजा अपने पत्रारूढ दानोंसे स्वतंत्र !
लिखे गये हैं वे सभी ‘मानव्यस' गोत्रके सम्राट् मालूम होते हैं, न कि चालुक्य राजा. , ५५
थे, ऐसा तीनों पत्रोंमें उल्लेख है । साथ ही, ओंके मातहत ( अधिकाराधीन ), जैसा कि
पहले दो पत्रोंमें उन्हें 'हारितीपुत्र' भी लिखा उनके उत्तराधिकारी थे । और यह कि वे है । परंतु 'हारिती' इन कदम्बवंशी राजासंपूर्ण संभावनाओंको ध्यानमें लेने पर भी आकी साक्षात् माता मालूम नहीं होती, बल्कि ईसाके बाद पाँचवीं शताब्दीसे पहले हुए जान 3
- उनके घरानेकी कोई प्रसिद्ध और पूजनीया पडते हैं। अन्त में हमारी यह बजती स्त्री जान पड़ती है जिसके पत्रके तौर पर ये यहाँ इस बातके विश्वास करनेकी बहुत बड़ी समा ।
__ सभी कदम्ब पुकारे जाते थे, जैसा कि आज वजह है कि ये प्राचीन कदम्ब जैनमतानयानी कल खुर्जेके सेठोंको ‘रानीवाले' कहते हैं। थे, जैसा कि हम कछ बादके कदम्बोंको अब हम इस समुच्चय कथनके अनन्तर प्रत्येक उनके दानपत्रों परसे पाते हैं।
दानपत्रका कुछ विषद परिचय अथवा सारांश देकर इन तीनों दानपत्रोंकी बहुतसी शब्दरचना
मूलपत्रोंको ज्योंका त्यों उद्धृत करते हैं:परस्पर कुछ ऐसी मिलती जुलती है कि जिससे
+यथा:-"ब्राह्मी माहेश्वरी चैव कौमारी वैष्णवी तथा।
___ माहेंद्री चैव वाराही चामुंडा सप्तमातरः॥" एक दूसरेको देखकर लिखा गया है, यह
“ब्राह्मी माहेश्वरी चंडी वाराही वैष्णवी तथा। कहनेमें कुछ भी संकोच नहीं होता। परंतु कौमारी चैव चामुंडा चर्चिकेत्यष्ट मातरः॥ सबसे पहले कौनसा पत्र लिखा गया है, यह देखो ‘संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी' वामन शिवअभी निश्चित नहीं हो सका । संभव है कि ये राम आपटेकी बनाई हुई।
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जैनहितैषी
[भाग १४
पत्र नम्बर १-यह पत्र · श्रीशांतिवर्माके कीर्ति भोजक' दिया है और उसे परम पुत्र महाराज श्री ‘मृगेश्वरवर्मा' की तरफसे धार्मिक प्रकट किया है । इस पत्रके शुरूमें अर्हलिखा है, जिसे पत्रमें काकुस्था (स्था ) न्वयी तकी स्तुतिविषयक एक सुन्दर पद्य भी दिया प्रकट किया है, और इससे ये कदम्बराजा, हुआ है जो दूसरे पत्रोंके शुरूमें नहीं है, परंतु भारतके सुप्रसिद्ध वंशोंकी दृष्टिसे, सूर्यवंशी तीसरे पत्रके बिलकुल अन्तमें जरासे परिवर्तनअथवा इक्ष्वाकुवंशी थे, ऐसा मालूम होता है। के साथ, जरूर पाया जाता है। यह पत्र उक्त मृगेश्वरवर्माके राज्यके तीसरे वर्ष, पत्र नं० २–यह दानपत्र कदम्बोंके धर्मपौष ( ? ) नामके संवत्सरमें, कार्तिक कृष्णा महाराज 'श्रीविजयशिवमृगेश वर्मा' की दशमीको, जब कि उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र था, तरफसे लिखा गया है और इसके लेखक हैं लिखा गया है । इसके द्वारा अभिषेक, उपले- 'नरवर ' नामके सेनापति । लिखे जानेका पन, पूजन, भग्नसंस्कार ( मरम्मत ) और समय चतुर्थ संवत्सर, वर्षा (ऋतु) का आठवाँ महिमा (प्रभावना ) इन कामोंके लिये कुछ पक्ष और पौर्णमासी तिथि है । इस पत्रके द्वारा भूमि, जिसका परिमाण दिया है, अरहंत देवके ' कालवङ्ग ' नामके ग्रामको तीन भागोंमें निमित्त दान की गई है । भूमिकी तफसीलमें विभाजित करके इस तरह पर दान दिया है एक निवर्तनभूमि खालिस पुष्पोंके लिये निर्दिष्ट कि पहला एक भाग तो अर्हच्छाला परम पुष्कलकी गई है। ग्रामका नाम कुछ स्पष्ट नहीं हुआ, स्थाननिवासी भगवान् अर्हनमहाजिनेंद्रदेव"वृहत्परलूरे' ऐसा पाठ पढ़ा जाता है । अन्तमें ताके लिये, दूसरा भाग अर्हत्प्राक्त सद्धर्माचरणमें लिखा है कि जो कोई लोभ या अधर्मसे इस तत्पर श्वेताम्बर महाश्रमणसंघके उपभोगके दानका अपहरण करेगा वह पंच महा पापोंसे लिये और तीसरा भाग निग्रंथ अर्थात् दिगम्बर युक्त होगा और जो इसकी रक्षा करेगा वह इस महाश्रमणसंघके उपभोगके लिये । साथ ही, दानके पुण्यफलका भागी होगा। साथ ही इसके देवभागके सम्बंधमें यह विधान किया है कि समर्थनमें चार श्लोक भी 'उक्तं च ' रूपसे दिये वह धान्य, देवपूजा, बलि, चरु, देवकर्म, कर, हैं, जिनमेंसे एक श्लोकमें यह बतलाया है कि भग्नक्रिया प्रवर्तनादि अर्थोपभोगके लिये है, जो अपनी या दूसरेकी दान की हुई भूमिका और यह सब न्यायलब्ध है । अन्तमें इस अपहरण करता है वह साठ हजार वर्षतक दानके अभिरक्षकको वही दानके फलका भागी नरकमें पकाया जाता है, अर्थात् कष्ट भोगता और विनाशकको पंच महापापोंसे युक्त होना है । और दूसरेमें यह सूचित किया है कि बतलाया है, जैसा कि नं. १ के पत्रमें उल्लेख स्वयं दान देना आसान है परंतु अन्यके दा- किया गया है। परंतु यहाँ उन चार 'उकं च.' नार्थका पालन करना कठिन है, अतः दानकी श्लोकोंमेंसे सिर्फ पहलेका एक श्लोक दिया है अपेक्षा दानका अनुपालन श्रेष्ठ है । इन 'उक्तंच' जिसका यह अर्थ होता है कि, इस पृथ्वीको श्लोकोंके बाद इस पत्रके लेखकका नाम 'दाम- सगरादि बहुतसे राजाओंने भोगा है, जिस
समय जिस जिसकी भूमि होती है उस समय १-साठ संवत्सरों में इस नामका कोई संवत्सर नहीं उसी उसीको फल लगता है । इस पत्रमें 'चतुर्थ' है। संभव है कि यह किसीका पर्याय नाम हो या संवत्सरके उल्लेखसे यद्यपि ऐसा भ्रम होता है कि उस समय दूसरे नामोंके, भी संवत्सर प्रचलित हों। यह दानपत्र भी उन्हीं मृगेश्वर वर्माका है
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कदम्बवंशीय राजाओंके तीन ताम्रपत्र '
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जिनका उल्लेख पहले नम्बर के पत्र में है अर्थात् जिन्होंने पत्र नं० १ लिखाया था और जो उनके राज्य के तीसरे वर्ष में लिखा गया था, परंतु एक तो ‘ श्रीमृगेश्वर वर्मा' और 'श्रीविजयशिवमृगेश वर्मा' इन दोनों नामोंमें परस्पर बहुत बड़ा अन्तर है; दूसरे, पहले नम्बर के पत्रमें आत्मनः राज्यस्य तृतीये वर्षे पौष संवत्सरे, इत्यादि पदों के द्वारा जैसा स्पष्ट उल्लेख किया गया है वैसा इस पत्र में नहीं है, इस पत्रके समय निर्देशका ढंग बिलकुल उससे विलक्षण है ।' संवत्सरः चतुर्थः, वर्षा पक्षः अष्टमः, तिथिः पौर्णमासी, ' इस कथनमें ' चतुर्थ ' शब्द संभवतः ६० संवत्सरोंमेंसे चौथे नम्बर के 'प्रमोद' नामक संवत्सरका योतक मालूम होता है; तीसरे, पत्र नं० १ में दातारने बड़े गौरव के साथ अनेक विशेषणों से युक्त जो अपने काकुत्स्थान्वय ' का उल्लेख किया है और साथ ही अपने पिताका नाम भी दिया है, वे दोनों बातें इस पत्रमें नहीं हैं जिनके, एक ही दातार होनेकी हालतमें, छोड़े जाने की कोई वजह मालूम नहीं होती; चौथे इस पत्र में अर्हेतकी स्तुतिविषयक मंगलाचरण भी नहीं है, जैसा कि प्रथमपत्र में पाया जाता है; इन सब बातोंसे ये दोनों पत्र एक ही राजा के पत्र मालूम नहीं होते । इस पत्र नं० २ में श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के जो विशेषण दिये हैं उनसे यह भी पाया जाता है कि, यह राजा उभय लोककी दृष्टिसे प्रिय और हितकर ऐसे अनेक शास्त्रोंके अर्थ तथा तत्त्वविज्ञान के विवेचनमें बड़ा ही उदारमति था, नयविनय में कुशल था और ऊँचे दर्जेके बुद्धि, धैर्य, वीर्य, तथा त्यागसे, युक्त था। इसने व्यायामकी भूमियोंमें यथावत् परिश्रम किया या और अपने भुजबल तथा पराक्रमसे किसी भारी संग्राममें विपुल ऐश्वर्यकी प्राप्ति की थी;
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यह देव, द्विज, गुरु और साधुजनोंको नित्य ही गौ, भूमि, हिरण्य, शयन ( शय्या), आच्छादन (वस्त्र) और अन्नादि अनेक प्रकारका दान दिया करता था; इसका महाविभव विद्वानों, सुहृदों और स्वजनोंके द्वारा सामान्यरूपसे उपमुक्त होता था; और यह आदिकालके राजा ( संभवतः भरतचक्रवर्ती) के वृत्तानुसारी धर्मका महाराज था । " दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनोंही संप्रदायोंके जैनसाधुओंको यह राजा समानदृष्टिसे देखता था, यह बात इस दानपत्रसे बहुत ही स्पष्ट है ।
पत्र नं० ३ - यह दानपत्र कदम्बोंके धर्ममहाराज श्रीकृष्णवर्माके प्रियपुत्र 'देववर्मा ' नामके युवराजकी तरफसे लिखा गया है और इसके द्वारा ' त्रिपर्वत' के ऊपरका कुछ क्षेत्र अर्हत भगवान के चैत्यालयकी मरम्मत, पूजा और महिमा के लिये ' यापनीय' संघको दान किया गया है । पत्रके अन्तमें इस दानको अपहरण करनेवाले और रक्षा करनेवालेके वास्ते वही कसम दी है अथवा वही विधान किया है जैसा कि पहले नम्बर के पत्रसम्बंध में ऊपर बतलाया गया है । ' उक्तं च ' पद्य भी वही चारों कुछ क्रमभंगके साथ दिये हुए हैं । और उनके बाद दो पयोंमें इस दानका फिरसे खुलासा दिया है, जिसमें देववर्माको रणप्रिय, दयामृतसुखास्वादनसे पवित्र, पुण्यगुणोंका इच्छुक और एक वीर प्रकट किया है । अन्तमें अर्हतकी स्तुतिविषयक प्रायः वही पय है जो पहले नम्बर पत्रके शुरू में दिया है । इस पत्र में श्रीकृष्णवर्माको 'अश्वमेध यज्ञका कर्ता और शरदऋतुके निर्मल आकाशमें उदित हुए चंद्रमाके समान एक छत्रका धारक, अर्थात् - एकछत्र पृथ्वीका राज्य करनेवाला लिखा है ।
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जैनहितैषी
[ भाग १४
मल-Text.
यदा भूमितस्य तस्ये तदा फलं स्वदत्तां
परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां षष्ठिं वर्ष सिद्धम् जयत्यहस्त्रिलोकेशः सर्वभूतहिते रतः ।
सहस्राणि नरके पच्यते तु सः अद्भिर्दत्तं विभिरागाद्यरिहरोनन्तोनन्तज्ञानदृगीश्वरः ..
