SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० जैनहितैषी - जूतियोंकी मार तक पड़े परंतु वे चूँ तक नहीं करते | उन्हें क्रोध नहीं आता और न वे उसके द्वारा अपना कुछ अपमान ही समझते हैं । खुशी के साथ सब कुछ सहन करते हुए खुले हाथों अपना द्रव्य लुटाते हैं । मायाचार किये उनसे नहीं बनता और न लोभी मनुष्यको उक्त महादेवीका सामीप्य ही प्राप्त होता है । इस तरह जब आपकी बदौलत चारों कषायें ही शांत हो जाती हैं तब स्वार्थचिन्ता कैसे रह सकती है ? फिर तो मुक्तिका सर्टिफिकेट मिला ही समझिये; चाहे वह मुक्ति हो अपने कुटंब परिवारसे, कार्यव्यवहारसे, धनधान्यसे, धर्माचरण से, इज्जत आबरूसे, शरीर मन और या जीवनोपायकी चिन्ताओंसे । गरज है मुक्ति, और वह मुक्ति आपके दर्शनोंसे सहज साध्य हो जाती है । इस लिये आपको हमारा दंडवत् है । महात्मन् ! वास्तव में आपकी महिमा अपरंपार है। आपकी छत्र-छाया में रह कर मनुष्य बहुत कुछ स्वच्छंद हो जाता है, उसके बंधन टूट जाते हैं, वह स्वतंत्र बन जाता है, लोकलाजका भूत फिर उसे नहीं सताता और न गुरुजनोंकी ही उसे कुछ पर्वाह रहती है | आपके अखाड़े में बाप-बेटा, ́ बाबा-पोता, चचा-भतीजा, श्वशुर- जँवाई और मामा-भानजा सभी एक स्थान पर बैठे हुए, विना किसी संकोचके, बड़ी खुशीके साथ उक्त महादेवीकी आराधना किया करते हैं, वह देवी उस समय सभीके विनोद और विलासकी चीज होती है, सभी उसको एक नजर से देखते हैं और उसे अपनी प्राणवल्लभा बनाने की चेष्टा किया करते हैं । वहाँ लज्जाका नाम नहीं और न शरमका कुछ काम होता है। संसार में लोक Jain Education International [ भाग १४ लाजका बड़ा भारी बंधन है, सैकड़ों अच्छे बुरे काम इसकी वजहसे रुके रहते हैं, गृहस्थोंको परम दिगम्बर मुनिमुद्रा धारण करनेमें भी यही बाधक होती है; सो श्रीमन, इसका बात में हो जाता है, आपके अनुग्रहसे भक्तजनोंविजय आपके प्रतापसे बातकी का यह बंधन शीघ्र टूट जाता है और उनका आत्मबल फिर इतना बढ़ जाता है कि उन्हें एक व्यभिचारिणी, पापप्रचारिणी और मयमांस तथा व्यभिचारादिके सेवनका उपदेश देनेवाली विलासिनी स्त्रीके द्वारतक पहुँचने, दर्वाज़ा खटखटाने और उसकी चरणसेवाको अपना अहोभाग्य समझने में कुछ भी संकोच नहीं होता और न कोई प्रकारका भय रहता है। यह कितना बड़ा स्वात्मलाभ है ! कभी कभी स्त्रियाँ भी आपके प्रसादसे पार उतर जाती हैंबन्धमुक्त हो जाती हैं - उन्हें विवाहादिके अव सरोंपर जब आपके दर्शनोंका शुभ सौभाग्य प्राप्त होता है तब वे आपकी अधिष्ठात्री देवताकी बेहद भक्तिपूजाको देखकर, यह देखकर गद हो जाती हैं, कि अच्छे अच्छे सेठ साहूकार और धनकुबेर भी सामने हाथ बाँधे खड़े अथवा बैठे हैं, उसकी तानमें हैरान व परेशान हैं, भेट तथा नजरें चढ़ा रहे हैं और इस बातकी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब वह देवी एक प्रेमभरी नजर से उनकी ओर देखती है या कमसे कम अपनी मधुर मुस्कराहट से उन्हें पवित्र बनाती है । इस दृश्यसे वे स्त्रियाँ जो हमेशा घरकी चार दीवा - रियोंमें बंद रहती हैं, चौका चूल्हा करती हैं, रसोई बनाती हैं, बर्तन माँजती हैं, संतानका पालन करती हैं और कुटुंबी जनोंकी दूसरी अनेक प्रकारकी सेवाशुश्रूषाओंमें लगी रहती हैं. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy