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जैनहितैषी
[ भाग १४ यह बीमारी हुई है। इसी तरह हमारे आत्मीय फिर कभी शराबका नाम तक भी न लेवे । दोषोंका फल भी हमको वस्तुस्वभावके अनुसार इसी तरह व्यभिचार तथा चोरी आदिकी भी ही मिलता है और वस्तुस्वभाव हमको यह नहीं ऐसी ही सजा मिलनी चाहिये थी, जिससे बतलाता है कि हमको हमारे किस कृत्यका वह कदापि व्यभिचार तथा चोरी न करने कौन फल मिला, परन्तु फल प्रत्येक कृत्यका
पाता। जो जीव चोरों तथा वेश्याओंके यहाँ
पैदा किये जाते हैं उनका ऐसी जगह पैदा मिलता अवश्य है।
करना तो चोरी और व्यभिचारकी शिक्षा इस प्रकार वस्तुस्वभावके सिद्धान्तानुसार तो दिलानेकी ही कोशिश करना है । संसारके यह बात ठीक बैठ जाती है कि सुख दुःख भुग- प्रबंधकर्ताकी बाबत तो ऐसा कभी भी खयाल तते समय क्यों हमको हमारे उन कृत्योंकी नहीं किया जा सकता कि उसीने ऐसा प्रबंध खबर नहीं होती, जिनके फलरूप हमको वह सुख किया हो अर्थात्, वही पापियों और अप-. दुःख भुगतना पड़ता है। परन्तु किसी प्रबंधकर्ताके राधियोंको चोरों तथा व्यभिचारियोंके यहाँ माननेकी हालतमें वह बात कभी ठीक नहीं पैदा करके चोरी और व्यभिचारकी शिक्षा बैठती, बल्कि उलटा बड़ा भारी अंधेर ही दृष्टि
दिलाना चाहता हो । ऐसी बातें देखकर तो
. लाचार यही मानना पड़ता है कि संसारका गोचर होने लगता है । यदि हम यह मानते हैं ,
हम यह मानत ह कोई भी एक बुद्धिमान प्रबंधकर्ता नहीं हैकि जो बच्चा किसी चोर, डाकू या बेश्या आदि बल्कि वस्तुस्वभावके द्वारा और उसीके अनुपापियोंके घर पैदा किया गया है वह अपने भले सार ही जगतका यह सब प्रबंध चल रहा है, बुरे कृत्योंके फलस्वरूप ही ऐसे स्थानमें पैदा दुनियाका सब कार्य व्यवहार हो रहा है। किया गया है तो प्रबन्धकर्ता परमेश्वर मानने- अतः किसी प्रबंधकर्ताकी खुशामद करके या की अवस्था में यह बात भी ठीक नहीं बैठती भेट चढ़ाकर उसको राजी कर लेनेके भरोसे क्योंकि शराबी यदि शराब पीकर और पागल न रह कर हमको स्वयं अपने आचरणोंको बनकर फिर भी शराबकी दुकानपर जाता है ..
सुधारनेकी ही ओर दृष्टि रखनी चाहिये और
यही श्रद्धान बाँधे रखना चाहिये कि जगत् और पहलेसे भी ज्यादा तेज शराब माँगता है
ज्यादा तन शराब मांगता है अनादिनिधन है और उसका कोई एक बुद्धितो वस्तुस्वभावके अनुसार तो यह बात ठीक मान प्रबंधकर्ता नहीं है। बैठ जाती है कि शराबने उसके दिमागको ऐसा खराब कर दिया है, जिससे अब उसको पहलेसे भी ज्यादा तेज शराब पीनेकी इच्छा उत्पन्न हो गई है। सत्यसमान कठोर, न्यायसम पक्षविहीन, परन्तु जगतके प्रबंधकर्ताके द्वारा ही फल मिलनेकी हूँगा मैं, परिहास-रहित, कूटोक्ति-क्षीण। अवस्थामें तो शराब पीनेका यही दंड मिलना नहीं करूंगा क्षमा, इंचभर नहीं टलँगा, चाहिये था कि वह किसी ऐसी जगह पटक तो भी हूँगा मान्य, ग्राह्य, श्रद्धेय बनूँगा ।। दिया जाय जहाँसे वह शराबकी दुकान तक
_ --हितैषी । ही न पहुँच सके और ऐसा दुःख पावे कि
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