भुक्तं सद्भिश्च परिपालितं एतानि न निवर्तते स्वस्ति विजेयवैजन्त्या स्वामिमहासेनमातृग- पूर्वराजकृतानि च स्वन्दातुं सुमहच्छक्यं दुःखणानुद्ध्याताभिषिक्तानां मानव्यसगोत्राणां हारिती- मन्यार्थपालनं दानं वा पालनं वेति दानाच्छ्रेयोपुत्राणं अङ्गिरसा प्रतिकृतस्वाध्यायचर्चकानां नुपालनं सद्धर्मसदम्बानां कदम्बानां अनेकजन्मान्तरो- परमधार्मिकेण दामकीर्तिभोजन लिखितेयं पार्जितविपुलपुण्यस्कंधः आहवार्जितपरमरुचिर- पट्टिका इति सिद्धिरस्त ।।दृढसत्वः विशुद्धान्वयप्रकृत्यानेकपुरुषपरंपरागते जगत्प्रदीपभूते महत्यदितोदिते काकुस्थान्वये
(२) श्रीशान्तिवर्मतनयः श्रीमृगेशवरवा आत्मनः सिद्धम् ॥ विजयवैजयन्त्याम् स्वामिमहासेनराज्यस्य तृतीये वर्षे पौषसंवत्सरे कार्तिकमासे बहुले मातृगणानुद्ध्याताभिषिक्तस्य मानव्यसगोत्रस्य हापक्षे दशम्यां तिथौ उत्तराभाद्रपदे नक्षत्रे वृहत्परलरे रितीपुत्रस्य प्रतिकृतचचीपारस्य विबुधप्रतिबिम्बानां (?) त्रिदशर्मुकुटपरिघृष्टचारचरणेभ्यः परमाह- कदम्बानो धर्ममहाराजस्य श्रीविजयशिवमृगेशदेवेभ्यः संमार्जनोपलेपनाभ्यर्चनभग्नसंस्कारमहि- वर्मणः विजयायुरोग्यैश्वर्यप्रवर्द्धनकरः संवत्सरः मार्थ ग्रामापरदिग्विभागसीमाभ्यन्तरे राजमानेन चतुर्थः वर्षापक्षः अष्टमः तिथिः पौर्णमासी अनचत्वारिंशन्निवर्त्तनं कृष्णभूमिक्षेत्रं चत्वारिक्षेत्र. यानुपूर्व्या अनेकजन्मान्तरोपार्जितविपुलपुण्यनिवर्त्तनं च चैत्यालयस्य बहिः' एकं निवर्त्तनं स्कंधः सुविशुद्धपितृमातृवंशः उभयलोकप्रियहिपुष्पार्थ देवकुलस्याङ्गनश्च एकनिवर्त्तनमेव सर्व तकरानेकशास्त्रार्थतत्वविज्ञानविवेच्च (?) ने विपरिहारयुक्तं दत्तवान् महाराजः लोभादधर्माद्वा निविष्टविशालोदारमतिः हस्त्यश्वारोहणप्रहरणायोस्याभिहर्ता स पंचमहापातकसंयुक्तोभवति दिषु व्यायामिकीषु भूमिषु यथावत्कृतश्रमः दक्षो योस्याभिरक्षिता स तत्पुण्यफलभाग्भवति उक्तञ्च दक्षिणः नयविनयकुशलः अनेकाहवार्जितपरमबहुभिर्वसुधाभुक्ता राजभिस्सगरादिभिः यस्य यस्य दृढ़सत्वः उदात्तबुद्धिधैर्यवीर्य्यत्यागसम्पन्न: सुम
हति समरसङ्कटे स्वभुजबलपराक्रमावाप्तविपुलै१ मूलमें ऐसा ही है, यह 'वैजयन्त्या' होना श्वर्यः सम्यक्प्रजापालनपरः स्वर्जनकुमुदवनप्रबोचाहिये।
धनशशाङ्कः देवद्विजगुरुसाधुजनेभ्यः गोभूमिहिर२ इन पत्रों में यह एक खास बात है कि जहाँ ण्यशयनाच्छादनान्नादि अनेक विधदाननित्यः द्वित्वाक्षरोंका इतना अधिक प्रयोग किया गया है विद्धत्सहृत्स्वजनसामान्योपभज्यमानमहाविभवः वहाँ 'सत्व' और 'तत्व' में 'त' अक्षर द्वित्व नहीं आटिकालराजवृत्तानुसारी धर्ममहाराज: * कदकिया गया।
__ म्बानां श्रीविजयशिवमृगेशवा कालवङ्गाग्राम ३ मूलमें ऐसा ही है। ४ व्याकरणको दृष्टिसे यह वाक्य बिलकुल शुद्ध मालूम नहीं होता।
* यह बात एक वार सर्वदाके लिये बतला देनेकी ५ यह पद्य मिस्टर पीटके शिलालेख नं. ५ में है कि इन प्रतिलिपियोंमें विसर्ग उस चिह्नके स्थानमें मनुका ठहराया गया है। आम तौरपर यह व्यासका लिखा गया है जो कंट्यवर्णों (gutturals) से माना जाता है।
पहले विसर्गकी जगह प्रयुक्त हुआ है।
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अङ्क ७-८ ]
कदम्बवंशीय राजाओंके तीन ताम्रपत्र |
त्रिधा विभज्य दुत्तवान् अंत्रपूर्व्वमर्हच्छालापरम- सुमहच्छक्यं दु ( ? ): ख (म ) न्यार्त्यपालनं पुष्कलस्थाननिवासिभ्यः भगवद हन्महा जिनेन्द्रदे- दानं वा पालनं वति दानाच्छ्रेयोनुपालनं स्वदत्तां बताभ्य एकोभागः द्वितीयोर्हत्प्रोक्तसद्धर्म्मकरणपर- परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां षष्टिवर्षसहस्राणि - स्यश्वेतपटमहाश्रमणसंघोपभोगाय तृतीयो निर्ग्रनरके पच्यते तु सः श्रीकृष्णनृपपुत्रेणकदम्बकलकेन्थमहाश्रमण संघोपभोगायति अत्र देवभाग धातुना रणप्रियेण देवेन दत्ता भू (?) मिस्त्रिपर्व्वते न्यदेवपूजाबलिचरुदेवकर्मकरभग्नक्रियाप्रवर्त्तनाद्यर्थोपभोगाय एतदेवं न्यायलब्धं देवभोगसमयेन दयामृतसुखास्वादपूत पुण्यगुणेप्सुना देववम्मैकयोभिरक्षति सतत्फलभाग्भवति यो विनाशयेत्स वीरेण दत्ता जैनाय भूरियं जयत्यर्ह त्रिलोकेशः पंचमहापातकसंयुक्तो भवति उक्तञ्च बहुभिर्वसुधा सर्व्वभूतहितंकर: रागायरिहरानन्तोनन्तज्ञानभुक्ता राजभिस्सगरादिभिः यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदाफलं नरवरसेनापतिना लिखिता - ( ३ )
दृगीश्वरः
'विजयत्रिपर्व्वते स्वामिमहासेनमातृगणानुद्ध्याताभिषिक्तस्य मानव्यसगोत्रस्य प्रतिकृतस्वाध्याय
पारस्य आदिकालराजर्षिबिम्बानां आश्रितजनाम्बानां कदम्बानां धर्ममहाराजस्य अश्वमेधयाजिनः समरार्जित विपुलैश्वर्यस्य सामन्तराजीवेशेषरत्न सुनागजिनाकम्पदायानुभूतस्य (?) शरदमलनभस्युदितशशिसदृशैकातपत्रस्य धर्ममहाराजस्य श्रीकृष्णवर्म्मणः प्रियतनयो देववर्मयुवराजः स्वपुण्यफलाभिकांक्षया त्रिलोकभूतहितदेशिनः धर्मप्रवर्त्तनस्य अर्हतः भगवतः चैत्यालयस्य भग्नसंस्कारार्च्चनमहिमार्थं यापनीयसंङ्गेभ्यः सिद्ध केदारे राजमानेन द्वादश निवर्त्तनानि क्षेत्रं दत्तवान् योस्य अपहर्त्ता स पंचमहापातक संयुक्तो भवति यस्याभिरक्षिता ( १ ) स पुण्यफलमश्रुते ' उक्तं च बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजमिस्सगरादिभिः यस्य यस्य यदाभूमिस्तस्यतस्य तथा ( 1 ) • फलं अद्भिर्द्दत्तं त्रिभिर्युक्तं सद्भिश्व परिपालितं एतानि न निवर्त्तन्ते पूर्वराजकृतानि च स्वं दातुं
१ मूलमें ऐसा ही है । 'शुद्ध पाठ 'चर्चा' होना चाहिये । २ यह अक्षर 'स' मूलमें नहीं है जो निःसन्देह खोदने से रह गया है । ३ मूलमें यह ' रन्धिता सा मालूम होता है ।
इन तीनों दान पत्रों पर से निम्मलिखित ऐति-हासिक व्यक्तियों का पता चलता है:
२२९
१ स्वामिमहासेन -
-- गुरु ।
२ हारिती - मुख्य और प्रसिद्ध स्त्री । ३ शांतिवर्मा- - राजा ।
४ मृगेश्वर वर्मा -
५ विजयशिवमृगेशवर्मा - महाराजा । ६ कृष्णवर्मा - महाराजा । ७ देववर्मा - युवराज ।
८ दामकीर्ति - भोजक । ९ नरवर – सेनापति ।
- राजा ।
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इन व्यक्तियोंके सम्बंध में यदि किसी विद्वानन् भाईको, दूसरे पत्रों, शिलालेखों अथवा ग्रंथप्रशस्तियों आदि परसे, कुछ विशेष हाल मालूम हो तो वे कृपाकर हमें उससे सूचित करनेका कष्ट उठावें जिससे एक क्रमबद्ध जैन इतिहास तय्यार करनेमें कुछ सहायता मिले |
सरसावा | ता० १८ जुलाई सन् १९२० ।
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२३०
जैनहितैषी -
पुस्तक- परिचय |
१ जैनसाहित्यसंशोधक । यह वही त्रैमा सिक पत्र है जिसके निकाले जानेके विचारॉकी सूचना एक आवेदन पत्रद्वारा, जो जैनहितैषी अंक नं० २-३ के साथ बँटा है, दी गई थी । अब यह पत्र पूनासे निकलना प्रारंभ हुआ है । विद्वद्वर मुनि जिनविजयजी - इसके संपादक हैं । अभी इसका पहला ही अंक प्रकाशित हुआ है और वही इससमय हमारे सामने है | इस अंकको देखनेसे मालूम होता है कि यह पत्र 'सरस्वती' के आकार में १२४ पृष्ठों पर निकाला गया है । प्रेस ऐक्टके अनुसार सरकारसे डिक्लेरेशन लेनेकी दिक्कतके कारण, अभी इसे त्रैमासिकका रूप न देकर एक ' निबंधसंग्रह ' का रूप दिया गया है । इससे, यद्यपि यह पत्र नियतकालिक नहीं रहता तो -भी सालमें इसके चार अंक यथावसर जरूर निकाले जायँगे; इसीसे इसका वार्षिक मूल्य ५) रु० और प्रत्येक अंकका १ | | ) रुपया रक्खा गया है । इस अंक के साथमें दो सुन्दर चित्र भी लगे हुए हैं, जिनमें से महावीर भगवानकी निर्वाणभूमि पावापुरीका रंगीन चित्र बड़ा ही चित्ताकर्षक और मनोमोहक मालूम होता है, दूसरा चित्र चितौड़गढ़ के किसी प्राचीन जैनकीतिस्तंभका फोटो है जो संभवतः दिगम्बर सम्प्रदायका है । पत्र में इन दोनों चित्रोंका कोई परिचय विशेष नहीं दिया जिसके दिये जाने की जरूरत थी । ये दोनों चित्र आराके श्रीयुत कुमार देवेंद्रप्रसादजीने अपने खर्चसे तयार कराकर पत्रको भेट किये हैं। इस अंकमें प्रायः चार लेख हिन्दीके, चार गुजरातीके और दो अंग्रेजीके, इस तरह तीन भाषाओंके प्रायः - इस लेख हैं । लेख प्रायः सभी अच्छे, पढ़ने
[ भाग १४
और विचार किये जानेके योग्य हैं । ' हरिभद्रसूरिका समयनिर्णय' नामका हिन्दी लेख बड़े महत्त्वका है, अनेक ऐतिहासिक बातोंको लिये हुए है और बहुत कुछ परिश्रम तथा परिश्रम के साथ लिखा गया है । वास्तव में यह लेख उस संस्कृत निबंधका अनुवाद जान पड़ता है जिसे मुनि जिनविजयजीने, गत नवम्बर मासमें होनेवाली, पूनाकी ओरियंटल कान्फरेंसके सामने पढ़ा था और जो अब चार आने मूल्यमें उक्त पत्रके आफिससे मिलता है । अथवा यह भी संभव है कि पहले यह लेख हिन्दीमें ही तय्यार हुआ हो और फिर इसीका संस्कृत अनुवाद उक्त कान्फरेंसमें पढ़ा गया हो । कुछ भी हो, मुनिजीने पत्रमें इस विषयका कोई नोट नहीं दिया। दूसरा विस्तृत हिन्दी लेख ' सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समंतभद्र ' के विषयका वह है जो जैनहितैषी के पिछले कई अंकों में प्रकाशित हो चुका है। तीसरा हिन्दी लेख ' हरिषेणकृत कथाकोश ' हितैषीके इस अंकमें उद्धृत किया जाता है। गुजराती लेखों में डाक्टर हर्मन जैकोबीकी लिखी हुई 'कल्पसूत्रकी प्रस्तावना ' का अनुवाद, और पं० बेचरदास जीवराजजी न्याय - व्याकरणतीर्थका लिखा हुआ 'जैनागमसाहित्यकी मूल भाषा क्या थी और अर्धमागधी किसे कहते ' इस आशयका लेख, ये दोनों ही लेख खास तौरपर ध्यानके साथ पढ़े जाने और विचार किये जानेके योग्य हैं । हमारे खयाल में पत्र बहुत अच्छा है और छपाई, सफाई और कागज की दृष्टिसे भी कुछ बुरा नहीं है । ऐसे एक पत्रकी जैनसमाजमें बड़ी जरूरत थी । आशा है इस पत्रके द्वारा जैनइतिहासकी बहुतसी त्रुटियाँ दूर होंगी, अनेक नई नई बातें मालूम होंगी, प्राचीनसाहित्यकी खोज होगी और साथ ही, तत्त्वज्ञान पर भी कुछ अच्छा प्रकाश पड़ेगा | इतिहास -
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पुस्तक-परिचय।
अङ्क ७-८]
२३१ प्रेमी और नये नये अनुसंधानोंको जाननेके ३ श्रीशारदा-सचित्र मासिकपत्रिका । इच्छुक प्रत्येक दिगम्बर और श्वेताम्बर संपादक, साहित्यशास्त्री पं० नर्मदाप्रसाद मिश्र, जैनी भाईको इसका ग्राहक होकर संपा- बी. ए., विशारद । मूल्य, ५) रु० वार्षिक, दक तथा प्रकाशकके उत्साहको बढ़ाना मिलनेका पता, प्रबंधक 'श्रीशारदा,' दीक्षितचाहिये । अजैन विद्वान् भी इससे बहुत कुछ पुरा, जबलपुर । लाभ उठा सकते हैं । मँगानेका पता-मैनेजर यह पत्रिका हालमें नई प्रकाशित होनी शुरू 'जैनसाहित्यसंशोधक' ठि० भारत जैन- हुई है। अभी तक इसके चार अंक निकले हैं। विद्यालय, फर्गुसन कालिज रोड, पूना सिटी है। आकार इसका 'सरस्वती' जैसा और पृष्ठसंख्या अन्तमें हम इतना निवेदन कर देना उचित ६८ के करीब है। इसमें हिन्दीके अच्छे अच्छे समझते हैं कि इस पत्रमें संपादकीय विचार प्रसिद्ध विद्वानोंके लेख निकलते हैं। प्रत्येक हिन्दीमें प्रकट होने चाहियें और साथ ही शुद्ध अंकमें अधिकांश लेख बहुत कुछ उपयोगी, छपनेकी ओर कुछ अधिक ध्यान रखे जानेकी पढ़ने तथा विचारनेके योग्य होते हैं। हिन्दीकी जरूरत है।
