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________________ अङ्क ७-८] वेश्यानृत्य-स्तोत्र। ... लक्षणलक्षविधानविहीनः छन्दसापि रहितः प्रमया च। वेश्यानृत्य-स्तोत्र । तस्य शुभ्रयशसो हि विनेयःसंबभूव विनयी हरिषणः॥ ७ आराधनोटुतः पथ्यो भव्यानां भावितात्मनाम् । --Ne:हरिषेणकृतो भाति कथाकोशो महीतल ॥.८ होनाधिकं चारुकथाप्रबन्धाख्यातं यदस्माभिरतिप्रमुग्धैः। वेश्यानत्य नमस्तुभ्यं स्वार्थचिन्ताविघातिने । मात्सर्यहीनाः कवयो धरण्यो तत्शोधयन्तु स्फुटमादरेण॥९ लज्जा पापादिभीतीश्च हित्वा स्वातंत्र्यदायिने ॥ भद्रं भूयाजिनानां निरुपमयशसां शासनाय प्रकामं, हे वश्यानत्य ! ऐ रंडीके नाच !! तुझे नमजैनो धर्मोपि जीयाज्जगति हिततमो देहभाजां समस्तं । राजानोऽवन्तु लोकं सकलमतितरां चारुवातोऽनुकूल:, . . स्कार हो, प्रणाम हो, हम तेरे आगे ढाई सर्वे शाम्यन्तु सत्त्वाः जिनवरवृषभाः सन्तु मोक्षप्रदा नः॥ हाथ जाड़त " हाथ जोड़ते हैं ! संसारके अधिकांश मनुष्य नवाष्टनवकेष्वेषु स्थानेषु त्रिषु जायतः । स्वार्थमें फँसकर पतित हो रहे हैं, स्वार्थी और विक्रमादित्यकालस्य परिमाणमिदं स्फुटम् ॥ ११ खुदगजे जैसे बुरे नामसि पुकारे जाते हैं: परन्त शतेष्वष्टसु विस्पष्टं पंचाशत् व्यधिकेषु च । जो लोग तेरी शरणागत हैं वे इस कलंकसे शककालस्य सत्यस्य परिमाणमिदं भवेत् ॥ १२ मुक्तं हैं ! तू अपने भक्तोंकी स्वार्थचिन्ताको संवत्सरे चतुर्विशे वर्तमाने खराभिधे । ही दूर कर देता है तेरे उपासकोंको कमाने विनयादिकपालस्य राज्ये शक्रोपमानके ॥ १३ खाने तककी फिकर नहीं रहती, फिर लिखने एवं यथाक्रमोक्तेषु कालराज्येषु सत्सु कौ। पढ़ने और गुरुजनोंकी सेवा-शुश्रूषा आदिकी कथाकोशः कृतोऽस्माभिभव्यानां हितकाम्यया ॥११ बात तो कौन कहे ! वे अर्थकी तो क्या धर्म कथाकोशोऽयमीदक्षो भव्यानां मलनाशनः। पुरुषार्थकी भी कुछ पर्वाह नहीं करते ! ऐसी पठतां शृण्वतां नित्यं न्याख्यातॄणां च सर्वदा ॥ १६ निश्चिन्तावस्था जिसके द्वारा साध्य हो वह सहादशैर्बद्धो नूनं पंचशतान्वितैः। क्या स्तुतिका पात्र नहीं है ? अवश्य ही जिनधर्मश्रुतोद्युक्तैरस्माभितिवर्जितैः ॥ १७ स्तुतिके योग्य है ! महाशय ! आपके प्रतापसे, संवत् १८६८ का मासोत्तममासे जेठमास आपके संसर्ग अथवा सत्संगसे भक्तजनोंकी शुक्लपक्ष चतुर्थ्यां तिथौ सूर्यवारे श्रीमूलसंघे नन्द्या- गति सहजहीमें वेश्या महादेवी तक हो जाती म्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दा- है और वे उस रूपेन्धनसे प्रज्वलित कामचार्यान्वये भट्टारकजी श्रीमहेन्द्रकीर्तिजी तत्पट्टे ज्वालामें बड़ी खुशीके साथ अपने धन, धर्भ भट्टारकजी श्रीक्षेमेन्द्रकीर्तिजी तत्पट्टे भट्टारकजी और यौवन सभीका स्वाहा कर डालते हैं, श्रीसुरेन्द्रकीर्तिजी तत्पट्टे भट्टारकशिरोमणी भट्टा. यह कितना बड़ा स्वार्थत्याग है ! सच पूछिये रकजी श्रीसुखेन्द्रकीर्तिजी तदाम्नाये सर्वाई जय- तो त्यागभावकी शिक्षा आपके ही द्वारा प्रारंभ नगरे श्रीमन्नोमनाथचैत्यालये गोधाख्यमान्दरे होती है। आपकी प्रेरणासे कभी कभी मनुष्य इतने पंडितोत्तमपंडितजी श्रीसंतोषरामजी तत्सिख्य- निर्मोही हो जाते हैं कि वे अपनी सर्वांगपंडित वषतरामजी तच्छिष्य हरिवंशदासजी सुन्दर, सच्चरित्र और शीलसम्पन्न गृहदेवियोंका तत्सिष्य कृष्णचन्द्रः तेषां मध्ये वषतरामकृष्णचं- भी त्याग कर देते हैं ! वेश्या महादेवीका द्राभ्यां ज्ञानावरणीकर्मक्षयार्थ बृहदाराधनाकथा- सामीप्य प्राप्त होने पर भक्तजनोंके क्रोध, मान, कोशाख्यं ग्रन्थं स्वाशयेन लिषितं श्रोतृवक्तृज- माया और लोभ शान्त हो जाते हैं-उन नानामिदं शास्त्रं मंगलं भवतु ।" .. पर चाहे कितनी भी गालिवर्षा हुआ करे, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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