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________________ २०८ जैनहितैषी [भाग १४ करनेका यत्न करती है और परीक्षाप्रधानताका धविरुद्धताका कलंक लगाया जा सके । रही गला घोंटनेके लिये तय्यार है । उसे अभीतक जैनधर्मका गौरव घटानेके उद्योगकी बात, सो किसी कविका यह वाक्य मालम नहीं है- जहाँ तक हमने इन पत्रोंको देखा है इनमें बराजिनमतमहल मनोज्ञ अति कलियुगछादित पंथ । बर जैनधर्मकी प्रशंसाके गीत गाये जाते हैं। समझबूझके परखियो चर्चा निर्णय-ग्रंथ ॥ .. जो शख्स खुले दिलसे दूसरेका यशोगान करता अनगारधर्मामृतकी टीकामें, पं० आशाधरजी हो उसके सम्बंधमें यह कभी खयाल नहीं किया द्वारा उद्धृत किसी विद्वानके निम्न वाक्यकी भी जा सकता कि वह जान बूझकर उसके गौरवको उसे खबर नहीं है: घटानेका कोई काम कर रहा है । हाँ, यह हो पंडितैम॒ष्टचारित्रैबठरैश्च तपोधनैः। सकता है कि गौरवको समझनेमें उसकी समझमें - शासनं जिनचंद्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् * ॥ कछ फर्क हो-वह किसी अपमानकी बातको शायद वह जैनशास्त्रोंके परस्परविरुद्ध भी गौरव समझता हो-परंतु इससे उसपर यह कथनोंको भी सोलह आना महावीर भगवान• इलजाम नहीं लगाया जा सकता कि वह जान द्वारा प्रतिपादित समझती है और इसी लिये बूझकर गौरवको घटानेका उद्योग करनेवाला है। परीक्षा तथा विवेकका दर्वाजा बंद करना चा- डिपुटी कालेरायके इजलासमें एक देहातीका हती है । अस्तु; यह उसकी समझ उसके साथ मुकदमा था । डिपटी साहबने पूरा न्याय किया है; कोई भी सहृदय विद्वान् और विचारवान् और वह देहाती जीत गया। इस पर देहातीने मनुष्य उसकी इस समझका साथी नहीं प्रसन्न होकर भरे इजलासमें दोनों बाँह उठाकर हो सकता। डिपटी साहबका गुणानुवाद गाते हुए यह भी . और यदि उक्त सभा वैसा नहीं समझती और कहा कि " तेरा नाम किस बड़चोदने कालेन परिगणित करती है तो फिर हम नहीं समझते राय धरा तौं तो मेरा धोलेराय है।" इस वाक्यकि वह कैसे इन पत्रोंके लेखोंको सर्वथा जैन- को सुनकर डिपटी साहब कुछ मुसकराहटके धर्मके विरुद्ध कहनेका साहस करती है ! इन साथ चुप हो गये, उन्हें जरा भी क्षोभ नहीं पत्रों में प्रायः ऐसे ही तो लेख रहा करते हैं जो आया और वे यही खयाल करते रहे कि यह प्रचलित रीति-रिवाजोंके विरोध-उनमें देश- गँवार है, इसे इस बातकी तमीज (विवेक ) कालानुसार परिवर्तनसे सम्बंध रखते हैं, प्राचीन नहीं कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ उससे डिपटी रीति-रिवाजोंपर टीका-टिप्पण किया करते हैं साहबके पितादिकको गाली भी दे रहा हूँ। क्योंअथवा इस प्रकारके विचार पबलिकके सामने कि वे जान रहे थे कि उसका आशय बुरा नहीं रक्खा करते हैं कि अमुक सिद्धान्त जैनसिद्धा- है-वह भक्तिसे परिपूर्ण है-इस लिये उन्होंने न्त है या कि नहीं और हो भी सकता है या उक्त वाक्यसे अपना कुछ भी अपमान नहीं कि नहीं। 'जातिप्रबोधक' नामका पत्र तो समझा और न दूसरोंने ही उससे डिपटी साहखास कर सामाजिक विषयोंसे ही सम्बंध रखता बके गौरवमें कुछ खलल ( वाधा ) आते देखा, है । उसमें जैनधर्मके सिद्धान्तोंका ऊहापोह बल्कि सबको उस देहातीके गँवारपन पर ही करनेवाले ऐसे कोई लेख निकले भी नहीं जिनपर हँसी आई। __ * जिनेंद्र भगवानके निर्मल शासनको भ्रष्टचरित्र शीतकालमें एक मुनि महाराज रात्रिके पंडितों और धूर्त मुनियोंने मलीन कर दिया है ! समय जंगलमें नग्न बैठे हुए ध्यान लगा रहे थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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