इसे उच्चकोटिकी पत्रिका समझना चाहिये। २ जैसवाल जैन । मासिकपत्र । सम्पादक
यदि यह बराबर चलती रही तो इसके द्वारा महेन्द्र । मूल्य, १) रु० वार्षिक । मिलनेका पता,
हिन्दी संसारका बहुत कुछ उपकार होना संभव
' है। हिन्दी भाषाके प्रेमियोंको इसे जरूर अपजैसवाल जैन कार्यालय, मानपाड़ा, आगरा। नाना चाहिये।
यह पत्र भारतवर्षीय जैसवाल जैन सभाका ४ वैद्य-मासिकपत्र । संपादक, वैद्य शंकरमुखपत्र है और कोई ढाई सालसे जारी है। लालजी (जैन)। मूल्य, ११) रु० वार्षिक । मिल तीसरे सालका पहला संयुक्त अंक नं० १-२ नेका पता, वैद्य शंकरलाल हरिशंकर, आयुर्वेदोइस समय, हमारे सामने है, बादके अंक शायद द्धारक औषधालय, मुरादाबाद। अभी तक प्रकाशित नहीं हुए। इस अंकके लेख यह अपने विषयका एक अच्छा पत्र है और पिछले सालके अंकोंकी अपेक्षा अच्छे हैं कई वर्षसे जारी है। समय समय पर इसमें
और अनेक विद्वानोंके लिखे हुए हैं। संपादक अनेक रोगोंकी ओषधियोंके नाना वैद्योंद्वारा महाशयने इस अंकको खास अंकके तौर पर किये हुए अनुभूत तथा परीक्षित प्रयोग भी निकालनेका विचार प्रकट किया था और ऐसा निकला करते हैं जिनसे पाठक बहुत कुछ लाभ लिखकर कुछ विद्वानोंको लेख भेजनेकी प्रेरणा उठा सकते हैं। कविताएँ भी इसमें अपने ही भी की थी। परंतु किसी वजहसे फिर वे इसे विषयकी मनोरंजक रहती हैं । इस वर्षका चौथा खास अंकके तौर पर नहीं निकाल सके । अस्तु अंक इस समय हमारे सामने है। इसके प्रायः यह पत्र जैसवाल जैनोंकी उन्नतिके लिये बहुत सभी लेख पढ़नेयोग्य हैं, खासकर शिशुका कुछ प्रयत्नशील रहता है, अतः हमारे जैसवाल प्राकृतिक खाद्य और मानसिक रोग नामके भाईयोंको खास तौरसे इसका ग्राहक होना लेख 'स्वास्थ्य-सर्वस्व' नामकी कविता भी अच्छी चाहिये और इस तरह अपने जातीयपत्रके है, जिसका प्रथम पद्य इस प्रकार है:उत्साहको बढ़ाकर उन्नतिमें अग्रसर होनेके लिये सुखसम्पतिसे भरा सदन है, वर वैभव है । सहायता देनी चाहिये।
प्रभुता है, पाण्डित्य, प्रशंसा, गुणगौरव है ।।
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२३२
सुर-दुर्लभ बहुमूल्य भवनमें भोग भरें हैं ॥ हैं सब निष्फल, जो शरीरमें रोग भरे हैं ॥ परिणत होगी कार्यमें, तभी शास्त्रकी योग्यता । धर्म, अर्थ, कामादिप्रद, जो होगी आरोग्यता ॥
जैनहितैषी -
५ गुणस्थानक्रमारोह, सानुवाद । लेखक, श्रीयुत मुनि तिलकविजयजी । प्रकाशक श्री आत्मतिलक - ग्रंथ - सोसायटी, रतनपोल, अह मदाबाद | पृष्ठसंख्या, २०० । मूल्य, बारह आने ।
यह मूल ग्रंथ अपने विषयका एक छोटासा - १३६ पर्योका - संग्रहग्रंथ है जिसे श्रीरत्नशेखर सूरि नामके श्वेताम्बर आचार्यने अनेक प्राचीन ग्रंथों परसे उद्धृत करके बनाया है । ग्रंथका विषय उसके नामसे ही प्रकट है । इसमें १४ गुणस्थानोंका संक्षेपसे स्वरूपवर्णन किया गया है । मूलकी भाषा संस्कृत और अनुवादकी भाषा हिन्दी है | अनुवादक हैं मुनि तिलकविजयजी पंजाबी | आपने अनुवाद के साथ साथ अपनी व्याख्याएँ लगाकर ग्रंथकी उपयोगिताको बहुत कुछ बढ़ानेका यत्न किया है । इन व्याख्याओंमें ही आपने श्रावकके बारह व्रतों, चार प्रकारके ध्यानों और १४ मार्गनाओंका भी कुछ विस्ता रके साथ वर्णन कर दिया है जो मूलमें नहीं है । अनुवाद प्रायः अच्छा हुआ है और सुबोध भाषामें लिखा गया है । छपाई, सफाई और कागज भी सब अच्छे हैं । सुन्दर जिल्द बँधी हुई है । परंतु छपनेमें अनेक स्थानोंपर कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं । बाईसवें श्लोक में ' त्रितुवा' का अर्थ ' अथवा चतुर्थ भवमें ऐसा किया गया है जो ठीक नहीं, उसमें चतुर्थसे पहले ' तृतीय' शब्द और आना चाहिये था । हमारे खयालमें इस प्रकारकी अशुद्धियाँ भी छापेकी ही अशुद्धियाँ मालूम होती हैं। इनके सिवाय पुस्तक में उर्दू फार्सीके शब्दों के कुछ अशुद्ध प्रयोग भी पाये जाते हैं, जैसे नसा, होस, याने, दानत, पेस इत्यादि । पुस्तक में
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[ भाग १४
विषय सूची नहीं लगाई गई जिसका लगना बहुत जरूरी था । इसी तरह श्लोकानुक्रमणिका भी नहीं है । फिर भी पुस्तक उपयोगी, पढ़ने और संग्रह किये जानेके योग्य है । साथमें, मुनि तिलकविजय और वल्लभविजयजीके दो फोटू भी हैं ।
६ परिशिष्ट पर्व, प्रथम व द्वितीय भाग । मूल्य, प्रथम भाग बारह आने, द्वितीयभाग आठ आने । मिलनेका पता, ' श्री आत्मतिलक - ग्रंथ - सोसायटी, अहमदाबाद ।'
पंजाबी हैं । यह श्वेताम्बराचार्य श्री हेमचंद्र के इस पुस्तक के लेखक भी मुनि तिलकविजयजी 6 परिशिष्ट पर्व ' नामक संस्कृत ग्रंथका अनुवाद है । अनुवाद के साथमें मूल लगा हुआ नहीं है और न मूलसे अनुवादको जाँचनेका हमें अवसर मिला । पुस्तकमें श्वेताम्बर सम्प्रदायानुसार, महावीरस्वामी के बाद होनेवाले खास आचार्योंका जम्बूस्वामी आदि खास जीवनचरित्र है । इतिहासकी दृष्टिसे पुस्तक अच्छी पढ़ने और संग्रह किये जानेके योग्य है। इस पुस्तक के साथ भी विषयसूची लगी हुई नहीं है । पहले भाग में मुनि तिलकविजय और उनके गुरु मुनि ललितविजयजीके दो सुन्दर फोटू लगे हुए हैं ।
७ मकली और असली धर्मात्मा । यह हिन्दी भाषामें लिखी हुई २०० साधारण पृष्ठकी पुस्तक समाजके चिरपरिचित विद्वान बाबू सूरजभानजी वकीलकी बनाई हुई है, ' सत्योदय ' मासिकपत्रके उपहार में बाँटी गई है,
और इस समय बाबू चंद्रसेनजी जैन वैद्य इटावा के पाससे आठ आने मूल्यमें मिलती है । पुस्तक में कुछ औपन्यासिक ढंगसे, एक कथाके रूपमें, नकली और असली धर्मात्माओंका चित्र खींचा गया है । चित्र एक नहीं
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अङ्क ७-८]
हिन्दी ज्ञानार्णव । अनेक हैं और वे सब बड़े ही हृदयग्राही तथा सत्य- हिन्दी ज्ञानार्णव । प्राय मालूम होते हैं। बाबू साहब सामाजिक घटनाओंका चित्र खींचनेमें बहुत कुछ सिद्धहस्त हैं । उनका यह चरित्र-चित्रण निःसन्देह अच्छा हुआ है। अलीगंज जि० एटासे बाबू कामताप्रसादजी धर्मात्मापनेकी कुछ रजिष्टर्ड-नुमायशी क्रिया- पी० जैन लिखते हैं कि मैं स्थानीय मंदिरजीमें ओंको करनेवाले कैसे कैसे बेईमानी और अधर्मके शास्त्रोंके कुछ अस्तव्यस्त पत्रोंको देख रहा था, काम किया करते हैं उनका इस पुस्तकमें अच्छा तो उनमें एक पत्र पर अत्यंत ही मनोहर, भावदिग्दर्शन कराया गया है । आजकल ऐसे ही नकली पूर्ण-परंतु कठोर छंदोंको संकलित देखा । प्रारंधर्मात्माओंका आधिक्य है-साथ ही, उक्त भमें लिखा हुआ है 'हिन्दी ज्ञानार्णवके छंद;' क्रियाओंको न करते हुए भी, असली धर्मात्मा- फिर सवैया ३१ सा और दोहोंमें वृद्धाधिकार
ऑकी परिणति शील-शांति-संतोषपूर्वक कैसी सम्यग्ज्ञानाधिकार आदि विषयों पर कविता है; ईमानदारीको लिये हुए, सत्यनिष्ठ, निष्कपट और अन्तमें लेख है कि “मिती आस्विनसुदी ३ दया तथा प्रेममय होती है, यह भी दर्शाया है। जीवालालने सं० १८६५ वि० में लिखा ।" यद्यपि यह पुस्तक खास जैनियोंको लक्ष्य करके इससे मालूम होता है कि हिन्दीमें भी 'ज्ञानार्णव' लिखी गई है और दूसरोंकी तरफ सिर्फ कुछ नामका कोई ग्रंथ बना है जिसपरसे जीवालालने इशारा ही किया गया है, तो भी दूसरे धर्मावलम्बी अपनी रुचि तथा आवश्यकताके अनुसार कुछ इससे बहुत कुछ शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। छंदोंको उक्त पत्र पर उध्दृत कर रखा था। अच्छा होता यदि दूसरे धर्मके धर्मात्माओंके भी यह ग्रंथ कब बना है और किसने बनाया है, इसमें खास खास चित्र रहते और इसे एक अच्छे इन बातोंका उक्त पत्र परसे कोई पता नहीं चित्रालयका रूप दिया जाता । अस्तु, पुस्तक चलता। हाँ, इतना पता जरूर चलता है कि उपयोगी, सब स्त्रीपुरुषोंके पढ़ने और संग्रह किये ग्रंथ वि० सं० १८६५ से पहलेका बना हुआ जानेके योग्य है । छपाई पुस्तककी कुछ अच्छे हैं। बाबूसाहब लिखते हैं कि “यहाँ पर ऐसा ढंगसे नहीं हुई, उसमें बहुतसी अशुद्धियाँ भी पाई कोई ग्रंथ नहीं है और न मेरे सुननेमें ही कोई जाती हैं और साथ ही कागज भी घटिया लगाया हिन्दी ज्ञानार्णव नामक ग्रंथ आया है ।” अस्तु; गया है। आशा है दूसरी आवृत्तिमें इस प्रकारकी हमारे खयालमें यह वही छंदोबद्ध ज्ञानार्णव त्रुटियोंके दूर करनेका यत्न किया जायगा। होगा जो जैनसिद्धान्तभवन आराकी, हस्तलि
८एक आदर्श जीवन । ले०,पं० कन्हैयाला- खित भाषाग्रंथोंकी, सूचीमें नं० २३७ पर दर्ज लजी जैन, कस्तला। प्रकाशक,श्री आत्मानंद जैन है। सूचीमें ग्रंथकर्ताका नाम लक्ष्मीचंद, पत्रट्रेक्ट सोसायटी, अम्बालाशहर । मूल्य, एक आना। संख्या १११, श्लोकसंख्या . ३०००, और ___ इस पुस्तकमें सम्राट अकबर द्वारा पूजित श्वेता- लिपिकाल सं० १८६९ दिया है । वाबूसाहबने म्बराचार्य श्रीहीरविजयसूरिका ७६ पद्योंमें संक्षिप्त उक्त पत्र परसे, जिन छंदोंको उद्धृत करके
जीवन वृत्तांत है। रचना प्रायः अच्छी है और हमारे पास भेजनेकी कृपा की है और जिन्हें । पुस्तक पढ़ने योग्य है । कहीं कहीं कुछ अशुद्धियाँ हम अपने पाठकोंके परिज्ञानार्थ नीचे प्रकट करते जरूर पाई जाती हैं जिनसे छंदोभंग हो गया है। हैं उनमें स्त्रीवर्णनसम्बंधी एक दोहेमें 'चंदबुद्धिकी
संपदा' ये शब्द आये हैं । इनसे कविने अपना
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२३४
नाम ' लक्ष्मीचंद ' सूचित किया है, ऐसा ध्वनित होता है । और इस लिये दोनों ग्रंथ एक ही जान पड़ते हैं । परंतु इसका विशेष निर्णय निम्नपद्योंको उक्त ग्रंथमें देखने से हो सकता है । आशा है कि आरके कोई भाई या दूसरे किसी स्थानके भाई जहाँ छंदोबद्ध ज्ञानार्णव ग्रंथ हो, इस विषयका स्पष्टीकरण करनेकी कृपा करेंगे ।
यहाँ बाबू साहबके भेजे हुए उक्त पत्रके पयों को देने से पहले हम अपने पाठकोंपर इतना और प्रकट किये देते हैं कि इन पद्योंपरसे यह ग्रंथ श्रीशुभ चंद्राचार्य के संस्कृत ज्ञानार्णवका अनुवाद मालूम नहीं होता । संभव है कि उसका आशय लेकर यह ग्रंथ हिन्दी के नाटक समयसारकी तरह स्वतंत्र रचा गया हो । ग्रंथके देखने पर इन सब बातोंका भले प्रकार निर्णय हो सकता है:
जैनाहितैषी
-
वृद्धसेवा । सवैया ३१
“ त्यागु त्यागु संगकौं अनंगकौ अंदोह (?) जहां, -मुंच मुंच कुप्रपंच मोह- उरझाव रे । जानि जानि एक तत्व आतमीक नीके करि, एकमेक रमि रहु चारितके चाव रे ॥ सुनिसुनि सीख गुरु जिनकी समाधि भजि, तजि तजि विषयविकारकौ विभाव रे । करु करु एक पुरुषारथ मुकतिहेतु, देख देख निजरूप कैसो है रे वावरे ॥ १॥ दोहा -
सुखनिधान विज्ञानघन, विगतविश्वपरचार । आपुनहीते पाइए, प्रीतमतत्वविचार ॥
स्त्रीवर्णन । सवैया ३१
" जाति है न निंद्य कहूँ, निंद्य है कुचालि चालि, सारी हैं न नारी बुरी बुरी ये बुरी कहीं । दूषन है कोऊ कुलभूषन है कोऊ तातें, भूषन दूषनकौ संग एह है मही । भवभीतहारी सबश्रुतज्ञानधारी, जो ये निंदीं साधु नारी तोक बढ़ाबड़ी है नहीं ।
शील सावधान, संयमसहित ज्ञान नाहीं (?) नहीं निंदनीक ++ ऐसी वानी है सही ॥
