SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कदम्बवंशीय राजाओंके तीन ताम्रपत्र ' अङ्क ७८ ] 6 जिनका उल्लेख पहले नम्बर के पत्र में है अर्थात् जिन्होंने पत्र नं० १ लिखाया था और जो उनके राज्य के तीसरे वर्ष में लिखा गया था, परंतु एक तो ‘ श्रीमृगेश्वर वर्मा' और 'श्रीविजयशिवमृगेश वर्मा' इन दोनों नामोंमें परस्पर बहुत बड़ा अन्तर है; दूसरे, पहले नम्बर के पत्रमें आत्मनः राज्यस्य तृतीये वर्षे पौष संवत्सरे, इत्यादि पदों के द्वारा जैसा स्पष्ट उल्लेख किया गया है वैसा इस पत्र में नहीं है, इस पत्रके समय निर्देशका ढंग बिलकुल उससे विलक्षण है ।' संवत्सरः चतुर्थः, वर्षा पक्षः अष्टमः, तिथिः पौर्णमासी, ' इस कथनमें ' चतुर्थ ' शब्द संभवतः ६० संवत्सरोंमेंसे चौथे नम्बर के 'प्रमोद' नामक संवत्सरका योतक मालूम होता है; तीसरे, पत्र नं० १ में दातारने बड़े गौरव के साथ अनेक विशेषणों से युक्त जो अपने काकुत्स्थान्वय ' का उल्लेख किया है और साथ ही अपने पिताका नाम भी दिया है, वे दोनों बातें इस पत्रमें नहीं हैं जिनके, एक ही दातार होनेकी हालतमें, छोड़े जाने की कोई वजह मालूम नहीं होती; चौथे इस पत्र में अर्हेतकी स्तुतिविषयक मंगलाचरण भी नहीं है, जैसा कि प्रथमपत्र में पाया जाता है; इन सब बातोंसे ये दोनों पत्र एक ही राजा के पत्र मालूम नहीं होते । इस पत्र नं० २ में श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के जो विशेषण दिये हैं उनसे यह भी पाया जाता है कि, यह राजा उभय लोककी दृष्टिसे प्रिय और हितकर ऐसे अनेक शास्त्रोंके अर्थ तथा तत्त्वविज्ञान के विवेचनमें बड़ा ही उदारमति था, नयविनय में कुशल था और ऊँचे दर्जेके बुद्धि, धैर्य, वीर्य, तथा त्यागसे, युक्त था। इसने व्यायामकी भूमियोंमें यथावत् परिश्रम किया या और अपने भुजबल तथा पराक्रमसे किसी भारी संग्राममें विपुल ऐश्वर्यकी प्राप्ति की थी; 66 Jain Education International २२७ यह देव, द्विज, गुरु और साधुजनोंको नित्य ही गौ, भूमि, हिरण्य, शयन ( शय्या), आच्छादन (वस्त्र) और अन्नादि अनेक प्रकारका दान दिया करता था; इसका महाविभव विद्वानों, सुहृदों और स्वजनोंके द्वारा सामान्यरूपसे उपमुक्त होता था; और यह आदिकालके राजा ( संभवतः भरतचक्रवर्ती) के वृत्तानुसारी धर्मका महाराज था । " दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनोंही संप्रदायोंके जैनसाधुओंको यह राजा समानदृष्टिसे देखता था, यह बात इस दानपत्रसे बहुत ही स्पष्ट है । पत्र नं० ३ - यह दानपत्र कदम्बोंके धर्ममहाराज श्रीकृष्णवर्माके प्रियपुत्र 'देववर्मा ' नामके युवराजकी तरफसे लिखा गया है और इसके द्वारा ' त्रिपर्वत' के ऊपरका कुछ क्षेत्र अर्हत भगवान के चैत्यालयकी मरम्मत, पूजा और महिमा के लिये ' यापनीय' संघको दान किया गया है । पत्रके अन्तमें इस दानको अपहरण करनेवाले और रक्षा करनेवालेके वास्ते वही कसम दी है अथवा वही विधान किया है जैसा कि पहले नम्बर के पत्रसम्बंध में ऊपर बतलाया गया है । ' उक्तं च ' पद्य भी वही चारों कुछ क्रमभंगके साथ दिये हुए हैं । और उनके बाद दो पयोंमें इस दानका फिरसे खुलासा दिया है, जिसमें देववर्माको रणप्रिय, दयामृतसुखास्वादनसे पवित्र, पुण्यगुणोंका इच्छुक और एक वीर प्रकट किया है । अन्तमें अर्हतकी स्तुतिविषयक प्रायः वही पय है जो पहले नम्बर पत्रके शुरू में दिया है । इस पत्र में श्रीकृष्णवर्माको 'अश्वमेध यज्ञका कर्ता और शरदऋतुके निर्मल आकाशमें उदित हुए चंद्रमाके समान एक छत्रका धारक, अर्थात् - एकछत्र पृथ्वीका राज्य करनेवाला लिखा है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy