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________________ अङ्क ७-८] जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध । द्वारा ही ससारका संपूर्ण कार्य व्यवहार चलता राज्यमें दिनदहाड़े सैंकड़ों ही मतोंके प्रचारक हुआ माननेकी अवस्थामें सिवाय इसके और अपने अपने धर्मोका उपदेश करते हैं, अपने कोई विचार ही नहीं उठ सकता कि जैसा अपने सिद्धान्तोंको उसी एक परमेश्वरकी आज्ञा करेंगे उसका फल भी हम स्वयं वैसा ही अवश्य बताकर उसके ही अनुसार चलनेकी घोषणा _ भुगतेंगे । ऐसा मानने पर ही हम बुरे आचरणोंसे करते हैं, और यह सब कुछ होते हुए भी उस बच सकते हैं और अच्छे आचरणोंकी तरफ परमेश्वर या संसारके प्रबंधकर्ताकी तरफसे कुछ लग सकते हैं। भी रोक-टोक, इस विषयमें, नहीं होती। ऐसे पाठक जरा यह भी विचार करें कि यदि भारी अन्धेरकी अवस्थामें तो कदाचित् भी यह कोई प्रबंधकर्ता होता तो क्या ऐसा ही अन्धेर नहीं माना जा सकता कि कोई महाशक्तिरहता जैसा कि अब हो रहा है। अर्थात्, किसीको संपन्न प्रबंधकर्ता इस संसारका प्रबंध कर रहा है; भी इस बातकी खबर नहीं कि हमको इस समय बल्कि ऐसी दशामें तो यही माननेके लिये जो कुछ भी सुख दुःख मिल रहा है वह हमारे । विवश होना पड़ता है कि वस्तुस्वभाव पर ही कौनसे कृत्योंका फल है। प्रबंधकर्ता होनेकी हालतमें हमें वह बात प्रकट रूपसे अवश्य ही । " संसारका सारा ढाँचा बँध रहा है और उसीके बतलाई जाती, जिससे हम आगामीको बरे अनुसार जगतका यह सब प्रबन्ध चल रहा है। कृत्योंसे बचते और भले कृत्योंकी तरफ लगते, यही वजह है कि यदि कोई मनुष्य वस्तुस्वभापरंतु अब यह मालूम होना तो दूर रहा कि वको उलटा पुलटा समझकर गलती खाता है हमको कौन कौन दुःख किस किस या दूसरोंको बहकाकर गलतीमें डालता है तो कृत्यके कारण मिल रहा है, यह भी संसारकी ये सब वस्तुएँ उसको मना करने अथवा मालूम नहीं है कि पाप क्या होता है और से र रोकने नहीं जातीं और न अपने अपने स्वभापुण्य क्या । इसीसे दुनियामें यहाँतक अन्धेर वके अनुसार अपना फल देनेसे ही कभी चूकती छाया हुआ है कि एक ही कृत्यको कोई • पाप मानता है और कोई पण्य अथवा हैं। जैसे आगमें चाहे तो कोई नादान बञ्चा धर्म । और यही वजह है कि संसारमें सैकडों अपने आप हाथ डाल देवे और चाहे किसी प्रकारके मत फैले हुए है, जिनमें यह बड़े बुद्धिमान-पुरुषका हाथ भूलसे पड़ जावे, परंतु तमाशेकी बात है कि सब ही अपने अपने वह आग उस बच्चेकी नादानीका और बुद्धिमामतको उसी सर्वशक्तिमान प्रबंधकर्ताका प्रचार नके अनजानपनेका कुछ भी खयाल नहीं करेगी, किया हआ बतलाते हैं । जहाँतक हम समझते बल्कि अपने स्वभावके अनुसार उन दोनोंके हैं ऐसा अंधेर तो मामूली राजाओंके राज्यमें भी , हाथोंको जलानेका कार्य अवश्य कर डालेगी । नहीं होता । प्रत्येक राजाके राज्यमें जिस प्रकारका कानून जारी होता है उसके विरुद्ध , मनुष्यके शरीरमें सैकड़ों बीमारियाँ ऐसी होती हैं यदि कोई मनुष्य कोई विपरीत नियम चलाना जो उसके विना जाने बूझे दोषोंका ही फल चाहे तो वह राजविद्रोही समझा जाता है और होती हैं, परन्तु प्रकृति या वस्तुस्वभाव उसे यह दंड पाता है, परंतु सर्वशक्तिमान परमेश्वरके नहीं बताती कि तेरे अमुक दोषके कारण तुझको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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