[ भाग १४
दोहा
यह सरूप लखिया लख्यौ, नारि सुभासुभ जाति । चंदबुद्धिकी संपदा, ताहीको नियरात ॥ " सम्यकज्ञानमहिमा । सवैया ३१
दुति तिमिरको दिनेस यौं जिनेस क मोक्ष इंदिराकौ, यहै इंदीवर (?) एक है । मदन महाभुजंग मंत्र साँचौ जगमांहि, चित्त गज समनकों सिंह याकौ कै कहैं ॥ व्यसन सघन [ घन ] मथन समीरसम जगतत्व देखिवेकौ दीपक विवेक है । विषय सफर जाल कालको विसाल साल, साधु साधु ज्ञान एक आतमीक टेक है ॥ याही जग कक्षमें विपक्ष जगजीवनको, तक्षक कीनास विष व्यापि रह्यो जनमें । क्रोध ऊंचे सैलसम कुटिल सरितगति पतन यतन विनु होत भव वनमें ॥ विषई विरंध (3) फिरैं विधुरित प्रानीगन, तौल जौलौं ज्ञानभानु प्रघटै न मनमें । लवधि विमल ज्ञान विमल प्रमान रहे, राते सुख आतमीक संपति के गनमें ॥ दोहा
सुखद दसा सारी चहै, वंछित चितकौ आप | साधु एक तू ज्ञान गुन तजिके और कलाप । " [ क्रोधवर्णन ] सवैया
" द्वारिकाको दाह कीनो द्वीपाइन क्रोधवस, यादव जराये सारे पाप न विचान्य है । आप पर दोऊ कोऊ पावें अपकार एहु, साथ हौ अनादिके या चेतन उचान्यो है ॥ पापको संतापीको मिलापी है नरक देन, याही महंत जन नातो तोरि डायो है । तातें समसेवी जीव क्रोधक निवारि दूरि, आगम अभ्यासें जीवैं भ्रमको निवाय है । दोहा
क्रोधअमिकों एक ही, उपसावने समर्थ । क्षमानदी सम जलभरी न रहे त्रषा अनर्थ ॥”
'
८८
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अङ्क ७ ८]
धर्म और समाज। धर्म और समाज। युगमें पश्चिमनिवासियोंकी यदि धर्म पर वह
श्रद्धा नहीं है जो उनके पूर्वजोंकी थी तो Ne:
वह सकारण है । यद्यपि पूर्वापेक्षा अब उनके (प्रतिभासे उद्धृत।)
धर्मका भी बहुत कुछ संस्कार हो गया है
और शिक्षाकी उन्नतिके साथ साथ जिसमें समाजके लिए धर्मकी आवश्यकता है या
यूरोप और अमेरिकाने सबसे अधिक भाम - नहीं ? इस प्रश्न पर कुछ अपने विचार प्रकट
लिया है, उनके धर्ममें भी सहिष्णुता, स्वत• करना ही आज इस लेखका उद्देश है । प्राचीन
न्त्रता और उदारताकी मात्रा बढ़ गई है, और नवीन अथवा पूर्व और पश्चिम इन दोनोंके
तथापि धर्मवादके परिणामस्वरूप जो कड़वे फल संघर्षसे यह प्रश्न उत्पन्न हुआ है । पूर्वी सभ्यता उनको चखने पटे हैं उन्होंने उनको धर्मकी सदासे धर्मकी पक्षपातिनी रही है और उसने
सीमा नियत कर देनेके लिए बाधित किया, धर्मको समाजमें सबसे ऊँचा स्थान दिया है।
तदनुसार उन्होंने धर्मकी अबाध सत्तासे अपने पश्चिमी सभ्यता इस समय चाहे उसकी विरो
समाजको मुक्त कर दिया । अब वहाँ यही नहीं धिनी न हो, पर उससे उदासीन अवश्य है
। उसस उदासान अवश्य है कि समाजकी शासन-सत्तामें धर्म कुछ विक्षेप और कमसे कम समाजकी उन्नतिके लिए नहीं डाल सकता, किन्तु व्यक्तिस्वातन्त्र्य और वह उसे आवश्यक नहीं समझती । उसकी
सामाजिक प्रबंधमें भी कुछ हस्तक्षेप नहीं कर सम्मतिमें बिना धर्मका आश्रय लिए भी नैतिक
सकता और बहुतसी बातोंके समान धर्म भी बलके सहारे मनुष्य अपनी वैयक्तिक और सामा
- एक व्यक्तिगत बात मानी जाती है, जिसका जी जिक उन्नति कर सकते हैं।
चाहे. किसी धर्मको माने. न चाहे न माने । यद्यपि पहले पश्चिम भी धर्मका ऐसा ही माननेसे कोई विशेष स्वत्व पैदा नहीं होते, न अनन्य भक्त था जैसा कि इस समय भारतवर्ष । माननेसे कोई हानि नहीं होती। पर मध्यकालमें कई शताब्द तक वहाँ धर्मके कारण बड़ी अशांति मची रही । धर्ममदसे
___ यह तो रही पश्चिमकी धार्मिक अवस्था, अब उन्मत्त होकर समाजने बड़े बड़े विद्वानों और
र रहा पूर्व । यद्यपि पूर्व में सर्वत्र ही धर्मका प्राधान्य संशोधकोंके साथ वह सलूक किया जो लुटेरे
है तथापि भारतवर्षमें तो उसका एकाधिपत्य मालदारोंके साथ करते है । ५० वर्ष तक लगा
राज्य है । यद्यपि यहाँकी शासनसत्ता पश्चिमी तार जारी रहनेवाला यूरोपका धर्मयुद्ध प्रसिद्ध
लोगों के हाथमें होनेसे अब उसमें वह हस्तक्षेप ही है। इसलामने जो सलूक ईसाइयोंके साथ
नहीं कर सकता, तथापि भारतीय समाजोंमें किया उसको जाने दीजिए, क्योंकि वह
और उनकी विविध शाखाओंमें उसका अप्रतिएक भिन्न धर्म था। ईसाई धर्मकी ही दो
बन्ध अधिकार है। हम जन्मसे लेकर मृत्युपशाखाओंने, जिनका नाम कैथलिक और प्रोटे यन्त चाहे किसी दशामें रहें, कुछ करें, धार्मिक स्टेन्ट है, एक दूसरेके साथ जैसे जैसे अत्या- बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकते। चार और अमानुषिक बर्ताव किये हैं उनपर हमको केवल अपने पूजा-पाठ या संस्कारोंमें अब तक यूरोपका इतिहास रुधिरके आँसू बहा ही धर्मकी आवश्यकता नहीं किन्तु हमारा हर रहा है। इसलिए अब सभ्यता और उन्नतिके काम चाहे वह सामाजिक हो या व्यक्तिमत धर्मके
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बन्धनसे जकड़ा हुआ है । यहाँतक कि हमारा खाना पीना, जाना आना, सोना, जागना और देना लेना इत्यादि सभी बातोंमें धर्मकी छाप लगी हुई है । हम हिन्दू होकर सब कुछ छोड़ सकते हैं पर धर्मको किसी अवस्थामें भी नहीं छोड़ सकते । हमारे पूर्वज धर्मको ही अपना जीवन सर्वस्व मानते थे और यही उपदेश शास्त्रों में वे हमको भी कर गये हैं । मनु लिखता है: -
जैनहितैषी -
धर्मएव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः । तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मानोधर्मो हतोऽवधीत् ॥
प्राचीन आर्य लोग धर्मको केवल परलोकका ही साधन नहीं मानते थे, किन्तु इसलोकका बड़ेसे बड़ा सुख भी धर्मके बिना उनकी दृष्टिमें हेय था । त्रिवर्गमें जिसका सम्बन्ध संसारसे है, धर्म ही सबसे पहला और मुख्य माना गया है । कणाद तो अपने वैशेषिक दर्शनमें अभ्युदयकी नींव भी धर्मपर ही रखता है । यथाः
येतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ।
अतएव हम अपने शास्त्रोंको मानते हुए और पूर्वजों पर श्रद्धा रखते हुए किसी दशामें मी धर्मकी उपेक्षा नहीं कर सकते ।
पश्चिमकी शिक्षाका प्रभाव जिन लोगों पर पड़ा है, वे चाहे हमारे स्वदेशी बान्धव ही क्यों न हों, हमको भी यह सलाह देते हैं कि हम भी यदि इस जातीय उन्नतिकी दौड़में भाग लेना चाहते हैं तो धर्मकी कोई ऐसी सीमा नियत कर दें, जिससे आगे यह अपने पैर न फैला सके । • उनका यह कथन है कि जबतक हमारे हरएक काममें धर्मका पचड़ा लगा हुआ है, हम समयकी गति के साथ नहीं चल सकते और न अपना
१ जैनाचार्य श्रीसोमदेवसूरिने अपने नीतिवाक्या मृत में भी धर्मका लक्षण इन्हीं वाक्योंमें दिया है । -सम्पादक ।
[ भाग १४
कोई जातीय आदर्श बना सकते हैं। जो लोग " हमको यह सलाह देते हैं, हम उनके सद्भावमें कोई संदेह नहीं कर सकते और यह भी हम मानते हैं कि देशहितकी प्रेरणा से ही यह सलाह हमको देते हैं । पर हाँ यह हम अवश्य कहेंगे कि वर्तमान धार्मिक अवस्थाके विकृत स्वरूपको देख कर और हमारे धर्मके वास्तविक तत्त्व पर गम्भीर दृष्टि न डाल कर ही यह सम्मति दी जाती है। यदि धर्मको उसके वास्तविक रूप में देखा जाय तो वह कदापि उपेक्षणीय नहीं हो सकता । यद्यपि विदेशियोंके संसर्गसे या हमारे दौर्भाग्यसे यहाँ भी धर्मका विधेय वह नहीं रहा, जो प्राचीन कालमें था । हमें यह कहने में कुछ भी संकोच नहीं हैं कि सभ्यताके आदि गुरु आर्योंका धर्म मतवाद से सर्वथा पृथक् है /
इस मतवादको धर्म समझनेका यूरोपमें यह परिणाम कि वह राजनैतिक और सामाहुआ जिक क्षेत्रसे ही अलग नहीं किया गया किन्तु मानसिक और नैतिक उच्चभावोंकी रीति के लिए. भी अनावश्यक समझा गया । उसका सम्बन्ध केवल उपासनालयोंसे रह गया और वह भी रविवार के दिन घंटे दो घंटे के लिए । बहुतसे स्वतन्त्रता देवीके उपासक तो इससे भी मुक्त हो गये। हम उनकी बुद्धिमत्ताकी प्रशंसा करते हैं । यदि वे ऐसा न करते और हमारी तरहसे अपनी विचारशक्तिको कल्पनाशक्तिके अधीन कर देते तो आज उनके देशमें विद्या और बुद्धिका यह विकास, कलाकौशलकी यह उन्नति और उद्योग तथा व्यवसायका यह प्रभाव देखने में न आता । यदि हमारे धर्म की भी ऐसी ही व्यवस्था हो औरवह वास्तवमें मतवादका प्रवर्तक हो, तब तो हमको भी कृतज्ञता के साथ उनकी यह सलाह मान लेनी चाहिए और यदि ऐसा नहीं है तो हमें धर्मका वास्तविक तत्त्व उन्हें सम झाना चाहिए ।
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अङ्क ७-८]
धर्म और समाज।
२३७
हम यहाँ पर कह देना चाहते हैं कि मत या पति पतिधर्मका, स्त्री स्त्रीधर्मका, गृहस्थ संप्रदायके अर्थमें धर्म शब्दका प्रयोग करना भी गृहस्थधर्मका और यति यतिधर्मका साधन न करें : हमने अधिकतर विदेशियोंहीसे सीखा है। जब तो फिर संसारमें न कोई मर्यादा रहे, न व्यवविदेशी भाषाओंके 'मजहब' 'रिलीजन' शब्द स्था। संसारमें शान्ति और व्यवस्था तभी रह यहाँ प्रचलित हुए, तब भूलसे या स्पर्धासे हम सकती है, जब प्रत्येक मनुष्य कर्तव्यके. अनुरोउनके स्थानमें 'धर्म' शब्दका प्रयोग करने से अपने अपने धर्मका पालन करे । अतएव लगे। परन्तु हमारे प्राचीन ग्रन्थों में जो विदेशि- इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं कि धर्म ही योंके आनेसे पूर्व रचे गये थे, कहीं पर भी 'धर्म' संसारकी प्रतिष्ठाका कारण है । धर्मके इसी शब्द मत, विश्वास या संप्रदायके अर्थमें प्रयुक्त महत्त्वको लक्ष्यमें रखकर तैत्तिरीयारण्यकमें नहीं हुआ, प्रत्युत उनमें सर्वत्र स्वभाव और यह कहा गया है:कर्तव्य इन दो ही अर्थोमें इसका प्रयोग पाया धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजा जाता है । प्रत्येक पदार्थमें उसकी जो सत्ता है,
१ उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदन्ति धर्मे सर्व प्रतिष्ठितम् ॥ जिसको स्वभाव भी कहते हैं, वही उसका धर्म है । जैसे वृक्षका धर्म जड़ता और पशुका धर्म अब हम कुछ प्रमाण भी जिनमें 'धर्म' पशुता कहलाती है, ऐसे ही मनुष्यका धर्म मन- शब्द प्रस्तुत अर्थमें प्रयुक्त हुआ है, उद्धृत करते ध्यता है । वह मनुष्यता किस वस्तु पर अवल- हैं. । महाभारतमें धर्मका निर्वचन इस प्रकार म्बित है ? इसमें किसीका मतभेद नहीं हो सकता किया गया है:कि मनुष्यताका आधार बुद्धि है । बुद्धिकी दो धारणाद्धर्ममित्याहुर्धर्मेण विधृताः प्रजाः । शाखायें हैं, एक कल्पनाशक्ति, दूसरी विचार- यः स्याद्धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ॥ शक्ति । कल्पनाशक्ति, सन्देहात्मक है और विचारशक्ति निर्णयात्मक । बिना सन्देहके किसी 'ध' धातु धारणके अर्थमें है।
धात्वर्थसे भी इसीकी पुष्टि होती है, क्योंकि बातका निर्णय हो नहीं सकता । अतएव अपनी कल्पनाशक्तिसे सन्देह उठा कर पुनः विचार
यो ध्रियते दधासि वा स धर्मः। शक्तिसे उसका निर्णय करनेमें जो समर्थ है, वही जो धारण किया हुआ प्रत्येक पदार्थको मनुष्य है । संसारमें सिवाय असभ्य और वन्य धारण करता है, वह धर्म है। अग्निमें यदि लोगोंके और कौन ऐसा मनुष्य होगा, जिसको उसका धर्म तेज न रहे फिर कोई उसे अनि ऐसे धर्मकी आवश्यकता न होगी, जो उनको नहीं कहता, ऐसे ही मनुष्य यदि अपने धर्मको मनुष्य बनाता है?
