________________
जैनहितैषी
[भाग १४
nnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn
प्रसिद्ध हुए थे। वे भद्रबाहुके समीप न रह कर किम्वदन्तियों या प्रचलित प्रवादोंके अनुसार दक्षिणापथको चले गये थे। अन्य कई कथा- स्वयं उक्त कथाकोशकारों द्वारा ही की गई है। ओंके और शिलालेखोंके अनुसार भद्रबाहु आचार्य अन्तमें हरिषेणके कथाकोशके प्रारंभका भी दक्षिणापथको गये थे और उनका स्व. मंगलाचरण और अन्तकी प्रशस्ति देकर हम र्गवास श्रवणबेल्गोलके चन्द्रगिरि पर्वतपर हुआ इस लेखको समाप्त करते हैं:था, तथा उनके साथ चन्द्रगुप्त भी गये थे और
ओं नमो वीतरागाय । उनका दूसरा नाम विशाखाचार्य नहीं किन्तु श्रियं परां प्राप्तमनन्तबोधं मुनीन्द्रदेवेन्द्रनरेन्द्रवन्धम् । प्रभाचंद्र थो । विशाखाचार्य नामके आचार्य निरस्तकन्दर्पगजेन्द्रदपै नमाम्यहं वीरजिनं पवित्रम् ॥१। उस. संघमें दूसरे ही थे । इन कथाओं और
विघ्नो न जायते नूनं न क्षुद्रामरलंघनम् । शिलालेखोंके आधारसे ही सम्राट चन्द्रगुप्तके न भयं भव्यसत्त्वानां जिनमंगलकारिणाम् ॥ २ जैन होनेकी सारी दीवाल खड़ी की गई है और
जि (ज) नस्य सर्वस्य कृतानुरागं .. स्वर्गीय विन्सेंट स्मिथ जैसे सुप्रद्धि इतिहासज्ञ
विपश्चितां कर्णरसायनं च । भी चन्द्रगुप्तका जैन होना ' संभवनीय '
, समासतः साधुमनोभिरामं बतला गये हैं। जिन शिलालेखोंसे और कथा- परं कथाकोशमहं प्रवक्ष्ये ॥ ३ ऑसे चन्द्रगुप्तका जैनत्व सिद्ध करनेका प्रयत्न
अन्तमें ग्रंथकर्ता ग्रन्थके अमर होनेकी इच्छा किया जाता है, इसमें सन्देह ही है कि उनमेंसे
करते हुए अपना परिचय इस प्रकार देते हैंकोई भी इस कथाकोशसे प्राचीन हो। हम
यावच्चन्द्रो रविः स्वर्गों यावत्सलिलराशयः। आशा करते हैं कि इतिहासज्ञ इस विषयपर
यावयोम नगाधीशो यावद्वंगादिनिम्नगाः॥१ विशेष विचार करनेकी कृपा करेंगे।
यावत्तारा धरा यावद्रामरावणयोः कथा। इस कथाकोशमें समन्तभद्र, अकलंकदेव और तावच्चारुकथाकोशः तिष्ठतु क्षितिमण्डले ॥ २ . पात्रकेसरी ( विद्यानंद ) की कथायें नहीं हैं;
युगलमिदम् । जो अवश्य होनी चाहिए थीं । क्यों कि इसके यो बोधको भव्यकुमुदतीनां निःशेषराद्धान्तवचोमयः । कर्ता उक्त समन्तभद्रादि आचार्योंके देशके ही पुन्नाटसंघांबरसान्निवासी श्रीमौनिभट्टारकपूर्णचन्द्रः ॥ ३ थे और अकलंकदेव पात्रकेसरीसे थोड़े ही समय जैनालयवातविराजितान्ते चन्द्रावदातातिसौधजाले। बाद हुए थे । प्रभाचन्द्र और नेमिदत्तके कथा- कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे श्रीवर्धमानाख्यपुरे वसन्सः॥४ कोशोंमें ही सबसे पहले उक्त कथायें दिखलाई
युगलमिदम् । देती हैं, जिससे संदेह होता है कि उनकी रचना सारागमाहितमतिर्विदुषां प्रपूज्यो
नानातपोविधिविधानकरो विनेयः । १-भद्रबाहुवचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः।
तस्याभवद्गुणनिधिजनताभिवंद्यः अस्यैव योगिनं पार्श्वे दधौ जैनेश्वरं तपः ॥ ३८॥
श्रीशब्दपूर्वपदको हरिषेणसंज्ञः ॥५ चन्द्रगुप्तमुनिः शीघ्रं प्रथमो दशपूर्विणाम् ।
छन्दोलंकृतिकाव्यनाटकचणः काव्यस्य कर्ता सतो. सर्वसंघाधिपो जातो विशाखाचार्यसंज्ञकः ॥३९॥
वेत्ता व्याकरणस्य तर्कनिपुणस्तत्त्वार्थवेदी परं। अनेन सह संघोपि समस्तो गुरुवाक्यतः।
नानाशास्त्रविचक्षणो बुधगणः सेव्यो विशुद्धाशयः, दक्षिणापथदेशस्थपुन्नाटविषयं यया ॥ ४०॥
सेनान्तो भरतादिरत्र परमः शिष्यः बभूव क्षितौ ॥६ २-इसके लिये देखो जैनसिद्धान्तभास्कर किरण १-२-३, वर्ष १
१ सूर्खस्य वा पाठः।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org