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________________ अङ्क ७-८] गूढ़ गवेषणायें। उनमें लाखों रुपये जमा हैं ! अवश्य ही वे बार चा और दूध आदि भी ले लिया करते उन रुपयोंको कभी हाथसे स्पर्श नहीं करते हैं। क्या करें, यहाँके लोगोंकी आदत ही हैं ! इन महात्माओंको ग्रन्थ छपाने और ग्रन्थ- पड़ गई है ! बढ़ियासे बढ़िया माल जब संग्रह करनेका बड़ा शौक रहता है। इन दोनों तक वे गुरुओंको न दे लेवें तब तक मार्गोंसे रुपया संग्रह करनेमें सुभीता भी बहुत उन्हें चैन ही नहीं पड़ता ! तपस्वी ठहरे, है। इससे जिनवाणी माताका उद्धार तो होता तपसे शरीर क्षीण न होने पावे; इसके लिए ही है, साथ ही इनके निर्ग्रन्थ व्रतका उद्यापन साधु महाराज ओषधि-सेवन भी किया करते हैं। भी कम नहीं होता है। ग्रन्थ लिखनेमें भी साधुओंको विदेशी वस्तुओंसे कोई द्वेष नहीं, ये बड़े सिद्धहस्त रहते हैं। शायद ही कोई इस लिए वे विलायती दवाइयोंको तो खुशीसे वर्ष ऐसा जाता हो जिसमें इनकी सौपचास लेते ही हैं, साथ ही स्वदेशी वैद्योंका भी खयाल कृतियाँ प्रकाशित न होती हों और उन पर रखना पड़ता है, इस लिए उनकी भी बहुमूल्य लेखकके और उनके गुरु महाराजोंके दिव्य औषधियों-सुवर्णमाक्षिक, चन्द्रोदय, बंगभस्म, फोटू न चमकते हों । इस मुद्रणकार्यका बोझा मकरध्वज आदि-पर कृपा किया करते हैं। भी श्रावक ही उठाते हैं और इसके बदलेमें इसके लिए भी अनेक धनी श्रावक प्रतिवर्ष कभी कभी वे अपनी उदार मूर्तिको भी जनसाधा- हजारों रुपया खर्च करते हैं और हृष्टपुष्ट रणके समक्ष उपस्थित करके कृतकृत्य हो लेते साधुओंके अजस्र आशीर्वादोंकी वर्षासे भीगते हैं। कहीं जैनधर्म इन अनाड़ी श्रावकोंके ही रहते हैं । कुछ समय पहले एक स्वर्गवासी हाथमें पड़कर नष्ट भ्रष्ट न हो जावे-साधु- मुनिकी पेटी खोली गई तो उसमें कई शीशियाँ परम्परा बनी रहे, इस कारण प्रतिवर्ष दो बहुमूल्य धातुपौष्टिक ओषधियोंसे भरी हुई मिली चार नये रंगरूट भी तैयार किये जाते हैं थीं। मालूम नहीं, भक्त श्रावकोंने उन शीशियोंको और उनकी भरती या दीक्षाके उत्सवमें भी स्वर्ग भेजनेकी कोई व्यवस्था की या नहीं ! इन, दस पाँच हजार रुपयोंका श्राद्ध किया जाता सब मौटी मोटी बातोंसे पाठक समझ लेंगे कि है। यह तो हुआ साधुओंका नैमित्तिक खर्च । श्वेताम्बर श्रावक कितने उदार, कितने गुरुभक्त अब ' रहा नित्य खर्च, सो वह कुछ बहुत और कितने शासनप्रेमी हैं और उनके इन बड़ा नहीं होता है ! वस्त्रोंमें यदि दो तीन रुपये गुणोंसे जैनधर्मकी कैसी प्रभावना हो रही है ! गजका मलमल और तीस तीस चालीस चालीस रुपयेके दो दो तीन तीन कम्बल मिल श्वेताम्बर श्रावकोंकी उदारताका विस्तार गये तो काफी हैं ! जो विशेष प्रतिष्ठित और तो सुनाया जा चुका अब उसके मुकाबिलेमें प्रभावशाली आचार्य हैं, अवश्य ही उन्हें अपने दिगम्बरियोंकी संकीर्णताका संक्षेप और कोई कोई श्रावक सौ सौ रुपयेके भी कम्बल दे सुन लीजिए । गत भाद्रपदमें न्यायाचार्य पं. देते हैं ! भोजनके सम्बन्धमें तो साधु मात्र माणिक्यचन्द्रजी फलटण गये थे और वहाँके भाग्यवान् होते हैं। वे गृहस्थ थोड़े ही हैं श्रावकोंसे नाम मात्रकी थोड़ीसी दक्षिणा ले आये जो लूखा सूखा भोजन करके गुजर करें । दिनमें थे। इस पर जातिप्रबोधक आदि भोंड़े पत्रोंने कैसा सिर्फ दो बार आहार करते हैं और बम्बई, अकाण्डताण्डव किया था, सो पाठक भूले न अहमदाबाद, सूरत आदि शहरोंमें एक दो होंगे। क्षुल्लक मुन्नालालजी महाराज श्रावकोंसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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