त्याग दे तो फिर केवल आकृति और बनावट यह तो हुआ सामान्य धर्म, अब रहा विशेष उसकी मनुष्यताकी रक्षा नहीं कर सकती । धर्म, इसीका दूसरा नाम कर्त्तव्य भी है । मनुष्य उपनिषदोंमें जहाँ 'धर्मश्चर,' 'धर्मान्न प्रमदितव्यम्' चाहे किसी दशा में हो, उसका कुछ न कुछ इत्यादि वाक्य आते हैं, वहाँ भी इससे कर्तव्य कर्तव्य होता है । यदि राजा राजधर्मका, या सदाचारका ही ग्रहण होता है । मनुने धर्मके प्रजा प्रजाधर्मका, स्वामी प्रभुधर्मका, सेवक धृत्यादि जो दस लक्षण बतलाये हैं और जिनको सेवाधर्मका, पिता पितृधर्मका, पुत्र पुत्रधर्मका, धारण करके एक नास्तिक भी धर्मात्मा बन
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जैनहितैषी -
[ भाग १४
सकता है, उनमें मतवादका गन्ध तक नहीं कोड़में स्थान दे सकता था, पर आजकल का
है । गीतामें भी:
हिन्दूधर्म साकारवादी और निराकारवादियोंको भी मिलकर नहीं रहने देता। पहलेका हिन्दूधर्म सदाचारीको धर्मात्मा और ज्ञानीको मोक्षका अधिकारी ( चाहे वह कोई हो ) मानता था, पर आजकलका हिन्दूधर्म अपने लक्ष्यसे ही च्युत होकर या तो मत मतान्तरके शुष्क वादविवाद में या पुरानी लकीरको पीटनेमें अपनी शक्तिका दुरुपयोग कर रहा है । संसारके और समस्त विषयोंमें हम विचारशक्तिका उपयोग कर सकते हैं, पर केवल धर्म ही एक ऐसा सुरक्षित विषय है कि जिसमें आँखें बन्द करके दूसरोंके पीछे चलना चाहिए । यदि इसकी कोई सीमा नियत होती, तब भी गनीमत थी, पर अब इस दशामें जब कि इसकी अबाध सत्ता है, कोई भी विषय हमारे लिए ऐसा नहीं रह जाता, , जिसमें हम स्वच्छन्द विचरण कर सकें । धर्मके नाम से अब तक हमारे समाजमें जैसे जैसे अनर्थ और अत्याचार हो रहे हैं, उनके कारण हमारे करोड़ों भाई बहन मनुष्य होते हुए पशु जीवन व्यतीत कर रहे हैं । इस बीसवीं सदीमें जब कि अन्य देशवासी राष्ट्र ही नहीं किन्तु राष्ट्रसंघ और साम्राज्यकी स्थापना कर रहे हैं, भारतवर्ष यदि समाज-संगठनके भी अयोग्य है तो उसका कारण भ्रमात्मक संस्कार ही हैं ।
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
इत्यादि वाक्यों में 'धर्म' शब्द कर्तव्यका ही सूचक है, क्योंकि मनुष्यके लिए प्रत्येक -दशामें अपने कर्त्तव्यका पालन करना ही सर्वोपरि धर्म है, अपने कर्त्तव्य से उदासीन होकर बूसरोंका अनुकरण करना चाहे वे अपनेसे श्रेष्ठ भी हों, अनधिकार चर्चा है । जब मनुष्यके आचार या कर्त्तव्यका नाम धर्म है तब यदि हमारे पूजनीय पूर्वजोंने उसको मनुष्यकी प्रत्येक दशासे ( चाहे वह आत्मिक हो या सामाजिक या वैयक्तिक ) सम्बद्ध किया तो इससे उनका यह अभिप्राय कदापि नहीं हो सकता था कि उन्होंने हमको मतवादके जाल में फँसाने के लिए धर्मकी टट्टी खड़ी की। उन्होंने तो हमारे मनुयत्वकी रक्षा के लिए ही प्रत्येक कार्यमें इसका आयोजन किया था ।
अब प्रश्न यह होता है कि जब धर्म मतसे पृथक् है तो फिर मतवादमें या भ्रमात्मक विश्वासों में उसका पर्यवसान क्यों कर हुआ ? इसका कारण चाहे कुछ हो पर इसमें सन्देह नहीं कि हमारे दौर्भाग्य से इस समय हमारी धार्मिक अवस्था वह नहीं हैं जो उपनिषदा आर दर्शनोंके समय थी । उस समय सैद्धान्तिक भेद भी हमारे धर्मको कुछ हानि नहीं पहुँचा सकता था, पर आजकल आंशिक भेदको भी हमारा कोमल धर्म सहन नहीं कर सकता। उस समय हिन्दू धर्म इतना उदार था कि वह बौद्ध और जैन जैसे निरीश्वरवादी मतोंको भी अपने
हम मानते हैं कि जैसा धर्मका दुरुपयोग आजकल भारतवर्ष में हो रहा है, और ऐसा कहीं देखने में न आवेगा । परन्तु अब प्रश्न यह है कि धर्मका प्रयोग अन्यथा किया जारहा है, क्या इसलिए हम धर्मको ही छोड़ दे ? यदि कोई मनुष्य अपनी मूर्खतासे अग्निमें हाथ जला लेता:
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अङ्क ७-८ धर्म और समाज।
२३९ . है तो क्या उसे यह उपदेश करना ठीक होगा साँस भी नहीं लेने देती, उनकी दृष्टिमें जरा भी कि वह अग्निसे कभी कोई काम न ले या कि नहीं खटकती । क्या इसीलिए कि यह फाँसी उसे अग्निसे काम लेनेकी तरकीब सिखाना ठीक हमने अपने आप लगाई है, इसकी मौत होगा । इसका उत्तर प्रत्येक बुद्धिमान मनुष्य मीठी है ? यही देगा कि दूसरी बात ही होनी चाहिए। हमारा वक्तव्य केवल यह है कि यदि धर्म __ यद्यपि आधुनिक शिक्षा और समयके प्रभा- हमारे स्वभाव या कर्त्तव्यका बोधक है, जैसा कि वसे आजकल धार्मिक क्षेत्रमें भी असन्तोष हम अपना अभिप्राय प्रकट कर चुके हैं, तब तो और हलचल मची हुई है और प्रत्येक धर्मके वह हमसे और हम उससे किसी दशामें भी पृथक् अग्रणी और शिक्षित पुरुष यह अनुभव करने नहीं हो सकते । क्योंकि प्रत्येक पदार्थकी लगे हैं कि अब इस बीसवीं शताब्दीकी जन- सत्ता उसके धर्म पर ही अवलम्बित होती है ताको इस प्रकाशके युगमें केवल धर्मके नामसे और ऐसे धर्मकी आवश्यकता न केवल समाजको रूढिका दास नहीं बनाया जा सकता और न है किन्तु प्रत्येक व्यक्तिको है। जहाँ राष्ट्र या इस बढ़ते हुए हेतुवादके प्रवाहको ही रोका जा समाज अपने उस स्वाभाविक धर्मका पालन करें, सकता है । तथापि वे:
__वहाँ कोई व्यक्ति भी उसकी उपेक्षा न करे । इस न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्। दशामें धर्मकी व्यापकता या अबाधसत्ता किसीइस नीतिका अनुसरण करते हुए धर्मके विष- को अवाञ्छनीय नहीं हो सकती और यदि यह यमें स्पष्टवादितासे काम नहीं ले सकते । इतना हमारा भ्रम है और वास्तवमें धर्मका अभिधेय ही नहीं बहुतसे शिक्षित ऐसे भी मिलेंगे जो जैसा कि आजकल माना जा रहा है, मतमअपने समाजको प्रसन्न करनेके लिए या उसका तान्तरके काल्पनिक सिद्धान्त और भ्रमात्मक विश्वास-भाजन बननेके लिए उसके भ्रमात्मक विश्वास हैं, तो हम निःसंकोच अपने देशवाविश्वासों पर तर्क और विज्ञानकी कलई चढ़ाने सियोंसे यह प्रार्थना करेंगे कि जिस प्रकार लगते हैं। जिस देशमें नैतिक बलकी यह दुर्दशा पश्चिमवासियोंने धर्मकी सीमा नियत करके हो और जहाँ मानके भूखे शिक्षित लोग अशि- अपने सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और क्षितोंसे मानभिक्षाकी याचना करें, वहाँ यदि औद्योगिक क्षेत्रोंसे उसका प्रतिबन्ध हटा दिया धर्मका ऐसा दुरुपयोग हो रहा है तो इसमें है, ऐसा ही हमको भी करना चाहिए अन्यथा आश्चर्य ही क्या है ? परन्तु प्रश्न यह है, कि जब ये भ्रमात्मक विश्वास अपने साथ हमको भी तक धर्मके सूर्यमें अन्धविश्वासका यह ग्रहण ले डूबेंगे। लगा हुआ है क्या हम अपने उद्देश्य और लक्ष्य- आप डुबन्ते बामना ले डूबे जजमान। को प्राप्त कर सकते हैं ? हमारे देशके नेता
-स्पष्टवादी। राजनैतिक स्वतंत्रताके लिए तो फड़फड़ा रहे हैं, पर यह धार्मिक परतन्त्रता जो हमें खुली हवामें
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२४० र जैनहितैषी
[भाग १४ सम्पादक जैनगजट और न मचानी पड़ती कि धर्म इबा जा रहा है
___ उसकी रक्षाके लिए ' धर्मशिक्षाकी पतवारकी विचार-परिवर्तन । आवश्यकता है । हम सम्पादक महाशयकी
अध्यात्म-जीवनीसे परिचित नहीं हैं, शायद वे
जन्मसे ही मति-श्रुत-अवधिधारी हों और पूर्वोक्त . (लेखक-श्रीयुत, नाथूराम प्रेमी)
नियमके अपवाद हों, इसी लिये जहाँके तहाँ, स्वनामधन्य हिन्दी जैनगजटके सम्पादक बर- चलता-मलिनता-अगाढ़ता रहित, दूधके धोये सॉसे एक बड़ा भारी कष्ट उठा रहे हैं । पुराने जैसे रक्खे हों । परन्तु सभी तो ऐसे नहीं हो जैनपत्रोंके संग्रह-समुद्रको मन्थन करके वे अपने सकते हैं। उनकी बद्धिका विकाश तो क्रमपाठक-परिवारके सम्मुख इस तत्त्वरत्नको रख रहे क्रमसे ही होता है । ऐसी दशामें उनके विचारहैं कि इस समय उनके विचारोंसे विरुद्ध लिख- परिवर्तनको तिरस्कारकी दृष्टिसे देखना, उन्हें नेवाले जितने लेखक हैं वे एक समय उन्हींके रातदिन कोसना या उन्हें बुद्धिभ्रष्ट बतलाना अनयायी थे । समयके प्रभावसे अब उनकी कहाँकी बुद्धिमानी है ! बद्धि बिगड़ गई है.और वे ( उनके माने हुए) स्वर्गीय पं० गोपालदासजी बरैया पहले जैनधर्म पर कुठाराघात कर रहे हैं । इत्यादि। आर्यसमाजी खयालोंके थे, पीछे उनके विचारोंहम जैनगजटके ग्राहकों और पाठकोंको इतना में परिवर्तन हो गया और वे कट्टर जैन बन विवेकशन्य नहीं समझते हैं कि वे सम्पादक गये। स्वामी विद्यानन्द या पात्रकेसरीके विषमहाशयके उद्धार किये हुए इस वारुणीरत्नको यमें प्रसिद्ध है कि वे पहले वेदानुयायी पण्डित ही अमृत समझकर पान कर जायँगे और मत- थे, पीछे देवागमके प्रभावसे उनके विचारोंमें वाले बनकर केवल इसी एक दललिके जोर पर परिवर्तन हो गया और उन्होंने सुप्रसिद्ध तार्किक उनकी हॉमें हाँ मिलाने लगेंगे, इस कारण हमें बनकर जैनधर्मके तर्कसाहित्यको चमका दिया। सम्पादक महाशयके इस मन्थन-श्रम पर बड़ा महावीर भगवानके जितने गणधर थे वे सब तरस आता है और हम चाहते हैं कि वे अपनी
। प्रायः वेदानुयायी ब्राह्मण थे और इस विचारशक्ति और समयका व्यय किसी अन्य उपयोगी परिवर्तनकी महिमासे ही द्वादशांगके ज्ञाता हुए कार्यके लिए करने लगे तो अच्छा हो। थे। इन सब उदाहरणोंके होते हुए भी यदि
मनुष्यके विचार सदा एकसे नहीं. रहते। कोई विचारपरिवर्तनको बुरा समझे और इसके उनमें निरन्तर परिवर्तन हुआ करते हैं । जिस कारण बिगड़कर जमीन-आसमान एक करने बातको आज एक मनुष्य अच्छा समझता है लगे तो इसके सिवाय और क्या कहा जा सकता उसको कैल बुरा समझने लगता है। यह विचार- है कि उसे 'बुद्धिमान्य' हो गया है। परिवर्त नशीलता मनष्यजातिमें है. इसीलिए यदि बाब सरजभानजी. बाब जगलकिशोरजी संसारमें उपदेशकों, गुरुओं. और पुस्तकोंकी आदिके और मेरे विचार आजसे दस बीस वर्ष आवश्यकता है। यदि यह न होती, जन्मसे पहले सम्पादक महाशयके ही जैसे थे और अब लेकर मरणतक मनुष्यके एकसे 'कूटस्थ नित्य' उनमें परिवर्तन हो गया है, तो इसमें तो कोई विचार रहते, उनमें कभी परिवर्तन नहीं होता, आश्चर्यकी बात नहीं है । यह तो स्वाभाविक तो सम्पादकमहाशयको रातदिन यह चिल्लाहट ही है। मनुष्यका अध्ययन और अनुभव ज्यों
