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________________ -२३६ बन्धनसे जकड़ा हुआ है । यहाँतक कि हमारा खाना पीना, जाना आना, सोना, जागना और देना लेना इत्यादि सभी बातोंमें धर्मकी छाप लगी हुई है । हम हिन्दू होकर सब कुछ छोड़ सकते हैं पर धर्मको किसी अवस्थामें भी नहीं छोड़ सकते । हमारे पूर्वज धर्मको ही अपना जीवन सर्वस्व मानते थे और यही उपदेश शास्त्रों में वे हमको भी कर गये हैं । मनु लिखता है: - जैनहितैषी - धर्मएव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः । तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मानोधर्मो हतोऽवधीत् ॥ प्राचीन आर्य लोग धर्मको केवल परलोकका ही साधन नहीं मानते थे, किन्तु इसलोकका बड़ेसे बड़ा सुख भी धर्मके बिना उनकी दृष्टिमें हेय था । त्रिवर्गमें जिसका सम्बन्ध संसारसे है, धर्म ही सबसे पहला और मुख्य माना गया है । कणाद तो अपने वैशेषिक दर्शनमें अभ्युदयकी नींव भी धर्मपर ही रखता है । यथाः येतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः । अतएव हम अपने शास्त्रोंको मानते हुए और पूर्वजों पर श्रद्धा रखते हुए किसी दशामें मी धर्मकी उपेक्षा नहीं कर सकते । पश्चिमकी शिक्षाका प्रभाव जिन लोगों पर पड़ा है, वे चाहे हमारे स्वदेशी बान्धव ही क्यों न हों, हमको भी यह सलाह देते हैं कि हम भी यदि इस जातीय उन्नतिकी दौड़में भाग लेना चाहते हैं तो धर्मकी कोई ऐसी सीमा नियत कर दें, जिससे आगे यह अपने पैर न फैला सके । • उनका यह कथन है कि जबतक हमारे हरएक काममें धर्मका पचड़ा लगा हुआ है, हम समयकी गति के साथ नहीं चल सकते और न अपना १ जैनाचार्य श्रीसोमदेवसूरिने अपने नीतिवाक्या मृत में भी धर्मका लक्षण इन्हीं वाक्योंमें दिया है । -सम्पादक । Jain Education International [ भाग १४ कोई जातीय आदर्श बना सकते हैं। जो लोग " हमको यह सलाह देते हैं, हम उनके सद्भावमें कोई संदेह नहीं कर सकते और यह भी हम मानते हैं कि देशहितकी प्रेरणा से ही यह सलाह हमको देते हैं । पर हाँ यह हम अवश्य कहेंगे कि वर्तमान धार्मिक अवस्थाके विकृत स्वरूपको देख कर और हमारे धर्मके वास्तविक तत्त्व पर गम्भीर दृष्टि न डाल कर ही यह सम्मति दी जाती है। यदि धर्मको उसके वास्तविक रूप में देखा जाय तो वह कदापि उपेक्षणीय नहीं हो सकता । यद्यपि विदेशियोंके संसर्गसे या हमारे दौर्भाग्यसे यहाँ भी धर्मका विधेय वह नहीं रहा, जो प्राचीन कालमें था । हमें यह कहने में कुछ भी संकोच नहीं हैं कि सभ्यताके आदि गुरु आर्योंका धर्म मतवाद से सर्वथा पृथक् है / इस मतवादको धर्म समझनेका यूरोपमें यह परिणाम कि वह राजनैतिक और सामाहुआ जिक क्षेत्रसे ही अलग नहीं किया गया किन्तु मानसिक और नैतिक उच्चभावोंकी रीति के लिए. भी अनावश्यक समझा गया । उसका सम्बन्ध केवल उपासनालयोंसे रह गया और वह भी रविवार के दिन घंटे दो घंटे के लिए । बहुतसे स्वतन्त्रता देवीके उपासक तो इससे भी मुक्त हो गये। हम उनकी बुद्धिमत्ताकी प्रशंसा करते हैं । यदि वे ऐसा न करते और हमारी तरहसे अपनी विचारशक्तिको कल्पनाशक्तिके अधीन कर देते तो आज उनके देशमें विद्या और बुद्धिका यह विकास, कलाकौशलकी यह उन्नति और उद्योग तथा व्यवसायका यह प्रभाव देखने में न आता । यदि हमारे धर्म की भी ऐसी ही व्यवस्था हो औरवह वास्तवमें मतवादका प्रवर्तक हो, तब तो हमको भी कृतज्ञता के साथ उनकी यह सलाह मान लेनी चाहिए और यदि ऐसा नहीं है तो हमें धर्मका वास्तविक तत्त्व उन्हें सम झाना चाहिए । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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