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अङ्क ७–८ ]
बाले इन गुणोंको अनादि कहते हैं, और केवल जीव और अजीवको ही अनादि माननेवाले इन दोनोंहीके गुणोंको अनादि बताते हैं । अतः इन दो बातो में तो संसारके सभी मतवाले सहमत हैं कि ( १ ) संसारमें कोई वस्तु बिना बनाये अनादि भी हुआ करती है और (२) उसके गुण और स्वभाव भी बिना बनाये अनादि होते हैं । अब केवल इतनी ही बात निश्चय करनी बाकी रह जाती है कि कौन वस्तु तो बिना बनी हुई अनादि है और कौन वस्तु बनी हुई अर्थात् सादि है ।
जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध ।
इस बातका निर्णय करनेके वास्ते हम अपने पाठकों को फिर उस बातकी याद दिलाते हैं जिसका उल्लेख हमने ऊपर किया है; अर्थात्, ऐसी बातोंके निर्णय करनेके हेतु मनुष्य • जो कुछ भी अपने बुद्धिबलसे कर सकता है वह यही हैं कि संसारके चलते हुए कारखाने के नियमोंको ढूँढ निकाले और फिर उन्हीं नियमोंके द्वारा इन गुप्त और गहन विषयोंका भी निर्णय कर लेवे । परन्तु इस प्रकार खोज करने पर संसारमें तो ऐसी कोई भी वस्तु नहीं मिलती • है जो बिना किसी वस्तु के ही बन गई हो, अर्थात् नास्तिसे ही अस्तिरूप हो गई हो । और न कोई ऐसी ही वस्तु देखी जाती है जो किसी समय नास्तिरूप हो जाती हो । बल्कि यहाँ तो वस्तुसे ही वस्तु बनती देखी जाती है; अर्थात् प्रत्येक वस्तु किसी न किसी रूपमें सदा ही बनी रहती है । भावार्थ, न तो कोई नवीन वस्तु पैदा ही होती है और न कोई वस्तु नाश ही होती है, बल्कि जो वस्तुएँ पहले से चली आती हैं उन्हींका रूप बदल बदल कर नवीन नवीन वस्तुएँ दिखाई देती रहती हैं; जैसा कि सोना रूपा आदि धातुओं से ही अनेक प्रकार के आभूषण बनाये . जाते हैं । सोना रूपा आदि के बिना ये आभूपण कदाचित् भी नहीं बन सकते हैं । फिर
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उन्हीं आभूषणोंको तोड़कर अन्य अनेक प्रका रके आभूषण बना लिये जाते हैं। उन्हीं का तार खींच कर गोटा ठप्पा आदि बना लिया जाता है, अथवा पत्रा छेत ( गढ़ ) लिया जाता है । गरज यह कि एक सोना या रूपा आदि धातुएँ यद्यपि भिन्न भिन्न प्रकारके रूप धारण करती रहती हैं परन्तु सभी रूपोंमें वे धातुएँ अवश्य विद्यमान रहती हैं । इसी प्रकार बीज, मिट्टी, पानी और वायु आदि परमाणुओंके संगठन से ही वृक्ष बनता है और फिर उस वृक्षको जला देनेसे वे ही परमाणु कोयला धूआँ और राख आदिका रूप धारण कर लेते हैं और फिर आगेको भी अनेक रूप धारण करते रहते हैं । इस तरह जहाँ तक भी इस संसारकी वस्तुओंकी जाँच की जाती है उससे तो यही सिद्ध होता है कि जगतका एक भी परमाणु कमती बढ़ती नहीं होता । बल्कि जो कुछ भी होता है वह यही होता है कि उनका रूप और अवस्था बदल बदल कर नवीन नवीन वस्तुएँ बनतीं और बिगड़ती रहती हैं । ऐसी दशा में मनुष्य के पास तो ऐसा कोई हेतु हो ही नहीं सकता जिससे वह यह कह सके कि किसी समय में कोई वस्तु बिना किसी वस्तुके ही बन गई थी, अर्थात् नास्ति से अस्तिरूप हो गई थी; बल्कि तर्क प्रमाण तथा बुद्धिबलसे काम लेने, और दुनिया के चलते हुए कारखानोंके नियम टटोलने पर तो मनुष्य इसी बात के मानने पर बाध्य होता है कि नास्तिसे अस्ति हो जाना अर्थात् बिना वस्तुके वस्तु बन जाना बिलकुल ही असम्भव हैं और इस लिये यह बात तो स्पष्ट ही सिद्ध है कि संसारकी वस्तुएँ नास्तिसे अस्तिरूप नहीं हो गई हैं किन्तु किसी न किसी रूपमें सदासे ही विद्यमान चली आती हैं और आगेको भी किसी न किसी रूपमें सदा विद्यमान रहेंगीं । अर्थात् संसार की सभी जीव, अजीवरूप वस्तुएँ
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