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अङ्क ७-८]
सम्पादक जैनगजट और विचार-परिवर्तन।
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प्रभाव
ज्यों बढ़ता है; त्यों त्यों वह अपनी भूलें सम- पंडितका बनाया हुआ ग्रन्थ पढ़ा है, जिसमें झता है और अपने विचारोंको अधिकाधिक भट्टारकोंको न माननेवाले तेरहपंथियोंको परिष्कृत और स्वच्छ करता जाता है । इसीसे मुसलमान और म्लेच्छंतुल्य बतलाया है ! परन्तु तो मालूम पड़ता है कि वह सत्यान्वेषी है. ये लोग चिल्लाते ही रहे और तेरहपन्थका
हो गया । यह जिज्ञासु है और उसके हृदयमें किसी तरहका आग्रह या पक्षपात नहीं है । यही तो मनुष्यका
___ सब आगरा और जयपुर आदिके विद्वानोंके
" विचारपरिवर्तनका ही तो फल था । मनुष्यत्व है । यही तो उसकी शोभा है। ___ यदि सम्यग्दृष्टित्वका अर्थ यह है कि उसका विचारोंका परिवर्तन उसी अवस्थामें बुरा धारक आपके समान जीवनभर जहाँका तहाँ कहा जा सकता है जब वह हृदय और बुद्धिबना रहे, टससे मस नहीं होवे, जो बात पकड की ताड़नाके बिना, किसी स्वार्थके वश किया ले उसे मर जानेतक भी नछोडे, जो कछ आपने जाता है । परन्तु वास्तवमें विचार किया जाय समझ लिया वही सर्वज्ञका वचन और जो दूसरे
तो उसे विचारोंका परिवर्तन कह ही नहीं सकते। समझते हैं वह सब मिथ्यात्व, तो महाराज यह
वह तो एक तरह का ढोंग है, छल है, और सम्यग्दर्शन आपको ही मुबारिक हो, हम तो वञ्चकता है । विचार तो उसके वही रहते हैं इसे दरसे ही नमस्कार करते हैं। यदि दुर्भाग्यसे संसारमें आपके इस अनौखे सम्यग्दर्शनकी ही पूजा
2. दूसरोंकी आँखोंमें धूल झोंकनेके लिए, वह
। कहने लगता है कि अब मेरे विचार पलट गये होती रहती तो वह अब तक असभ्य अवस्थामें ही
हैं और अब मैं सत्य मार्ग पर आ गया हूँ। इस पड़ा रहता । न वह समता और अहिंसा आदि
तरहके स्वार्थसाधु जिस तरह अपने विचारोंका तत्त्वोंका स्वर्गीय संदेशा लानेवाले भगवान्
र परिवर्तन प्रकट करने लगते हैं, उसी तरह इन्हींके महावीर, बुद्धदेव आदि महात्माओंको जन्म दे .. सकता आर न अपना छातापरसघार अन्धकार- विचार बदल जाते हैं अपने समाजके विचा
भाई-बन्धु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनके की धटाको दूर करने में समर्थ होता । बल्कि
* रोंको वे बुरा समझने लगते हैं, परन्तु साहसके दूरतक विचार कर सोचा जाय तो आपके इस
अभावसे और वर्तमान सम्मान-प्रतिष्ठा आदिके जैनधर्मका अभ्यदय भी नहीं होता।
लोभसे वे उन्हें प्रकट नहीं करते हैं-हृदयमें ही ___ और दूर क्यों जाते हैं, आपका यह तेरह
तरह छुपाये रहते हैं। उन्हें भय रहता है कि यदि हम पन्थ या शुद्धाम्नाय क्या है ? यदि इसके
इस अपने असली विचार प्रकट कर देंगे तो समाजमें संचालक आप ही जैसे टससे मस न होनेवाले
हमारी इज्जत तीन कौड़ीकी हो जायगी और होते, जैनधर्मकी छाप लगे हुए सभी शास्त्रोंको हमारे स्वार्थीका घात होने लगेगा । इस इज्जत सर्वज्ञवचन समझकर चुप हो जानेवाले होते, और आबरूके लिए कोई कोई तो यहाँ तक तो क्या इसकी जड़ जम सकती थी ! उस नीच हो जाते हैं कि अपने विचारोंको तो समय भी इनके विरुद्ध उछल कूद करनेवाले छपाते ही हैं, साथ ही उन विचारोंको निर्भीक आप ही जैसे मठपतियों भट्टारकों और उनके होकर प्रकट करनेवालोंके प्रति अन्याय और शिष्यगणोंकी कमी नहीं थी। उन्होंने इनको अत्याचारतक करने लगते हैं ! कोसने और धर्मभ्रष्ट सिद्ध करनेमें भी कोई इस समय हमारे समाजकी जो अवस्था है बात नहीं उठा रक्खी थी। हमने एक बीसपंथी उसके अनुसार मान-सम्मान, आदर-आतिथ्य,
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जैनहितैषी
[भाग १४
आश्रय-प्रश्रय उन्हीं लोगोंको मिलता है जो हैं और इसका कारण उसका अमुक स्वार्थ गतानुगतिक विचारोंके माननेवाले और है। अमुक सभाका प्रेसीडेण्ट होनेके लिए,. प्रकट करनेवाले होते हैं। इस मार्गमें जरा अमुक पदवी पानेके लिए, अमुक धनीसे भी कष्ट नहीं है, अतएव इस पर चलनेवालोंकी सहायता पानेके लिए, अथवा इसी तरहके भी कमी नहीं । परन्तु जो लोग गतानुग-3
- अन्य किसी मतलबसे उसने यह पाप किया विक नहीं हैं, प्रचलित विचारोंसे विरुद्ध श्रम ही सफल हो सकता है और न उस
है। इसके बतलाये बिना न तो आपका परिविचार रखते हैं, उनका मार्ग बड़ा ही कण्टका- विचारपरिवर्तन करनेवालेको बुरा ही सिद्ध. कीर्ण है। थोड़ेसे इने गिने विचारशीलोंको किया जा सकता है। . छोड़कर सभी उनका तिरस्कार करते हैं, उनसे - विचारपरिवर्तकों पर सबसे बड़ा आक्षेप घृणा करते हैं और उन्हें कष्ट देने तकसे यह किया जाता है कि उनके विचार आर्षग्रन्थों भी बाज नहीं आते हैं । अतएव इस पर चल- या प्राचीन शास्त्रोंसे विरुद्ध हैं। साधारण जननेका साहस वे ही लोग करते हैं, जो सत्यके ताके ऊपर सबसे बड़ा प्रभाव इसी बातका
न पडता है और यही सनकर वह आपसे बाहर हो अनुयायी हैं, जिनके हृदय है और जो लोगोंके . अज्ञान अन्धकारके कारण दःखी हैं। उन्हें जाया करती है । उसमें यह समझनेकी शक्ति सब तरहके स्वार्थोंको लात मारनी पडती है नहीं कि संसारमें जो सब ग्रन्थ या पुस्तकें शास्त्र और असा कोंका स्वागत करना पडता है। या ग्रन्थ नामस प्रसिद्ध ह व सभा सवज्ञभाषित ऐसे लोगोंकी संख्या हमारे ही समाजमें नहीं,
नहीं हैं। उनका प्रत्येक अक्षर और शब्द
९, भगवानकी वाणी नहीं है। प्रायः छद्मस्थोंने हीसभी समाजोंमें कम है और रहेगी।
जिनमें अल्पज्ञानी भी थे-शास्त्रोंकी रचनायें की - यह नहीं कहा जा सकता कि उन लोगोंके हैं । अतः उनसे भलें भी हो सकती थीं । उनविचार हमेशा ठीक ही होते हैं-उनसे मेंसे बहतोंने लोगोंकी कल्याणकामनासे जैसा भूलें होती ही नहीं, परन्तु फिर भी उनके वे जानते थे उसके अनुसार लिखा है, बहुताने साहसका और सत्यप्रेमका मूल्य है । नितान्त सुन सुनाकर लिखा है और बहुतोंने कषायादिके पक्षपाती और अन्धविश्वासीको छोड़कर उनकी वश भी लिखा है। जैनहितैषीमें ऐसे बहुतसे सत्यप्रियताकी सभी विवेकी प्रशंसा करेंगे । ग्रन्थोंकी समालोचनाएँ हो चुकी हैं जो अभीतक इसके सिवाय उनमें एक विशेषता और भी भगवानकी वाणी समझ कर माने पूजे जाते थे; रहती है, अर्थात् अपनी भूलके मालूम होते परन्तु वास्तवमें जो जाली हैं और जिनके रचही वे तत्काल ही उसको सुधार लेते हैं और नेवालोंके उद्देश्य अच्छे नहीं थे। इसके सिवाय अपने विचारोंको बदल डालते हैं। उन्हें अपनी जैनाचार्योंके कथनोंमें परस्पर मतभेद भी पाया बातका आग्रह या हठ नहीं रहता है। जाता है जिसका कुछ परिचय, शासनभेदादि
सम्पादक महाशयको चाहिए कि वे जिन संबंधी लेखों द्वारा, समय समय पर हितैषीके जिन लोगोंके विचारपरिवर्तनोंके नमूने पुरानी पाठकोंको मिलता रहा है। ऐसी दशामें ग्रन्थों फाइलोंमेंसे ढूँढ ढूँढ़ कर दिया करते हैं, लगे या शास्त्रोंकी दुहाई देकर यह हल्ला मचाना कि हाथ उनके विषयमें यह भी प्रकट कर अमुक लेखक या वक्ता उनके विरुद्ध लिखता दिया करें तो अच्छा हो कि अमुक बाबूके या बोलता है, इस लिए उसने जैनधर्म छोड़ विचार पहले ऐसे थे, पर अब ऐसे हो गये दिया-वह भ्रष्ट हो गया-उससे बचना चाहिए
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अङ्क ७८ ]
उसकी लिखी हुई पुस्तक या पत्र नहीं पढ़ना चाहिए - कुछ अर्थ नहीं रखता । इस तरहका आन्दोलन - जिसका सारा दार मदार साधारण
गूढ गवेषणायें ।
भोली भाली जनताकी अज्ञानता पर रहता है- ( लेखक, श्रीमान् गड़बड़ानन्दजी शास्त्री । )
गूढ़ गवेषणायें ।
अधिक टिकाऊ नहीं होता। कुछ समय तक अवश्य ही इसका कुछ फल दिखलाई देता है; परन्तु ज्यों ही लोग समझने- बूझने लगते हैं - यह आन्दोलनकी दीवाल अररा कर गिर पड़ती है ।
यह याद रखना चाहिए कि संस्कृत, प्राकृत "या पुरानी ढूँढारी आदि भाषाओं में लिखे हुए सभी ग्रन्थ शास्त्र नहीं कहला सकते। केवल इसी हेतुसे कि वे अबसे पहलेके लिखे हुए हैं सभी आचार्यों, पण्डितों और भट्टारकोंके लेख मस्तक पर नहीं चढ़ाये जा सकते । किसी बड़े आचार्य या महात्मा के नामसे भी अब अधिक समय तक लोग नहीं भुलाये जा सकते। अब तो भगवान् समन्तभद्रके नीचे लिखे हुए लक्षणोंसे युक्त शास्त्र ही शास्त्र गिने जायँगे और उन्हींके आगे विवेकियों और विचारशीलोंके मस्तक नत होंगे:
आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत् सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ अर्थात् जो आप्त या रागद्वेषरहित ज्ञानीका कहा हुआ हो, जिसका खण्डन नहीं हो सके, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोंसे बाधित न हो, जिसमें तत्त्व या सत्यका उपदेश हो, जो मनुष्यमात्र और जीवमात्रका हितकारक हो और कुमार्गका मिटानेवाला हो वही सच्चा शास्त्र है ।
अन्तमें सम्पादक महाशयसे फिर एक बार - प्रार्थना है कि वे लोगोंके विचारपरिवर्तनों को प्रकट करने में जो एड़ी चोटीका पसीना एक कर रहे हैं, उसके करनेकी कृपा न करें और न शास्त्रों और ग्रन्थोंकी दुहाई देकर लोगोंको उत्तेजित करनेका प्रयत्न करें। इसका कुछ फल न होगा । संसारमें अन्धविश्वासों और गतानुगतिकताओंको पुनः प्रतिष्ठित करनेके प्रयत्न सफल होने के दिन चले गये ।
२४३.
