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________________ जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध | अङ्क ७-८ ] वस्तुओंको किसी विधि के साथ मिलानेसे जो - नवीन वस्तु इस समय बन जाती है वह इस प्रकारके मिलाप से पहले भी बनती थी और वही आगे को भी बनेगी, जैसा कि नीला और पीला रंग मिलनेसे जो हरा रंग इस समय बनता है वही सदासे बनता रहा है और सदाको बनता रहेगा । ऐसे ही किसी वस्तुके प्रभावसे जो परि वर्तन किसी दूसरी वस्तु हो जाता है वह पहले भी होता था और वही आगेको भी होगा ; जैसा कि आगकी गर्मी से पानीकी जो भाप इस समय बनती है वही पहले बनती थी और वही आगेको भी बनती रहेगी । लकड़ियोंको आगमें डालनेसे, इस समय, जैसी वे कोयला धुआँ और राखरूप हो जाती हैं वैसी ही पहले भी होती थीं और आगेको भी होती रहेंगीं । सारांश यह कि, संसारकी वस्तुओं के आपस में अथवा अन्य वस्तुओंपर अपना प्रभाव डालने या अन्य वस्तुओंसे प्रभा वित होने आदिके सब प्रकारके गुण और स्वभाव ऐसे नहीं हैं जो बदलते रहते हों या बदल सकते हों, बल्कि वस्तुओंकी जाँच और खोजके द्वारा उनके ये सब स्वभाव अटल ही दिखाई देते हैंअनादि अनन्त ही सिद्ध होते हैं । इस प्रकार मनुष्यको अपने बुद्धिबलसे काम लेने पर जब यह बात सिद्ध हो जाती है कि वृक्षसे बीज और बीजसे वृक्षकी उत्पत्तिके समान या मुरगी और मुरगीसे अंडेके समान संसारके मनुष्य, अनेक पशु पक्षी और वनस्पतियाँ नसल दर नसल, सन्तान दर सन्तान, अनादिकाल से ही चले आते हैं, किसी समयमें इनका आदि नहीं हो सकता और इन सबके अनादि होनेके कारण इस पृथ्वीका भी अनादि होना जरूरी . है जिसपर वे अनादि कालसे उत्पन्न होते और वास करते हुए चलें आवें। साथ ही, वस्तुओंके गुण, स्वभाव और आपस में एक दूसरे पर असर डालने तथा एक दूसरेके असरको ग्रहण करनेकी अंडे से सभी Jain Education International १८९ 麻 प्रकृति आदि भी अनादि काल से ही चली आती है, तब जगतके प्रबन्धका सारा ही ढाँचा मनुव्यकी आँखों के सामने हो जाता है, उसको साफ साफ दिखाई देने लग जाता है कि दुनियामें जो कुछ भी हो रहा है वह संत्र वस्तुओंके गुण और स्वभावसे ही हो रहा है । संसारकी इन सब वस्तुओंके सिवाय न तो कोई भिन्न प्रकार की शक्ति ही इस प्रबन्धमें कोई कार्य कर रही है और न किसी भिन्न शक्तिकी किसी प्रकारकी कोई जरूरत ही है । जैसा कि जब समुद्रके पानी पर सूरज की धूप पड़ती है तो उस धूपमें जितना ताप होता है उसीके अनुसार समुद्रका पानी उस तापसे प्रभावित हो ( तप्त हो) भाफ बनजाता है और जिधरको हवाका प्रवाह होता है। उधरको ही माफके रूपमें बहा चला जाता है । फिर जहाँ कहीं भी उसे इतनी ठंड मिल जाती है कि वह पानीका पानी हो जावे वहीं पानी होकर बरसने लगता है । पुन: वह बरसा हुआ पानी अपने समतल रूप रहनेके स्वभावके कारण ढालहीकी तरफको बहने लग जाता है और धरतीकी उस वस्तुको, जो पानी में घुल सकती है, घोलता और अपने साथ लेता हुआ चला जाता है । इसी प्रकार जो वस्तुएँ पानीपर तैर सकती हैं वे भी उस पानी पर तैरती हुई साथ साथ चली जाती हैं, परन्तु जो वस्तुएँ न पानीमें घुल सकती हैं और न पानी पर तैर सकती हैं, वे प्रवाहित पानी के धक्कोंसे कुछ दूरतक तो लढ़कती हुई साथ जाती हैं परन्तु जिस स्थानपर धरतीका ढाल कम होनेके कारण पानीका प्रवाह हलका हो जाता है वहीं वे वस्तुएँ रह जाती हैं । पानीका यह प्रवाह अपने मार्गकी हलकी हलकी रुकावटों को हटाकर अपना मार्ग साफ करता, बलवान् रुकावटोंसे अपना मार्ग अदलता बदलता, घूमता घामता ढालहीकी ओर बहता जाता है । और जहाँ कहीं भी कोई गड्ढा पाता है वहीं जमा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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