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________________ २४६ जैनहितैषी [भाग १४ 'मित्रमें आगरके बाबू मंगलसेनजी बी एस सी०, बन्द करके शिक्षाके काममें लगा सकें तो उससे सी० टी० का एक ऐसा भी लेख उन्होंने छाप एक स्वतंत्र यूनीवर्सिटी चलाई जा सकती है ! दिया है, जिसमें पण्डितोंकी दलीलोंको कुतर्क यदि किसीको इस खर्चका पूरा पूरा पता लगाना और जैनधर्मका गौरव घटानेवाली बतलाया है ! हो तो उसे उन सब नगरोंमें जाकर वहाँके श्रावहम अलीगढ़की भूज्योतिषचक्रविवेचनी सभाको कोंसे पुछना चाहिए जहाँ जहाँ किसी साधुसावधान करे देते हैं कि वह भूगोल और खगो- समदायका चातर्मास हुआ हो । एक एक साधु-लसम्बन्धी प्रश्नोंके निर्णयमें शास्त्रार्थको छोड़कर संघके चातुर्मासके लिए दस दस हजार रुपये और किसी मार्गका अवलम्बन भूलकर भी न खर्च हो जाना तो बहुत ही मामूली बात है ! करे, बल्कि हमारी रायमै तो उसे आर गोधाजी-. जिस समय साधुसंघका शभागमन होता है उस को चाहिए कि वे वायुयानकी चिन्ताको छोड़ छा समय बड़े ठाटबाटसे उनकी अगवानीका जुलूस कर कोई ऐसा प्रयत्न करें, जिससे विदेहक्षेत्रकी निकाला जाता है। उसमें हजार दो हजार रुपये यात्रा सुगम हो जाय और वहाँ सीमंधरस्वामीसे तो सहज ही स्वाहा हो जाते हैं । इसके बाद दूसरे इन सब प्रश्नोंका समाधान कर लिया जाय। खर्च शरू होते हैं। एक प्रसिद्ध आचार्य महाराजका हम तो इसीमें कल्याण देखते हैं। ____ कारबार इतना बढ़ा हुआ है कि वे केवल पुस्तकों और डाँकखर्चके लिए ही अपने उपासकोंसे बड़े बड़े धुरंधर विद्वानोंकी भी बुद्धिमें यह प्रतिमास पाँच सौ रुपयोंके लगभग अदा करते "बात नहीं आती थी कि श्वेताम्बर सम्प्रदायके हैं ! अभी हाल ही एक लिक्खाड़ साधुने केवल श्रावक जो दिगम्बरियोंकी अपेक्षा धनी भी अधिक एक पुस्तकका साहित्य संग्रह करनेके लिए पाँच हैं और 'भगत' भी कम नहीं हैं-दिगम्बरियोंकी हजार रुपये खर्च कराये हैं ! साधुओंको पदवियाँ अपेक्षा मन्दिर बनवानेमें, और प्रतिष्ठायें करानेमें भी चाहिए । जब उनके भक्त रायबहादरी, सर इतने पिछड़े हुए क्यों रहते हैं । वर्षों के अध्ययन, नाइट आदिकी पदवियोंके लिए लाखों रुपये मनन और अनुशीलनके बाद बड़ी मुश्किलसे में खर्च कर डालते हैं तब वे भी शास्त्रविशारद, इसके कारणका पता लगा सका हूँ और आज न्यायविशारद आदि पाण्डित्यपूर्ण पदवियाँ प्राप्त उसे परोपकाराय प्रकाश कर देता हूँ। पर इस करनेका प्रयत्न क्यों न करें ? एक आचार्य महागवेषणाका सारा श्रेय मझे ही मिलना चाहिए। क्यों कि मैं ही इसका प्रथम आविष्कारिक हूँ। : राजके विषयमें हम जानते हैं कि उनके कई बात यह है कि श्वेताम्बर समाजमें चलते फिरते शिष्य काशी और बंगालके बड़े बड़े पण्डितोंके सजीव मन्दिरोंकी संख्या बहुत बढी हुई है और यहाँ मटकते फिरे थे और उन्हें दक्षिणा दे उनकी पूंजा-प्रतिष्ठाके लिए उन्हें इतना धन देकर एक लम्बी चौड़ी पदवी प्राप्त करके लाये खर्च करना पड़ता है कि जड़ मन्दिरोंके लिए थे। इस काममें सिर्फ दस हजार रुपयेके लगभग उनके हाथ तंगीका अनुभव करने लगते हैं। खर्च हुए होंगे। उनकी देखा देखी कुछ और इन सजीव मन्दिरोंको साधु, मुनि या मुनिराज मुनि महाराजोंको भी यह शौक चर्राया था और आदि कहते हैं । इनका टोटल ५००-६०० उन्होंने भी इसी मार्गसे अपनी योग्यताके से कम नहीं है । इनकी पूजा-अर्चा के लिए इतना प्रमाणपत्र संग्रह किये थे । सुनते हैं इन खर्च किया जाता है कि यदि धर्मध्वंसी बाबू निर्ग्रन्थनाथोंमेंसे अनेकोंके कई कोठीवालोंके लोगोंके वशकी बात हो और वे उक्त खर्चको यहाँ 'गुपचुप ' खाते भी खुले हुए हैं और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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