(
( १ ) 'अस्माकूणां नैयायिकाणां कर्णे ' बहुतदिनोंसे यह वार्ता गूँज रही है कि ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी बाहरसे ' बगुला ' ( स्थितिपा - लक) और भीतरसे सौ-टंची सुधारक हैं । परन्तु हमने इस बातपर कभी विश्वास नहीं किया । बिना हेतु और प्रमाणके किसी बातको मान लेना शास्त्रिसम्प्रदायमें निषिद्ध है । उथली बुद्धिके बाबूसम्प्रदायकी बात दूसरी है। बेचारे . करें भी क्या ? हेतु और प्रमाणका शास्त्र सीखे हों तब न । परन्तु सावनवदी ७ के जैनमित्रको पढ़कर मैं चौंक पड़ा। उसमें ब्रह्मचारीजी महाराजने स्त्रीशिक्षा के प्रचारकी आवश्यकताको बड़े जोरोंके साथ प्रतिपादन किया है और उसकी पुष्टि माडर्न रिव्यू के सम्पादक श्री बाबू रामानन्द चटर्जीके लेखका हवाला दिया है । चटर्जी बाबू बड़े भारी सुधारक हैं। स्त्रियोंके लिए वे ऊँचीसे ऊँची शिक्षा देनेके पक्षपात हैं । वे तो राज्यकी बड़ी बड़ी कौंसिलों तक में स्त्रियोंका जाना और उन्हें सम्मति देनेका अधि कार मिलना आवश्यक समझते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि ब्रह्मचारीजी भी अपने समाजकी स्त्रियोंको ऐसा ही बनाया चाहते हैं ।
अब जरा सूक्ष्म शास्त्रीय बुद्धिसे इस बातपर विचार कीजिए । यह निश्चय है कि ब्रह्मचारीजी केवल पूजा- पाठ सूत्र - भक्तामर, सामायिक-आलोचना आदिकी शिक्षाको ही पर्याप्त नहीं समझते हैं। वे उन्हें व्याख्यान देनेके, पाठशालाओं में पढ़ा सकनेके, सर्वसाधारणमें ऊँचे विचार फैला सक-के और अपने गृहको स्वर्ग बना सकनेके योग्य बनाना चाहते हैं । ये बातें सुननेमें तो बड़ी
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“२४४
जैनहितैषी
[भाग १४
अच्छी मालूम होती हैं, परन्तु जरा गहरे पैठनेसे दुर्बल, मूर्ख दुराचारी ब्याहे न जायँगे,-पढ़ी जान पड़ेगा कि ये कितनी भयंकर हैं। ज्यों ही लिखी लड़कियाँ उनके साथ क्यों ब्याह करने वे पूजा-पाठसे आगे बढ़ेगी, त्यों ही उनमें सद- लगी ? इसके बाद जाति-पाँतिका बन्धन भी सद्विवेक बुद्धि जायत होगी; उन्हें अपने व्यक्ति- उन्हें असह्य प्रतीत होगा । अपनी जातिमें त्वका ज्ञान होगा; वे समझने लगेंगी कि संसा- अनुरूप वर न मिलेगा तो वे दूसरी जातियोंमेंसे रमें पुरुष ही सब कुछ नहीं हैं हम भी कोई चीज ढूँढने लगेंगी । यदि कोई दुर्भाग्यसे विधवा हो हैं, हमारा भी आत्मा है, हमारे भी स्वतंत्र गई और उसने समझा कि मैं अपनी इन्द्रियोंसे सुख-दुःख हैं, हमारे आत्माको भी स्वाधीन नहीं जूझ सकूँगी तो दूसरा विवाह करनेके लिए सुखकी प्यास है; केवल पुरुषोंके लिए ही तैयार हो जायगी । इस तरह विधवा-विवाह भी हमारी सृष्टि नहीं हुई है। हम भी अपने आत्मा- जारी हो जायगा ! यदि इतना ही होकर रह की उन्नति करनेकी अधिकारिणी हैं । हमसे जाता तो भी गनीमत थी; स्त्रीशिक्षाका यह हमारी इच्छाके विरुद्ध कोई काम करानेका, विष यहीं तक असर न करेगा, वह धीरे धीरे या किसी कामसे रोकनेका उन्हें कोई अधिकार तलाक ( डाइबोर्स ) की रीतिको भी चलायगा नहीं है। माना कि पातिव्रत, पर्तिसेवा, वैधव्य और अन्तमें बहुतसी स्त्रियोंको यहाँ तक भी आदि व्रत अच्छे हैं, और कल्याणकारी हैं। हमें कहनेके लिए आमादा करेगा कि हम बच्चे अपने कल्याणकी इच्छा होगी तो हम स्वयं उन्हें जननेकी झंझटमें क्यों पड़ें ? कुमारी रहना पाल लेंगी; परन्तु इन्हें जबर्दस्ती पलवानेका क्या बुरा है ? परदा-सिस्टम, घरोंके पिंजरेमें पुरुषोंको-उन नीच पुरुषोंको-क्या अधि. कैद रहना, मोंसे बात न करना, दिन भर कार है जिन्हें व्यभिचार करनेमें, एकाधिक दासियोंके समान काम करना, आदि बातें पत्नियाँ रखनेमें, एकके मरते ही दूसरीको और तो ऐसी हैं कि स्त्रीशिक्षाप्रचारके एक साधारण फिर तीसरी चौथी पाँचवीं आदिको ब्याह झोंकेसे ही उड़ जावेंगी । गरज यह कि ब्रह्मलानेमें कोई संकोच नहीं होता है ? जैसे धूमके चारीजीने जिस स्त्रीशिक्षाके प्रचारका आन्दोलन साथ अग्निकी व्याप्ति है, उसी प्रकार शिक्षाके उठाया है, उसके उक्त परिणाम अवश्यंभावी हैं साथ इस प्रकारके विचारोंके होनेकी व्याप्ति है। और इससे शास्त्रीय बुद्धि कहती है कि ब्रह्मचालड़कियोंको ज्यों ही थोड़ीसी ऊँची शिक्षा रीजी कट्टर सुधारक हैं और उन सुधारकोंसे मिलेगी, वे अपने मातापिताके पसन्द किये हुए भी भयंकर हैं जो स्पष्ट शब्दोंमें अपने सुधारवरको पसन्द करनेसे इंकार करने लगेंगीं। माता- विचारोंका प्रचार करते हैं । ये हजरत छुपे रुस्तम पिता कहेंगे इस बूढ़ेके साथ तुम्हारी शादी हैं, मिल कर मारनेवाले हैं, और पालिसीके धुरन्धर होगी, इसने हमें दस हजार रुपये दिये हैं । वे आचार्य हैं । इनसे सावधान रहनेकी जरूरत कहने लगेंगी-यह बूढ़ा खूसट यदि हमारे सामने
है। पं० खूबचन्दजी शास्त्रीने एक बार सत्यभी देखेगा तो हम इसकी झाइसे पूजा करेंगी ! इसका परिणाम यह होगा कि समाजके स्तंभ वादीमें बिलकुल सत्य लिखा था कि “जैनिस्वरूप बड़े बड़े धनी मानी अपने एकाधिक योंमें आर्यसमाजके आदिब्रह्मा प्रकट हो गये!" पत्नियोंको प्राप्त करनेके परम्परागत अधिकारसे शास्त्री लोगोंको ही ऐसी बातें इतने पहले सूझा वञ्चित होने लगेंगे, अन्धे काने, लूले लँगड़े, रोगी करती हैं !
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अङ्क ७-८] गूढ़ गवेषणायें।
२४५
कि सभ्य जगतमें अब कोई भी ऐसा मूर्ख नहीं श्रीयुत् पं० पन्नालालजी गोधा यद्यपि भाखाके
है जिसे पृथ्वीके गोल और सचल होनेमें सन्देह पंडित हैं, परन्तु फिर भी वे हमारे शास्त्री
हो ! ऐसी दशामें शास्त्री लोगोंका इन यंत्रों सम्प्रदायके अनुयायी हैं । यद्यपि अभी थोड़े
और प्रत्यक्ष परीक्षाओंकी झंझटोंसे बिलकुल दिन पहले उन्होंने एक लेखमें बाबू जुगलकिशो
अलग रहनेमें ही कल्याण है। यदि कोई सामने
आवे तो उसे शास्त्रार्थ करके चुप कर देना, रजी मुख्तारके स्वर में स्वर मिला कर त्रिवर्णाचार
बस इसीमें चतुराई है। साफ कह देना चाहिए कि: आदि ग्रन्थों को जाली बतलाने तकका साहस कर
हमें तुम्हारे यंत्रोंपर और परीक्षाओंपर बिलकुल डाला था, फिर भी हमने उन्हें माफ कर दिया था । पर अब देखते हैं कि वे इस उन्नत सम्प्रदा
विश्वास नहीं है। यदि हिम्मत हो तो शास्त्रार्थ
कर लो ! बस । और शास्त्रार्थ भी इन बातोंको यके अनुयायी रहने के योग्य नहीं हैं। उन्होंने बिना किसीसे पछताछे वाययान पर बैठ कर पथ्वी
लेकर कभी न करना चाहिए कि एक लाख
। योजनका ऊँचा जम्बूद्वीप है, गंगा सिन्धु आदि चलती है या स्थिर, इस बातका निर्णय करने का बिगुल फूंक दिया । कहना नहीं होगा कि
.. नदियोंकी सहायक नदियाँ अठारह अठारह हजार इस ढंगका प्रयत्न करना शास्त्रि-सम्प्रदायसे
हैं, दीपके बाद समुद्रे और समुद्र के बाद द्वीप हैं,
आदि । क्योंकि इनके सिद्ध करने की इस पंचमसर्वथा विरुद्ध है । शास्त्री लोग प्रत्येक बातका
कालमें कोई उपाय ही नहीं रह गया है। हमें निर्णय तर्कशास्त्रसे किया करते हैं, एरोप्लेन,
तो केवल उन्हींके सिद्धान्तोंका खण्डन करना दूरबीन, खर्दबीन आदि यंत्रोंसे नहीं । वे खब जानते हैं कि यदि हमने इनमेंसे किसी एक
चाहिए । इस झगड़े में अपने घरकी चर्चासे यंत्रका भी सहारा लिया तो बाबू लोग हमें
मतलब ? जब दूसरोंका खण्डन हो गया तो
अपना मण्डन स्वतः सिद्ध है ! जान पड़ता है अन्यान्य यंत्रोंका सहारा लेनेके लिए भी लाचार करेंगे और उनके माननेसे यदि पृथ्वी चलती सिद्ध
बेचारे गोधाजीको यह प्रायमरी भूगोलकी भी हो गई तो बड़ा गजब हो जायगा-हमें संसारमें
बात मालूम नहीं है कि पृथ्वीके साथ उसका खड़े होनेको भी कोई जगह न रह जायगी ! जब
वायुमण्डल भी घूमता है और उड़ता हुआ कि हमारे प्राचीन आचार्योंने प्रत्येक विषयको
वायुयान भी पृथ्वीके आकर्षणके कारण उसके तर्कशास्त्रसे सिद्ध किया है तब हम भी क्यों न
साथ ही रहता है, अतः उसपर चढ़कर न पृथ्वीउसी अमोघ शास्त्रका बल भरोसा रक्खें ? यदि
की स्थिरताकी ही परीक्षा हो सकती है और न यंत्रादिकोंको ही प्रमाण मानना है, तो फिर
चलताकी । ऐसी ऐसी बातें अखबारोंमें लिखना पृथ्वीको चल क्यों नहीं मान लेते ? क्या युरो
अपनी मूर्खताका प्रदर्शन करना है। इसमें पण्डितों
और शास्त्रियोंकी हँसी होती है । ब्रह्मचारी शीतपके विद्वानोंने इस विषयमें कोई कसर रख छोड़ी
लप्रसादजी बड़े उस्ताद हैं। वे सदैव एक ईटसे है ? तरह तरहके यंत्र बनाकर और प्रत्यक्ष परी
दो पक्षी मारा करते हैं। गोधीजी जैसे लोगोंके क्षायें करके उन्होंने तो इस विषयको बिलकुल ही लेखोंको छापकर इधर तो पुराणमतानयायियोंके हलकर डाला है। ८-१०.वर्ष पहले जैनधर्मके श्रद्धा भाजना बने रहते हैं और उधर पण्डितोंकी एक सुप्रसिद्ध प्रचारकको लंदनकी भौगोलिक विद्याबुद्धिकी गहराई मापनेके लिए लोगोंके हाथोंगोसायटीने, उनके एक पत्रके उत्तरमें, लिखा था में गज भी थमा देते हैं । सावनवदी ७ के जैन-.
