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जैनहितैषी
[भाग १४
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साधु-विवेक ।
(ले०-ला० दलीपसिंहजी कागजी, देहली।)
असाधु । वस्त्र रँगाते, मन न रँगाते, कपटजाल नित रचते हैं; 'हाथसुमरनी पेट कतरनी,' पर-धन-वनिता तकते हैं। आपापरकी खबर नहीं, परमार्थिक बातें करते हैं; ऐसे ठगिया साधु जगतमें, गली गलीमें फिरते हैं ॥१॥
साधु । राग, द्वेष जिनके नहिं मनमें, प्रायः विपिन विचरते हैं; . क्रोध, मान, मायादिक तजकर, पंचमहाव्रत धरते हैं। ज्ञान-ध्यानमें लीनचित्त, विषयोंमें नहीं भटकते हैं। वे हैं साधु; पुनीत, हितैषी, तारक जो खुद तरते हैं॥२॥ .
स्वदेश-सन्देश ।
(ले०-श्रीयुत भगवन्त गणपति गोयलीय।) महावीरके अनुयायी प्रिय पुत्र हमारेश्वेताम्बर, ढूंढिया, दिगम्बर-पंथी सारे। . उठो सबेरा हो गया, दो निद्राको त्याग; कुक्कुट बाँग लगा चुका, लगा बोलने काग।
अँधेरा गत हुआ।
उदयाचलपर बाल-सूर्यकी लाली छाई; उषा सुन्दरी अहो, जगाने तुमको आई। मन्द मन्द बहने लगा, प्रातः मलय समीर; सभी जातियाँ हैं खड़ी, उन्नति-नदके तीर।
लगाने डुबकियाँ ॥
उठो उठो, इस तरह कहाँ तक पड़े रहोगे,, कुटिल कालकी कड़ी धमकियाँ अरे ! सहोगे। मेरे प्यारो सिंहसे, बनो न कायर स्यार; तन्द्रामय-जीवन बिता, बनो न भारत-भार।
शीघ्र शय्या तजो॥
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