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________________ जैनहितैषी [भाग १४ पत्र नम्बर १-यह पत्र · श्रीशांतिवर्माके कीर्ति भोजक' दिया है और उसे परम पुत्र महाराज श्री ‘मृगेश्वरवर्मा' की तरफसे धार्मिक प्रकट किया है । इस पत्रके शुरूमें अर्हलिखा है, जिसे पत्रमें काकुस्था (स्था ) न्वयी तकी स्तुतिविषयक एक सुन्दर पद्य भी दिया प्रकट किया है, और इससे ये कदम्बराजा, हुआ है जो दूसरे पत्रोंके शुरूमें नहीं है, परंतु भारतके सुप्रसिद्ध वंशोंकी दृष्टिसे, सूर्यवंशी तीसरे पत्रके बिलकुल अन्तमें जरासे परिवर्तनअथवा इक्ष्वाकुवंशी थे, ऐसा मालूम होता है। के साथ, जरूर पाया जाता है। यह पत्र उक्त मृगेश्वरवर्माके राज्यके तीसरे वर्ष, पत्र नं० २–यह दानपत्र कदम्बोंके धर्मपौष ( ? ) नामके संवत्सरमें, कार्तिक कृष्णा महाराज 'श्रीविजयशिवमृगेश वर्मा' की दशमीको, जब कि उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र था, तरफसे लिखा गया है और इसके लेखक हैं लिखा गया है । इसके द्वारा अभिषेक, उपले- 'नरवर ' नामके सेनापति । लिखे जानेका पन, पूजन, भग्नसंस्कार ( मरम्मत ) और समय चतुर्थ संवत्सर, वर्षा (ऋतु) का आठवाँ महिमा (प्रभावना ) इन कामोंके लिये कुछ पक्ष और पौर्णमासी तिथि है । इस पत्रके द्वारा भूमि, जिसका परिमाण दिया है, अरहंत देवके ' कालवङ्ग ' नामके ग्रामको तीन भागोंमें निमित्त दान की गई है । भूमिकी तफसीलमें विभाजित करके इस तरह पर दान दिया है एक निवर्तनभूमि खालिस पुष्पोंके लिये निर्दिष्ट कि पहला एक भाग तो अर्हच्छाला परम पुष्कलकी गई है। ग्रामका नाम कुछ स्पष्ट नहीं हुआ, स्थाननिवासी भगवान् अर्हनमहाजिनेंद्रदेव"वृहत्परलूरे' ऐसा पाठ पढ़ा जाता है । अन्तमें ताके लिये, दूसरा भाग अर्हत्प्राक्त सद्धर्माचरणमें लिखा है कि जो कोई लोभ या अधर्मसे इस तत्पर श्वेताम्बर महाश्रमणसंघके उपभोगके दानका अपहरण करेगा वह पंच महा पापोंसे लिये और तीसरा भाग निग्रंथ अर्थात् दिगम्बर युक्त होगा और जो इसकी रक्षा करेगा वह इस महाश्रमणसंघके उपभोगके लिये । साथ ही, दानके पुण्यफलका भागी होगा। साथ ही इसके देवभागके सम्बंधमें यह विधान किया है कि समर्थनमें चार श्लोक भी 'उक्तं च ' रूपसे दिये वह धान्य, देवपूजा, बलि, चरु, देवकर्म, कर, हैं, जिनमेंसे एक श्लोकमें यह बतलाया है कि भग्नक्रिया प्रवर्तनादि अर्थोपभोगके लिये है, जो अपनी या दूसरेकी दान की हुई भूमिका और यह सब न्यायलब्ध है । अन्तमें इस अपहरण करता है वह साठ हजार वर्षतक दानके अभिरक्षकको वही दानके फलका भागी नरकमें पकाया जाता है, अर्थात् कष्ट भोगता और विनाशकको पंच महापापोंसे युक्त होना है । और दूसरेमें यह सूचित किया है कि बतलाया है, जैसा कि नं. १ के पत्रमें उल्लेख स्वयं दान देना आसान है परंतु अन्यके दा- किया गया है। परंतु यहाँ उन चार 'उकं च.' नार्थका पालन करना कठिन है, अतः दानकी श्लोकोंमेंसे सिर्फ पहलेका एक श्लोक दिया है अपेक्षा दानका अनुपालन श्रेष्ठ है । इन 'उक्तंच' जिसका यह अर्थ होता है कि, इस पृथ्वीको श्लोकोंके बाद इस पत्रके लेखकका नाम 'दाम- सगरादि बहुतसे राजाओंने भोगा है, जिस समय जिस जिसकी भूमि होती है उस समय १-साठ संवत्सरों में इस नामका कोई संवत्सर नहीं उसी उसीको फल लगता है । इस पत्रमें 'चतुर्थ' है। संभव है कि यह किसीका पर्याय नाम हो या संवत्सरके उल्लेखसे यद्यपि ऐसा भ्रम होता है कि उस समय दूसरे नामोंके, भी संवत्सर प्रचलित हों। यह दानपत्र भी उन्हीं मृगेश्वर वर्माका है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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