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________________ अङ्क ७-८ ] भेद है । इस संपूर्ण मतभेदको दिखलाने से लेख बहुत बढ़ जायगा । अतः लक्षण, स्वरूप तथा अतीचारसंबंधी विशेष मतभेदको फिर स्वतंत्र शीर्षकों द्वारा दिखलानेका यत्न किया जायगा । यहाँ, इस समय, सिर्फ इतना ही समझना चाहिये कि इन दोनों प्रकारके व्रतोंके भेदादिक प्रतिपादन में आचार्योंके परस्पर बहुत कुछ मतभेद है । इन व्रतोंका विषयक्रम ( कोर्स course ) कक्षाओंके पठन की तरह समय समय पर बदलता रहा है । और इस लिये यह कहना बहुत कठिन है कि महावीर भगवानने इन विभिन्न शासनों में से कौनसे शासनका प्रति पादन किया था । संभव है कि उनका शासन इन सबोंसे कुछ विभिन्न रहा हो । परंतु इतना जरूर कह सकते हैं कि इन विभिन्न शासनोंमें परस्पर सिद्धान्तभेद नहीं है— जैनसिद्धान्तोंसे कोई विरोध नहीं आता - और न इनके प्रतिपादन में जैनाचार्योंका परस्पर कोई उद्देश्यभेद पाया जाता है | सबका उद्देश्य सावद्य कर्मोंके त्यागकी परिणतिको क्रमशः बढ़ाने- उसे अणुव्रतोंसे महावतों की ओर ले जाने और लोभादिकका निग्रह कराकर संतोष के साथ शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करानेका मालूम होता है । हाँ, दृष्टिभेद, अपेक्षाभेद, विषयभेद, क्रमभेद, प्रतिपादकोंकी • समय और प्रतिपाद्यों की स्थिति आदिका भेद अवश्य है, जिसके कारण उक्त शासनोंको विभिन्न जरूर मानना पड़ेगा । और इस लिये यह कभी नहीं कहा जा सकता कि महावीर भगवान ही इन सब विभिन्न शासनोंका विधान किया था उनकी वाणीमें ही ये सब मत अथवा इनके प्रतिपादक शास्त्र इसी रूपसे प्रकट हुए थे । ऐसा मानना और समझना नितान्त भूलसे परिपूर्ण तथा वस्तुस्थितिके विरुद्ध होगा । अतः श्री कुंदकुंदाचार्यने गुणव्रतों के संबंध में, 'एव शब्द लगाकर - 'इयमेव गुणव्वया तिण्णि" ऐसा , जैनाचार्योका शासनभेद । Jain Education International २०३ लिखकर - जो यह नियम दिया है कि, दिशाविदिशाओंका परिमाण, : अनर्थदंडका त्याग और भोगोपभोगका परिमाण, ये ही तीन गुणवत. हैं दूसरे नहीं, इसे उस समयका, उनके सम्प्रदायका अथवा खास उनके शासनका नियम समझना चाहिये । और श्रीअमितगतिने 'जिनेश्वरसमाख्यातं त्रिविधं तद्गुणत्रतं' इस वाक्य के द्वारा दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदंडविरतिको जो जिनेंद्रदेवका कहा हुआ गुणव्रत बतलाया है उसका आशय प्राय: इतना ही लेना चाहिये कि अमितगति इन व्रतोंको जिनेंद्रदेवका - महावीर भगवानका - कहा हुआ समझते थे अथवा अपने शिष्योंको इस ढंगसे समझाना उन्हें इष्ट था । इसके सिवाय यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि, महावीर भगवानने ही इन दोनों प्रकारके गुणव्रतोंका प्रतिपादन किया था। इसी तरह अन्यत्र भी जानना । वास्तवमें हर एक आचार्य उसी मतका प्रतिपादन करता है जो उसे इष्ट होता है और जिसे वह अपनी समझ के अनुसार सबसे अच्छा तथा उपयोगी समझता है और इस लिये इन विभिन्न शासनों को आचार्योंका अपना अपना मत समझना चाहिये । हमारी राय में ये सब शासन भी, जैसा कि हमने अपने पहले लेखोंमें प्रकट किया है, पापरोगकी शांति के नुसखे ( Prescriptions ) हैं - ओषधिकल्प हैं- जिन्हें आचार्योंने अपने अपने देशों तथा समयोंके शिष्योंकी प्रकृति और योग्यता आदिके अनुसार तय्यार किया था । और इस लिये सर्व देशों, सर्व समयों और सर्व प्रकारकी प्रकृतिके व्यक्तियोंके लिये अमुक एक ही नुसखा उपयोगी होगा, ऐसा हठ करने की जरूरत नहीं है। जिस समय और जिस प्रकारकी प्रकृति आदिके व्यक्तियोंके लिये जैसे ओषधिकल्पोंकी जरूरत होती है, बुद्धिमान वैद्य, उस समय और उस प्रकारकी प्रकृति आदिके व्यक्तियोंके For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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