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________________ २१० जैनहितैषी [भाग १४ प्रशंसा की है और उन्हें भगवान्, अद्वितीय उससे साधारण जनता पर बुरा असर भी विद्वान, न्यायविद्याके पारगामी, जैनधर्मको पड़ता है । इसी तरह जातिप्रबोधककी लेखनप्रकाश करनेवाले अद्वितीय सूर्य, इस कलिका- प्रणालीको भी हम अनेक अंशोंमें अच्छा लमें धर्मको परवादियोंसे बचानेवाले, जैन- नहीं समझते हैं, परंतु इतनेसे ही ये पत्र जैनकी धर्मके स्तंभस्वरूप, आचार्यों में भी उत्कृष्ट आचार्य कोटिसे निकलकर अजैन नहीं हो जाते । जैन इत्यादि विशेषणोंके साथ स्मरण करके उनके शब्द एक बहुत व्यापक शब्द है। उसमें दिगप्रति अपना बहुमान प्रदर्शित किया है । परंतु म्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी और उनकी शाखा साथ ही आपकी कथा जोड़नेवाले ब्रह्मचारी प्रतिशाखायें सभी शामिल हैं, सभा किस नमिदत्तकी बुद्धि पर दुःख प्रकाशित करते हुए किसको अजैन करार देगी? सभाका काम यह भी जतलाया है कि यह कथा बिल- ज्यादा बिल- ज्यादासे ज्यादा इतना ही हो सकता था कि माता कुल असम्बद्ध और बनावटी है, इससे वह इन पत्रोंकी लेखनप्रणाली पर शोक प्रकाभगवान् समंतभद्रका गौरव उलटा नष्ट होता शित करती, खेद जतलाती, उन्हें अपनी चालहै, इतना ही नहीं, बल्कि इससे जैनजाति और जैनधर्मकी कीर्तिमें भी बहुत बड़ा घब्बा ढाल सुधारनेकी प्रेरणा करती । और उसके सदस्योंका यह कर्तव्य था कि उनके ज्ञानमें जो लगता है । यद्यपि हम बाबू साहबके इस लेखसे जो बातें स्पष्ट रूपसे जैनधर्मके विरुद्ध और "बहुतसे अंशोंमें सहमत नहीं है और अवकाश उसके गौरवको घटानेवाली झलकी थीं उन्हें मिलने पर उस पर कुछ लिखना भी चाहते हैं प्रमाणसहित विशद रूपसे सर्वसाधारण पर तो भी इतना जरूर कहेंगे कि इस लेखके प्रकट करते, जिससे जनताका भ्रम दूर होता । लिखनेमें बाबू साहबका कोई बुरा भाव मालूम परंतु ऐसा कुछ भी न करके सभाने जो यह नहीं होता । क्या सभा इस लेखको जैनधर्म प्रस्ताव पास किया है इससे उसकी अनधिकार अथवा स्वामी समंतभद्रके गौरवको घटानेका चेष्टा पाई जाती है । एक साधारण और स्थानीय उद्योग समझती है ? यदि ऐसा है तो कहना सभा होनेकी हैसियतसे सभाको इस प्रकारकी होगा कि यह सभाकी बड़ी भारी भूल है । नहीं तजवीज देनेका कोई अधिकार नहीं था, और मालूम एक साधारण ग्रंथकर्ताकी भूलें प्रकट यह बात तो उसके अधिकारसे बिलकुल ही बाहर करनेका जैनधर्मके गौरवसे क्या संबंध है, थी कि वह संपूर्ण जैनियों और जैन पंचायतिऔर उस लेखमें ऐसे कौनसे शब्द है, जिनसे योंके नाम इस प्रकारकी आज्ञा जारी करे कि जैनधर्म अथवा स्वामी समंतभद्रके प्रति लेख- कोई भी जैनी अमुक अमुक पत्रोंको जैनपत्र कका कोई बुरा भाव पाया जाय और जिससे न समझे, न तदृष्टिसे खरीदे और न पढ़े। उनके लेखको गौरव घटानेका उद्योग समझ उसका काम सम्मति प्रकाश करनेका था आज्ञा लिया जाय ? उत्तर इसका कुछ भी नहीं हो जारी करनेका नहीं। सकता । हाँ, हम इतना जरूर कह सकते हैं हमारी रायमें कलकत्ता जैनसभाने इस प्रकि लेखोंकी लेखनप्रणाली अच्छी नहीं है और स्तावको पास करके अपने हृदयकी संकीर्णता, उसमें कुछ ऐसी बातें भी हैं, जिनमें लेखकको अनुदारता, अदूरदृष्टता और नासमझीका ही भ्रम हुआ है । बल्कि सत्योदयके विषयमें हमारी परिचय नहीं दिया, बल्कि साथ ही विद्वानोंके शुरूसे यह धारणा है कि उसके अधिकांश प्रति अपनी धृष्टता भी प्रकट की है। लेखोंकी लेखनप्रणाली अच्छी नहीं होती। सरसावा । ता० १६ मई सन् १९२०. - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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