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२४६
जैनहितैषी
[भाग १४
'मित्रमें आगरके बाबू मंगलसेनजी बी एस सी०, बन्द करके शिक्षाके काममें लगा सकें तो उससे सी० टी० का एक ऐसा भी लेख उन्होंने छाप एक स्वतंत्र यूनीवर्सिटी चलाई जा सकती है ! दिया है, जिसमें पण्डितोंकी दलीलोंको कुतर्क यदि किसीको इस खर्चका पूरा पूरा पता लगाना
और जैनधर्मका गौरव घटानेवाली बतलाया है ! हो तो उसे उन सब नगरोंमें जाकर वहाँके श्रावहम अलीगढ़की भूज्योतिषचक्रविवेचनी सभाको कोंसे पुछना चाहिए जहाँ जहाँ किसी साधुसावधान करे देते हैं कि वह भूगोल और खगो- समदायका चातर्मास हुआ हो । एक एक साधु-लसम्बन्धी प्रश्नोंके निर्णयमें शास्त्रार्थको छोड़कर संघके चातुर्मासके लिए दस दस हजार रुपये
और किसी मार्गका अवलम्बन भूलकर भी न खर्च हो जाना तो बहुत ही मामूली बात है ! करे, बल्कि हमारी रायमै तो उसे आर गोधाजी-. जिस समय साधुसंघका शभागमन होता है उस को चाहिए कि वे वायुयानकी चिन्ताको छोड़
छा समय बड़े ठाटबाटसे उनकी अगवानीका जुलूस कर कोई ऐसा प्रयत्न करें, जिससे विदेहक्षेत्रकी
निकाला जाता है। उसमें हजार दो हजार रुपये यात्रा सुगम हो जाय और वहाँ सीमंधरस्वामीसे
तो सहज ही स्वाहा हो जाते हैं । इसके बाद दूसरे इन सब प्रश्नोंका समाधान कर लिया जाय। खर्च शरू होते हैं। एक प्रसिद्ध आचार्य महाराजका हम तो इसीमें कल्याण देखते हैं।
____ कारबार इतना बढ़ा हुआ है कि वे केवल पुस्तकों
और डाँकखर्चके लिए ही अपने उपासकोंसे बड़े बड़े धुरंधर विद्वानोंकी भी बुद्धिमें यह प्रतिमास पाँच सौ रुपयोंके लगभग अदा करते "बात नहीं आती थी कि श्वेताम्बर सम्प्रदायके हैं ! अभी हाल ही एक लिक्खाड़ साधुने केवल श्रावक जो दिगम्बरियोंकी अपेक्षा धनी भी अधिक
एक पुस्तकका साहित्य संग्रह करनेके लिए पाँच हैं और 'भगत' भी कम नहीं हैं-दिगम्बरियोंकी हजार रुपये खर्च कराये हैं ! साधुओंको पदवियाँ अपेक्षा मन्दिर बनवानेमें, और प्रतिष्ठायें करानेमें भी चाहिए । जब उनके भक्त रायबहादरी, सर इतने पिछड़े हुए क्यों रहते हैं । वर्षों के अध्ययन, नाइट आदिकी पदवियोंके लिए लाखों रुपये मनन और अनुशीलनके बाद बड़ी मुश्किलसे में खर्च कर डालते हैं तब वे भी शास्त्रविशारद, इसके कारणका पता लगा सका हूँ और आज
न्यायविशारद आदि पाण्डित्यपूर्ण पदवियाँ प्राप्त उसे परोपकाराय प्रकाश कर देता हूँ। पर इस
करनेका प्रयत्न क्यों न करें ? एक आचार्य महागवेषणाका सारा श्रेय मझे ही मिलना चाहिए। क्यों कि मैं ही इसका प्रथम आविष्कारिक हूँ।
: राजके विषयमें हम जानते हैं कि उनके कई बात यह है कि श्वेताम्बर समाजमें चलते फिरते शिष्य काशी और बंगालके बड़े बड़े पण्डितोंके सजीव मन्दिरोंकी संख्या बहुत बढी हुई है और यहाँ मटकते फिरे थे और उन्हें दक्षिणा दे उनकी पूंजा-प्रतिष्ठाके लिए उन्हें इतना धन देकर एक लम्बी चौड़ी पदवी प्राप्त करके लाये खर्च करना पड़ता है कि जड़ मन्दिरोंके लिए थे। इस काममें सिर्फ दस हजार रुपयेके लगभग उनके हाथ तंगीका अनुभव करने लगते हैं। खर्च हुए होंगे। उनकी देखा देखी कुछ और इन सजीव मन्दिरोंको साधु, मुनि या मुनिराज मुनि महाराजोंको भी यह शौक चर्राया था और आदि कहते हैं । इनका टोटल ५००-६०० उन्होंने भी इसी मार्गसे अपनी योग्यताके से कम नहीं है । इनकी पूजा-अर्चा के लिए इतना प्रमाणपत्र संग्रह किये थे । सुनते हैं इन खर्च किया जाता है कि यदि धर्मध्वंसी बाबू निर्ग्रन्थनाथोंमेंसे अनेकोंके कई कोठीवालोंके लोगोंके वशकी बात हो और वे उक्त खर्चको यहाँ 'गुपचुप ' खाते भी खुले हुए हैं और
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अङ्क ७-८]
गूढ़ गवेषणायें।
उनमें लाखों रुपये जमा हैं ! अवश्य ही वे बार चा और दूध आदि भी ले लिया करते उन रुपयोंको कभी हाथसे स्पर्श नहीं करते हैं। क्या करें, यहाँके लोगोंकी आदत ही हैं ! इन महात्माओंको ग्रन्थ छपाने और ग्रन्थ- पड़ गई है ! बढ़ियासे बढ़िया माल जब संग्रह करनेका बड़ा शौक रहता है। इन दोनों तक वे गुरुओंको न दे लेवें तब तक मार्गोंसे रुपया संग्रह करनेमें सुभीता भी बहुत उन्हें चैन ही नहीं पड़ता ! तपस्वी ठहरे, है। इससे जिनवाणी माताका उद्धार तो होता तपसे शरीर क्षीण न होने पावे; इसके लिए ही है, साथ ही इनके निर्ग्रन्थ व्रतका उद्यापन साधु महाराज ओषधि-सेवन भी किया करते हैं। भी कम नहीं होता है। ग्रन्थ लिखनेमें भी साधुओंको विदेशी वस्तुओंसे कोई द्वेष नहीं, ये बड़े सिद्धहस्त रहते हैं। शायद ही कोई इस लिए वे विलायती दवाइयोंको तो खुशीसे वर्ष ऐसा जाता हो जिसमें इनकी सौपचास लेते ही हैं, साथ ही स्वदेशी वैद्योंका भी खयाल कृतियाँ प्रकाशित न होती हों और उन पर रखना पड़ता है, इस लिए उनकी भी बहुमूल्य लेखकके और उनके गुरु महाराजोंके दिव्य औषधियों-सुवर्णमाक्षिक, चन्द्रोदय, बंगभस्म, फोटू न चमकते हों । इस मुद्रणकार्यका बोझा मकरध्वज आदि-पर कृपा किया करते हैं। भी श्रावक ही उठाते हैं और इसके बदलेमें इसके लिए भी अनेक धनी श्रावक प्रतिवर्ष कभी कभी वे अपनी उदार मूर्तिको भी जनसाधा- हजारों रुपया खर्च करते हैं और हृष्टपुष्ट रणके समक्ष उपस्थित करके कृतकृत्य हो लेते साधुओंके अजस्र आशीर्वादोंकी वर्षासे भीगते हैं। कहीं जैनधर्म इन अनाड़ी श्रावकोंके ही रहते हैं । कुछ समय पहले एक स्वर्गवासी हाथमें पड़कर नष्ट भ्रष्ट न हो जावे-साधु- मुनिकी पेटी खोली गई तो उसमें कई शीशियाँ परम्परा बनी रहे, इस कारण प्रतिवर्ष दो बहुमूल्य धातुपौष्टिक ओषधियोंसे भरी हुई मिली चार नये रंगरूट भी तैयार किये जाते हैं थीं। मालूम नहीं, भक्त श्रावकोंने उन शीशियोंको और उनकी भरती या दीक्षाके उत्सवमें भी स्वर्ग भेजनेकी कोई व्यवस्था की या नहीं ! इन, दस पाँच हजार रुपयोंका श्राद्ध किया जाता सब मौटी मोटी बातोंसे पाठक समझ लेंगे कि है। यह तो हुआ साधुओंका नैमित्तिक खर्च । श्वेताम्बर श्रावक कितने उदार, कितने गुरुभक्त अब ' रहा नित्य खर्च, सो वह कुछ बहुत और कितने शासनप्रेमी हैं और उनके इन बड़ा नहीं होता है ! वस्त्रोंमें यदि दो तीन रुपये गुणोंसे जैनधर्मकी कैसी प्रभावना हो रही है ! गजका मलमल और तीस तीस चालीस चालीस रुपयेके दो दो तीन तीन कम्बल मिल श्वेताम्बर श्रावकोंकी उदारताका विस्तार गये तो काफी हैं ! जो विशेष प्रतिष्ठित और तो सुनाया जा चुका अब उसके मुकाबिलेमें प्रभावशाली आचार्य हैं, अवश्य ही उन्हें अपने दिगम्बरियोंकी संकीर्णताका संक्षेप और कोई कोई श्रावक सौ सौ रुपयेके भी कम्बल दे सुन लीजिए । गत भाद्रपदमें न्यायाचार्य पं. देते हैं ! भोजनके सम्बन्धमें तो साधु मात्र माणिक्यचन्द्रजी फलटण गये थे और वहाँके भाग्यवान् होते हैं। वे गृहस्थ थोड़े ही हैं श्रावकोंसे नाम मात्रकी थोड़ीसी दक्षिणा ले आये जो लूखा सूखा भोजन करके गुजर करें । दिनमें थे। इस पर जातिप्रबोधक आदि भोंड़े पत्रोंने कैसा सिर्फ दो बार आहार करते हैं और बम्बई, अकाण्डताण्डव किया था, सो पाठक भूले न अहमदाबाद, सूरत आदि शहरोंमें एक दो होंगे। क्षुल्लक मुन्नालालजी महाराज श्रावकोंसे
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________________ 248 ___ जैनहितैषी [भाग 14 विशेष कर श्राविकाओंसे कभी कभी सुमतिक जरूरत। अनुसार कुछ भेट आदि ले लिया करते थे, इस पर कलकत्तेमें बेचारेके पिच्छि कमण्डलु तक छीन लिये गये। अमी अभी कुछ दिनोंसे जैनसिद्धान्तभवन आराके लिये एक ऐसे कनडी महामान्य ऐलक पन्नालालजीके विषयमें भी जाननेवाले विद्वानकी जरूरत है जिसकी दूसरी लोग तरह तरहकी बातें करने लगे हैं / बैठे ठाले भाषा हिन्दी, अंग्रेजी अथवा संस्कृत हो और लोग और कोई दोष नहीं मिलता तो यही पूछ- जो इन भाषाओंमेंसे किसी भाषामें कनडी भाषाके ताछ किया करते हैं कि क्योंजी, उनके आहा- ग्रंथोंका आशय प्रगट कर सके। वेतन योग्यतारकी विधि धनियों और तर माल खिलानेवालोंके नुसार 50) रुपये मासिकतक दिया जायगा यहाँ ही क्यों मिल जाया करती है और गरीबों और साथमें रहनेको मकान भी फ्री मिलेगा। तथा साधारण लोगोंके यहाँ क्यों अन्तराय आ जो महाशय आना चाहें उन्हें, अपनी योग्यता जाते हैं ? और वे फर्स्ट और सेकिण्ड क्लासमें रेलवे आदिका परिचय देते हुए, 'मंत्री जैनसिद्धान्तसफर किस शास्त्रकी आज्ञासे किया करते हैं ? भवन, आरा' से अथवा हमसे पत्रव्यवहार गाँवों और कसबोंकी अपेक्षा वे शहरों करना चाहिये। -सम्पादक / पर ही सबसे अधिक कृपा क्यों रखते हैं ? उनके केशलोचके उत्सव भी बहुतसे सुधारकोंकी आँखों में खटकने लगे हैं जिनमें मुश्किलसे संशोधन / दो चार हजार रुपये खर्च होते होंगे। दिगम्बरियोंकी इसी ओछाई और तुच्छताके कारण उनके यहाँ साधुसम्प्रदायका अभावसा हो गया हितैषीके गत अंक 4-5 में प्रकाशित गंधहै और उन्हें अपना रुपया अचल मन्दिरों और 1 हस्ति महाभाष्यवाले लेखमें असावधानीसे कछ उनकी प्रतिष्ठाओंमें लगाना पड़ता है। जिन लोगोंको अब मन्दिर प्रतिष्ठायें इष्ट न हो शब्द छपनेसे रह गये हैं / पाठक उन्हें निम्र उन्हें चाहिए कि वे दिगम्बर सम्प्रदायमें साध- प्रकारसे अपनी अपनी कापियोंमें बना लेवें:ओंके उत्पन्न करने और उनके बढ़ानेका उद्योग पृष्ठ 111 के प्रथम कालमकी 13 वीं पंक्ति करें तथा लोगोंको गुरुभक्तिका पाठ पढ़ावें। में श्लोकवार्तिकके बाद 'राजवार्तिक' शब्द यदि किसी उपायसे साधुओंका बढ़ना संभव न और दूसरे कालमके पाँचवें अनुसंधानमें 'भी' हो तो कमसे कम इस पञ्चम कालके लिए शास्त्री के बाद निम्न शब्दोंको बढ़ा लेना चाहियेःऔर पण्डितोंको ही साधुओंके समान मानने 'ग्रंथका उल्लेख नहीं है इसलिये वहाँसे भी' / और पूजनेका विधान शास्त्रविहित कर देना चाहिए। पर मैं भी एक शास्त्री और धुरन्धर ... पृष्ठ 113 की प्रथम पंक्तिमें 'भी' के पण्डित हूँ, अतः इस प्रस्तावके कारण किसीको स्वा - स्थानमें 'श्री' बना लेना चाहिये और पृष्ठ मुझ पर स्वार्थसाधुताका दोष नहीं लगाना 114 के प्रथम कालममें ६ठी पंक्तिके बाद चाहिए / क्यों कि मैं स्वयं इस अधिकारसे निम्न पंक्ति छूट गई है उसे लिख कर ठीक वंचित रहनेके लिए तैयार हूँ। मुझे यही देख- कर लेना चाहियेकर सन्तोष होगा कि मेरे शास्त्री भाई अच्छी इस पद्यकी टीकामें 'अय' शब्दका तरहसे पूने-थापे जा रहे हैं ! अर्थ यों बतलाया है: For Personal & Private Use Only