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________________ अङ्क ७-८] . जैनाचार्योंका शासनभेद। इससे. स्पष्ट है कि वसुनन्दी आचार्यका जिस प्रकार परिधियाँ नगरकी रक्षा करती हैं शासन, इस विषयमें, पहले कहे हुए सभी आचा- उसी प्रकार 'शील' ब्रतोंकी पालना करते हैं, यौँके शासनसे एकदम विभिन्न है । आपने ऐसा श्रीअमृतचन्द्र आचार्यका कहना हैx। भोगपरिभोगपरिमाण नामके व्रतको, जिसे श्वेताम्बराचार्य श्रीसिद्धसेनगणि और यशोभद्रकिसीने गुणव्रत और किसीने शिक्षावत माना जी भी अणुव्रतोंकी दृढताके लिये शीलवतोंका था, दो टुकड़ोंमें विभाजित करके उन्हें शिक्षा- उपदेश बतलाते हैं+ । अतः अहिंसादिक व्रतोंकी . व्रतोंमें सबसे पहले दो व्रतोंका स्थान प्रदान रक्षा, परिपालना और दृढता संपादन करना ही किया है और भोगविरतिके संबंधमें लिखा है सप्तशीलोंका मुख्य उद्देश्य है। और इस दृष्टिसे कि उसे सूत्र में पहला शिक्षाव्रत बतलाया है। सप्तशीलोंमें वर्णित सामायिक और प्रोषधोपवासमालूम नहीं वह कौनसा सूत्रग्रंथ है, जिसमें को नगरकी परिधि और शस्यकी वृत्ति (धान्यकेवल भोगविरतिको प्रथम शिक्षाव्रत प्रतिपादन की बाड़ ) के समान अणुव्रतोंके परिरक्षक किया है । इसके सिवाय आपने सामायिक और समझना चाहिये । वहाँ पर मुख्यतया रक्षणीय प्रोषधोपवास नामके दो व्रतोंको, जिन्हें उपर्युक्त व्रतोंकी रक्षाके लिये उनका केवल अभ्यास सभी आचार्योंने शिक्षाव्रतोंमें रक्खा है, इन होता है, वे स्वतंत्र व्रत नहीं होते। परंतु अपनी व्रतोंकी पंक्तिमेंसे ही कतई निकाल डाला है। अपनी प्रतिमाओंमें जाकर वे स्वतंत्र व्रत बन शायद आपको यह खयाल हुआ हो कि जब जाते हैं और तब परिधि अथवा वृति (बाड़) 'सामायिक' और 'प्रोषधोपवास' नामकी के समान दूसरोंके केवल रक्षक न रहकर नगर दो प्रतिमाएँ ही अलग हैं तब व्रतिक प्रतिमामें अथवा शस्यकी तरह स्वयं प्रधानतया रक्षणीय इन दोनों व्रतोंके रखनेकी क्या जरूरत है। हो जाते हैं । यही इन व्रतोंकी दोनों अवस्थाओंमें और इसी लिये आपको वहाँसे इन व्रतोंके निका- परस्पर भेद पाया जाता है। लनेकी जरूरत पड़ी हो अथवा इस निकालनेकी मालम नहीं उक्त वसुनन्दी सैद्धान्तिकने, कोई दूसरी ही वजह हो । कुछ भी हो, यहाँ और श्रीकंदकुंद तथा जिनसेनाचार्यने हम, इस विषयमें, कुछ विशेष विचार उपस्थित भी, सल्लेखनाको शिक्षावतोंमें क्यों रक्खा है, करनेकी जरूरत नहीं समझते । परंतु इतना जब कि शिक्षाव्रत अभ्यासके लिये नियत जरूर कहेंगे कि बारह व्रतोंमें व्रतिक प्रतिमामें- किये गये हैं और सल्लेखनामरणके संनिकट सामायिक और प्रोषधोपवास शीलरूपसे निर्दिष्ट होनेपर एक बार ग्रहण की जाती है, उसका हैं और अपने अपने नामकी प्रतिमाओंमें वे पनः पुनः अनुष्ठान नहीं होता और इसलिये व्रतरूपसे प्रतिपादित हुए हैं* । शीलका लक्षण उसके द्वारा प्रायः कोई अभ्यासविशेष नहीं अकलंकदेव और विद्यानंदने, अपने अपने बनता। दूसरे, प्रतिमाओंका विषय अपने अपने वार्तिकोंमें 'व्रतपरिरक्षण' किया है। पूज्यपाद पूर्वगुणोंके साथ क्रमविवृद्ध बतलाया गया है। भी 'व्रतपरिरक्षणार्थ शीलं,' ऐसा लिखते हैं। - - - परिचय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति • यथाः-यत्प्राक सामायिकं शीलं तद्रतं प्रतिभावतः। शीलानि । -पुरुषार्थसिद्धथुपायः। यथा तथा प्रोषधोपवासोऽपीत्यत्र युक्तिवाक् ॥ + प्रतिपन्नस्याणुव्रतस्यागारिणस्तेषामेवाणुव्रतानां दा -आशाधरः। व्यापादनाय शीलोपदेशः। -तत्त्वार्थसूत्रटीका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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