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________________ अङ्क ७-८] गूढ़ गवेषणायें। २४५ कि सभ्य जगतमें अब कोई भी ऐसा मूर्ख नहीं श्रीयुत् पं० पन्नालालजी गोधा यद्यपि भाखाके है जिसे पृथ्वीके गोल और सचल होनेमें सन्देह पंडित हैं, परन्तु फिर भी वे हमारे शास्त्री हो ! ऐसी दशामें शास्त्री लोगोंका इन यंत्रों सम्प्रदायके अनुयायी हैं । यद्यपि अभी थोड़े और प्रत्यक्ष परीक्षाओंकी झंझटोंसे बिलकुल दिन पहले उन्होंने एक लेखमें बाबू जुगलकिशो अलग रहनेमें ही कल्याण है। यदि कोई सामने आवे तो उसे शास्त्रार्थ करके चुप कर देना, रजी मुख्तारके स्वर में स्वर मिला कर त्रिवर्णाचार बस इसीमें चतुराई है। साफ कह देना चाहिए कि: आदि ग्रन्थों को जाली बतलाने तकका साहस कर हमें तुम्हारे यंत्रोंपर और परीक्षाओंपर बिलकुल डाला था, फिर भी हमने उन्हें माफ कर दिया था । पर अब देखते हैं कि वे इस उन्नत सम्प्रदा विश्वास नहीं है। यदि हिम्मत हो तो शास्त्रार्थ कर लो ! बस । और शास्त्रार्थ भी इन बातोंको यके अनुयायी रहने के योग्य नहीं हैं। उन्होंने बिना किसीसे पछताछे वाययान पर बैठ कर पथ्वी लेकर कभी न करना चाहिए कि एक लाख । योजनका ऊँचा जम्बूद्वीप है, गंगा सिन्धु आदि चलती है या स्थिर, इस बातका निर्णय करने का बिगुल फूंक दिया । कहना नहीं होगा कि .. नदियोंकी सहायक नदियाँ अठारह अठारह हजार इस ढंगका प्रयत्न करना शास्त्रि-सम्प्रदायसे हैं, दीपके बाद समुद्रे और समुद्र के बाद द्वीप हैं, आदि । क्योंकि इनके सिद्ध करने की इस पंचमसर्वथा विरुद्ध है । शास्त्री लोग प्रत्येक बातका कालमें कोई उपाय ही नहीं रह गया है। हमें निर्णय तर्कशास्त्रसे किया करते हैं, एरोप्लेन, तो केवल उन्हींके सिद्धान्तोंका खण्डन करना दूरबीन, खर्दबीन आदि यंत्रोंसे नहीं । वे खब जानते हैं कि यदि हमने इनमेंसे किसी एक चाहिए । इस झगड़े में अपने घरकी चर्चासे यंत्रका भी सहारा लिया तो बाबू लोग हमें मतलब ? जब दूसरोंका खण्डन हो गया तो अपना मण्डन स्वतः सिद्ध है ! जान पड़ता है अन्यान्य यंत्रोंका सहारा लेनेके लिए भी लाचार करेंगे और उनके माननेसे यदि पृथ्वी चलती सिद्ध बेचारे गोधाजीको यह प्रायमरी भूगोलकी भी हो गई तो बड़ा गजब हो जायगा-हमें संसारमें बात मालूम नहीं है कि पृथ्वीके साथ उसका खड़े होनेको भी कोई जगह न रह जायगी ! जब वायुमण्डल भी घूमता है और उड़ता हुआ कि हमारे प्राचीन आचार्योंने प्रत्येक विषयको वायुयान भी पृथ्वीके आकर्षणके कारण उसके तर्कशास्त्रसे सिद्ध किया है तब हम भी क्यों न साथ ही रहता है, अतः उसपर चढ़कर न पृथ्वीउसी अमोघ शास्त्रका बल भरोसा रक्खें ? यदि की स्थिरताकी ही परीक्षा हो सकती है और न यंत्रादिकोंको ही प्रमाण मानना है, तो फिर चलताकी । ऐसी ऐसी बातें अखबारोंमें लिखना पृथ्वीको चल क्यों नहीं मान लेते ? क्या युरो अपनी मूर्खताका प्रदर्शन करना है। इसमें पण्डितों और शास्त्रियोंकी हँसी होती है । ब्रह्मचारी शीतपके विद्वानोंने इस विषयमें कोई कसर रख छोड़ी लप्रसादजी बड़े उस्ताद हैं। वे सदैव एक ईटसे है ? तरह तरहके यंत्र बनाकर और प्रत्यक्ष परी दो पक्षी मारा करते हैं। गोधीजी जैसे लोगोंके क्षायें करके उन्होंने तो इस विषयको बिलकुल ही लेखोंको छापकर इधर तो पुराणमतानयायियोंके हलकर डाला है। ८-१०.वर्ष पहले जैनधर्मके श्रद्धा भाजना बने रहते हैं और उधर पण्डितोंकी एक सुप्रसिद्ध प्रचारकको लंदनकी भौगोलिक विद्याबुद्धिकी गहराई मापनेके लिए लोगोंके हाथोंगोसायटीने, उनके एक पत्रके उत्तरमें, लिखा था में गज भी थमा देते हैं । सावनवदी ७ के जैन-. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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