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________________ २०२ जैनहितैषी . [भाग १४ अर्थात्, उत्तर-उत्तरकी प्रतिमाओंमें, अपने अपने नहीं दिया। और लक्षण अथका स्वरूप जो गुणोंके साथ, पूर्व-पूर्वकी प्रतिमाओंके सारे गुण दिया है वह इस प्रकार है:विद्यमान होने चाहिये। बारह व्रतोंमें सल्लेख- अयदंडपासविक्कयकूडतुलामाणकूरसत्ताणं । नाको स्थान देनेसे 'वतिक' नामकी दूसरी जं संगहो ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तिदियं ॥ प्रतिमामें उसकी पूर्ति आवश्यक हो जाती है। इसमें लोहेके दंड-पाशको न बेचने और बिना उस गुणकी पूर्तिके अगली प्रतिमाओंमें झूठी तराजू , झूठे बाट तथा क्रूर जंतुओंके ही आरोहण नहीं हो सकता और सल्लेखनाकी संग्रह न करनेको तीसरा गुणव्रत बतलाया गया पर्तिपर शरीरकी ही समाप्ति हो जाती हैं, फिर है। अनर्थदंडका यह लक्षण अथवा स्वरूप समंतअगली प्रतिमाओंका अनुष्ठान कैसे बन सकता भद्रादिकके पंचभेदात्मक अनर्थदंडके लक्षण तथा है। अतः सल्लेखनाको शिक्षाव्रत मानकर दूसरी स्वरूपसे बिलकुल विलक्षण मालूम होता है। प्रतिमामें रखनेसे तीसरी सामायिकादि प्रतिमा- इसी तरह देशविरतिका लक्षण भी आपका औओंका अनुष्ठान अशक्य हो जाता है और वे रोंसे विभिन्न पाया जाता है । आपने उस देशमें केवल कथनमात्र रह जाती हैं, यह बड़ा दोष गमनके त्यागको देशविरति बतलाया है जहाँ आता है। इस पर विद्वानोंको विचार करना व्रतभंगका कोई कारण मोजूद हो * । और इस चाहिये। इसी लिये प्रसंग पाकर यहाँ पर यह लिये जहाँ व्रतभंगका कोई कारण नहीं उन देशोंमें विकल्प उठाया गया है। संभव है कि ऐसे ही गमनका त्याग आपके उक्त व्रतकी सीमासे बाहर किन्हीं कारणोंसे समंतभद्र, उमास्वाति, सोमदेव, समझना चाहिये । दूसरे आचार्योंके मतानुसार अमितगति और स्वामिकार्तिकेयादि आचार्याने देशावकाशिक व्रतके लिये ऐसा कोई नियम नहीं सल्लेखनाको शिक्षावतोंमें स्थान न दिया हो। है। वे कुछ कालके लिये दिग्वतद्वारा ग्रहण किये अथवा वसनंदी आदिकका सल्लेखनाको शिक्षावत हुए क्षेत्रके एक खास देशमें स्थितिका संकल्प करार देने में कोई दूसरा ही हेतु हो । उन्हें प्रति- करके अन्य संपूर्ण देशों-भागोंके त्यागका विधान माओंके विषयका अपने पूर्व गुणोंके साथ विवृद्ध करते हैं चाहे उनमें व्रतभंगक कोई कारण हो होना ही इष्ट न हो-कुछ भी हो उसके मालूम या न हो । जैसा कि देशावकाशिक व्रतीके होनेकी जरूरत है । और उससे आचार्याका शास- निम्न लक्षणसे प्रकट है।नभेद और भी अधिकताके साथ व्यक्त होगा। .. स्थास्यामीदमिदं यावदियत्कालमिहास्पदे । गुणवतोंके सम्बंधमें भी वसुनन्दीका शासन इति संकल्प्य संतुष्टस्तिष्टन्देशावकाशिकी ॥ समंतभद्रादिके शासनसे विभिन्न है। उन्होंने -इत्याशाधरः । दिग्विरति, देशविरति और संभवतः अनर्थदंड- यहाँ पर हमें इन व्रतोंके लक्षणादिसंबंधी विशेष विरतिको गुणव्रत करार दिया है। अनर्थदंडके मतभेदको दिखलाना इष्ट नहीं है । वह वसुसाथमें 'संभवतः' शब्द इस वजहसे लगाया नन्दीसे पहले उल्लेख किये हुए आचार्योंमें भी गया है कि उन्होंने अपने ग्रंथम उसका नाम थोडा बहत, पाया जाता है। और इन व्रतोंके * श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु। अतीचारोमि भी अनेक आचार्योंके परस्पर मतस्वगुणाः पूर्वगुणैः सह संतिष्टन्ते क्रमविवृद्धाः ॥ • वयभंगकारणं होइ जम्मि देसाम्म तत्थ णियमेण । --समंतभदः। कीरइ गमणणियत्ती तं जाण गुणव्वयं विदियं ॥२१४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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