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________________ अङ्क ७-८] सम्पादक जैनगजट और विचार-परिवर्तन। २४१ प्रभाव ज्यों बढ़ता है; त्यों त्यों वह अपनी भूलें सम- पंडितका बनाया हुआ ग्रन्थ पढ़ा है, जिसमें झता है और अपने विचारोंको अधिकाधिक भट्टारकोंको न माननेवाले तेरहपंथियोंको परिष्कृत और स्वच्छ करता जाता है । इसीसे मुसलमान और म्लेच्छंतुल्य बतलाया है ! परन्तु तो मालूम पड़ता है कि वह सत्यान्वेषी है. ये लोग चिल्लाते ही रहे और तेरहपन्थका हो गया । यह जिज्ञासु है और उसके हृदयमें किसी तरहका आग्रह या पक्षपात नहीं है । यही तो मनुष्यका ___ सब आगरा और जयपुर आदिके विद्वानोंके " विचारपरिवर्तनका ही तो फल था । मनुष्यत्व है । यही तो उसकी शोभा है। ___ यदि सम्यग्दृष्टित्वका अर्थ यह है कि उसका विचारोंका परिवर्तन उसी अवस्थामें बुरा धारक आपके समान जीवनभर जहाँका तहाँ कहा जा सकता है जब वह हृदय और बुद्धिबना रहे, टससे मस नहीं होवे, जो बात पकड की ताड़नाके बिना, किसी स्वार्थके वश किया ले उसे मर जानेतक भी नछोडे, जो कछ आपने जाता है । परन्तु वास्तवमें विचार किया जाय समझ लिया वही सर्वज्ञका वचन और जो दूसरे तो उसे विचारोंका परिवर्तन कह ही नहीं सकते। समझते हैं वह सब मिथ्यात्व, तो महाराज यह वह तो एक तरह का ढोंग है, छल है, और सम्यग्दर्शन आपको ही मुबारिक हो, हम तो वञ्चकता है । विचार तो उसके वही रहते हैं इसे दरसे ही नमस्कार करते हैं। यदि दुर्भाग्यसे संसारमें आपके इस अनौखे सम्यग्दर्शनकी ही पूजा 2. दूसरोंकी आँखोंमें धूल झोंकनेके लिए, वह । कहने लगता है कि अब मेरे विचार पलट गये होती रहती तो वह अब तक असभ्य अवस्थामें ही हैं और अब मैं सत्य मार्ग पर आ गया हूँ। इस पड़ा रहता । न वह समता और अहिंसा आदि तरहके स्वार्थसाधु जिस तरह अपने विचारोंका तत्त्वोंका स्वर्गीय संदेशा लानेवाले भगवान् र परिवर्तन प्रकट करने लगते हैं, उसी तरह इन्हींके महावीर, बुद्धदेव आदि महात्माओंको जन्म दे .. सकता आर न अपना छातापरसघार अन्धकार- विचार बदल जाते हैं अपने समाजके विचा भाई-बन्धु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनके की धटाको दूर करने में समर्थ होता । बल्कि * रोंको वे बुरा समझने लगते हैं, परन्तु साहसके दूरतक विचार कर सोचा जाय तो आपके इस अभावसे और वर्तमान सम्मान-प्रतिष्ठा आदिके जैनधर्मका अभ्यदय भी नहीं होता। लोभसे वे उन्हें प्रकट नहीं करते हैं-हृदयमें ही ___ और दूर क्यों जाते हैं, आपका यह तेरह तरह छुपाये रहते हैं। उन्हें भय रहता है कि यदि हम पन्थ या शुद्धाम्नाय क्या है ? यदि इसके इस अपने असली विचार प्रकट कर देंगे तो समाजमें संचालक आप ही जैसे टससे मस न होनेवाले हमारी इज्जत तीन कौड़ीकी हो जायगी और होते, जैनधर्मकी छाप लगे हुए सभी शास्त्रोंको हमारे स्वार्थीका घात होने लगेगा । इस इज्जत सर्वज्ञवचन समझकर चुप हो जानेवाले होते, और आबरूके लिए कोई कोई तो यहाँ तक तो क्या इसकी जड़ जम सकती थी ! उस नीच हो जाते हैं कि अपने विचारोंको तो समय भी इनके विरुद्ध उछल कूद करनेवाले छपाते ही हैं, साथ ही उन विचारोंको निर्भीक आप ही जैसे मठपतियों भट्टारकों और उनके होकर प्रकट करनेवालोंके प्रति अन्याय और शिष्यगणोंकी कमी नहीं थी। उन्होंने इनको अत्याचारतक करने लगते हैं ! कोसने और धर्मभ्रष्ट सिद्ध करनेमें भी कोई इस समय हमारे समाजकी जो अवस्था है बात नहीं उठा रक्खी थी। हमने एक बीसपंथी उसके अनुसार मान-सम्मान, आदर-आतिथ्य, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522881
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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