SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.. अङ्क ७-८] जैनाचार्योंका शासनभेद। १९५ ... जैनाचार्योंका शासनभेद । संख्यामें कोई आपत्ति मालूम नहीं होती-प्रायः सभी आचार्योंने, जिन्होंने गुणव्रत और शिक्षा[ तृतीय लेख । ] वतका विधान किया है, गुणवतोंकी संख्या गुणवत और शिक्षाव्रत ।। तीन और शिक्षाव्रतोंकी संख्या चार बतलाई हैजैनधर्ममें, अणुव्रतोंके पश्चात्, श्रावकके बा तो भी इनके भेद तथा स्वरूपादिकके प्रति पादनमें कुछ आचार्योंके परस्पर मत-भेद है । रह व्रतोंमें तीन गुणवतों और चार शिक्षावतोंका आज उसी मत-भेदको स्थूलरूपसे, यहाँपर, विधान पाया जाता है । इन सातों व्रतोंको सप्त शीलवत भी कहते हैं। गुणवतोंसे अभिप्राय उन दिखलानेका यत्न किया जाता है:व्रतोंका है जो अणुव्रतोंके गुणार्थ अर्थात् उप १-श्रीकुंदकुंदाचार्य, अपने 'चारित्रपाहुकारके, लिये नियत किये गये हैं-भावनाभूत हैं- . ड'में, इन व्रतोंके भेदोंका प्रतिपादन इस प्रकाअथवा जिनके द्वारा अणुव्रतोंकी वृद्धि तथा : . रसे करते हैं:पुष्टि होती है । और शिक्षाव्रत उन्हें कहते हैं दिसविदिसमाण पढमं अणत्थदंडस्स वजणं विदियं । भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि ॥ २५॥ जिनका मुख्य प्रयोजन शिक्षा अर्थात् अभ्यास है जो शिक्षाके स्थानक तथा अभ्यासके विषय तइयं अतिहीपुजं चउत्थं संलेहणा अंते ॥ २६ ॥' सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । हैं-अथवा शिक्षाकी--विद्योपादानकी-जिनमें अर्थात्-१ दिशाविदिशाओंका परिमाण, प्रधानता है और जो विशिष्ट श्रुतज्ञानभावनाकी परिणति द्वारा निर्वाह किये जानेके योग्य होते २ अनर्थदंडका त्याग और ३ भोगोपभोगका हैं । इनमें गुणवत प्रायः यावज्जीविक कहलाते हैं; 'शिक्षाव्रतत्वं चास्य शिक्षाप्रधानत्वात् परिमितकाल. अर्थात, उनके धारणका नियम प्रायः जीवनभर- भावित्वाच्च ।' के लिये होता है-वे प्रतिसमय पालन किये -इत्याशाधरः स्वसागारधर्मामृतटीकायां । जाते हैं और शिक्षाव्रत यावज्जीविक न होकर २-अनुवृंहणाद्गुणानामाख्यान्त गुणव्रतान्यार्याः । --इति स्वामिसमन्तभद्रः । प्रतिदिन तथा नियत दिवसादिकके विभागसे अभ्यसनीय होते हैं- उनका अभ्यास प्रति ३-अणुव्रतानां परिपालनाय भावनाभूतानि गुण व्रतानि।' 'शिक्षापदानि च शिक्षाव्रतानि वा तत्र समय नहीं हुआ करता, उन्हें परिमितकाल शिक्षा अभ्यासः स च चारित्रनिबंधनविशिष्टक्रियाभावित समझना चाहिये । यही सब इन दोनों कलापविषयस्तस्य पदानि स्थानानि तद्विषयानि वा प्रकारके व्रतोंमें परस्पर उल्लेखयोग्य भेद पाया व्रतानि शिक्षाव्रतानि ।' जाता है * । यद्यपि इन दोनों जातिके व्रतोंकी -इति श्रावकप्रज्ञप्तिटीकायां हरिभद्रः । - ४-'शीलं च गुणशिक्षाव्रतं । तत्र गुणव्रतानि... * यथाः - अणुव्रतानां भावनाभूतानि । यथाणुव्रतानि तथा गुण१-'गुणार्थमणुव्रतानामुपकारार्थव्रतं गुणव्रतं । शि- व्रतान्यपि सकृदगृहीतानि यावज्जीवं भावनीयानि ।' क्षायै अभ्यासाय व्रतं देशावकाशिकादीनां प्रतिदिवसा- 'शिक्षाभ्यासस्तस्याः पदानि स्थानानि अभ्यासभ्यसनीयत्वात् । अतएव गुणव्रतादस्यभेदः । गुणवतं विषयस्तान्येव व्रतानि शिक्षापदव्रतानीति । गुणव्रतानि हि प्रायो यावज्जीविकमाहुः । अथवा शिक्षाविद्योपा- तु न प्रतिदिवसग्राह्याणि सकृद्ग्रहणान्येव । दानं शिक्षाप्रधानं व्रतं शिक्षाव्रतं देशावकाशिका- -इति तत्त्वार्थसूत्रस्य स्वस्वटीकायां सिद्धसेनगणिः . देविशिष्टश्रुतज्ञानभावनापरिणतत्वेनैव निर्वायत्वात् ।' यशोभद्रश्च । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy