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________________ २३४ नाम ' लक्ष्मीचंद ' सूचित किया है, ऐसा ध्वनित होता है । और इस लिये दोनों ग्रंथ एक ही जान पड़ते हैं । परंतु इसका विशेष निर्णय निम्नपद्योंको उक्त ग्रंथमें देखने से हो सकता है । आशा है कि आरके कोई भाई या दूसरे किसी स्थानके भाई जहाँ छंदोबद्ध ज्ञानार्णव ग्रंथ हो, इस विषयका स्पष्टीकरण करनेकी कृपा करेंगे । यहाँ बाबू साहबके भेजे हुए उक्त पत्रके पयों को देने से पहले हम अपने पाठकोंपर इतना और प्रकट किये देते हैं कि इन पद्योंपरसे यह ग्रंथ श्रीशुभ चंद्राचार्य के संस्कृत ज्ञानार्णवका अनुवाद मालूम नहीं होता । संभव है कि उसका आशय लेकर यह ग्रंथ हिन्दी के नाटक समयसारकी तरह स्वतंत्र रचा गया हो । ग्रंथके देखने पर इन सब बातोंका भले प्रकार निर्णय हो सकता है: जैनाहितैषी - वृद्धसेवा । सवैया ३१ “ त्यागु त्यागु संगकौं अनंगकौ अंदोह (?) जहां, -मुंच मुंच कुप्रपंच मोह- उरझाव रे । जानि जानि एक तत्व आतमीक नीके करि, एकमेक रमि रहु चारितके चाव रे ॥ सुनिसुनि सीख गुरु जिनकी समाधि भजि, तजि तजि विषयविकारकौ विभाव रे । करु करु एक पुरुषारथ मुकतिहेतु, देख देख निजरूप कैसो है रे वावरे ॥ १॥ दोहा - सुखनिधान विज्ञानघन, विगतविश्वपरचार । आपुनहीते पाइए, प्रीतमतत्वविचार ॥ Jain Education International स्त्रीवर्णन । सवैया ३१ " जाति है न निंद्य कहूँ, निंद्य है कुचालि चालि, सारी हैं न नारी बुरी बुरी ये बुरी कहीं । दूषन है कोऊ कुलभूषन है कोऊ तातें, भूषन दूषनकौ संग एह है मही । भवभीतहारी सबश्रुतज्ञानधारी, जो ये निंदीं साधु नारी तोक बढ़ाबड़ी है नहीं । शील सावधान, संयमसहित ज्ञान नाहीं (?) नहीं निंदनीक ++ ऐसी वानी है सही ॥ [ भाग १४ दोहा यह सरूप लखिया लख्यौ, नारि सुभासुभ जाति । चंदबुद्धिकी संपदा, ताहीको नियरात ॥ " सम्यकज्ञानमहिमा । सवैया ३१ दुति तिमिरको दिनेस यौं जिनेस क मोक्ष इंदिराकौ, यहै इंदीवर (?) एक है । मदन महाभुजंग मंत्र साँचौ जगमांहि, चित्त गज समनकों सिंह याकौ कै कहैं ॥ व्यसन सघन [ घन ] मथन समीरसम जगतत्व देखिवेकौ दीपक विवेक है । विषय सफर जाल कालको विसाल साल, साधु साधु ज्ञान एक आतमीक टेक है ॥ याही जग कक्षमें विपक्ष जगजीवनको, तक्षक कीनास विष व्यापि रह्यो जनमें । क्रोध ऊंचे सैलसम कुटिल सरितगति पतन यतन विनु होत भव वनमें ॥ विषई विरंध (3) फिरैं विधुरित प्रानीगन, तौल जौलौं ज्ञानभानु प्रघटै न मनमें । लवधि विमल ज्ञान विमल प्रमान रहे, राते सुख आतमीक संपति के गनमें ॥ दोहा सुखद दसा सारी चहै, वंछित चितकौ आप | साधु एक तू ज्ञान गुन तजिके और कलाप । " [ क्रोधवर्णन ] सवैया " द्वारिकाको दाह कीनो द्वीपाइन क्रोधवस, यादव जराये सारे पाप न विचान्य है । आप पर दोऊ कोऊ पावें अपकार एहु, साथ हौ अनादिके या चेतन उचान्यो है ॥ पापको संतापीको मिलापी है नरक देन, याही महंत जन नातो तोरि डायो है । तातें समसेवी जीव क्रोधक निवारि दूरि, आगम अभ्यासें जीवैं भ्रमको निवाय है । दोहा क्रोधअमिकों एक ही, उपसावने समर्थ । क्षमानदी सम जलभरी न रहे त्रषा अनर्थ ॥” ' ८८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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