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________________ 248 ___ जैनहितैषी [भाग 14 विशेष कर श्राविकाओंसे कभी कभी सुमतिक जरूरत। अनुसार कुछ भेट आदि ले लिया करते थे, इस पर कलकत्तेमें बेचारेके पिच्छि कमण्डलु तक छीन लिये गये। अमी अभी कुछ दिनोंसे जैनसिद्धान्तभवन आराके लिये एक ऐसे कनडी महामान्य ऐलक पन्नालालजीके विषयमें भी जाननेवाले विद्वानकी जरूरत है जिसकी दूसरी लोग तरह तरहकी बातें करने लगे हैं / बैठे ठाले भाषा हिन्दी, अंग्रेजी अथवा संस्कृत हो और लोग और कोई दोष नहीं मिलता तो यही पूछ- जो इन भाषाओंमेंसे किसी भाषामें कनडी भाषाके ताछ किया करते हैं कि क्योंजी, उनके आहा- ग्रंथोंका आशय प्रगट कर सके। वेतन योग्यतारकी विधि धनियों और तर माल खिलानेवालोंके नुसार 50) रुपये मासिकतक दिया जायगा यहाँ ही क्यों मिल जाया करती है और गरीबों और साथमें रहनेको मकान भी फ्री मिलेगा। तथा साधारण लोगोंके यहाँ क्यों अन्तराय आ जो महाशय आना चाहें उन्हें, अपनी योग्यता जाते हैं ? और वे फर्स्ट और सेकिण्ड क्लासमें रेलवे आदिका परिचय देते हुए, 'मंत्री जैनसिद्धान्तसफर किस शास्त्रकी आज्ञासे किया करते हैं ? भवन, आरा' से अथवा हमसे पत्रव्यवहार गाँवों और कसबोंकी अपेक्षा वे शहरों करना चाहिये। -सम्पादक / पर ही सबसे अधिक कृपा क्यों रखते हैं ? उनके केशलोचके उत्सव भी बहुतसे सुधारकोंकी आँखों में खटकने लगे हैं जिनमें मुश्किलसे संशोधन / दो चार हजार रुपये खर्च होते होंगे। दिगम्बरियोंकी इसी ओछाई और तुच्छताके कारण उनके यहाँ साधुसम्प्रदायका अभावसा हो गया हितैषीके गत अंक 4-5 में प्रकाशित गंधहै और उन्हें अपना रुपया अचल मन्दिरों और 1 हस्ति महाभाष्यवाले लेखमें असावधानीसे कछ उनकी प्रतिष्ठाओंमें लगाना पड़ता है। जिन लोगोंको अब मन्दिर प्रतिष्ठायें इष्ट न हो शब्द छपनेसे रह गये हैं / पाठक उन्हें निम्र उन्हें चाहिए कि वे दिगम्बर सम्प्रदायमें साध- प्रकारसे अपनी अपनी कापियोंमें बना लेवें:ओंके उत्पन्न करने और उनके बढ़ानेका उद्योग पृष्ठ 111 के प्रथम कालमकी 13 वीं पंक्ति करें तथा लोगोंको गुरुभक्तिका पाठ पढ़ावें। में श्लोकवार्तिकके बाद 'राजवार्तिक' शब्द यदि किसी उपायसे साधुओंका बढ़ना संभव न और दूसरे कालमके पाँचवें अनुसंधानमें 'भी' हो तो कमसे कम इस पञ्चम कालके लिए शास्त्री के बाद निम्न शब्दोंको बढ़ा लेना चाहियेःऔर पण्डितोंको ही साधुओंके समान मानने 'ग्रंथका उल्लेख नहीं है इसलिये वहाँसे भी' / और पूजनेका विधान शास्त्रविहित कर देना चाहिए। पर मैं भी एक शास्त्री और धुरन्धर ... पृष्ठ 113 की प्रथम पंक्तिमें 'भी' के पण्डित हूँ, अतः इस प्रस्तावके कारण किसीको स्वा - स्थानमें 'श्री' बना लेना चाहिये और पृष्ठ मुझ पर स्वार्थसाधुताका दोष नहीं लगाना 114 के प्रथम कालममें ६ठी पंक्तिके बाद चाहिए / क्यों कि मैं स्वयं इस अधिकारसे निम्न पंक्ति छूट गई है उसे लिख कर ठीक वंचित रहनेके लिए तैयार हूँ। मुझे यही देख- कर लेना चाहियेकर सन्तोष होगा कि मेरे शास्त्री भाई अच्छी इस पद्यकी टीकामें 'अय' शब्दका तरहसे पूने-थापे जा रहे हैं ! अर्थ यों बतलाया है: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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