Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 58
________________ जैनहितैषी [भाग १४ आश्रय-प्रश्रय उन्हीं लोगोंको मिलता है जो हैं और इसका कारण उसका अमुक स्वार्थ गतानुगतिक विचारोंके माननेवाले और है। अमुक सभाका प्रेसीडेण्ट होनेके लिए,. प्रकट करनेवाले होते हैं। इस मार्गमें जरा अमुक पदवी पानेके लिए, अमुक धनीसे भी कष्ट नहीं है, अतएव इस पर चलनेवालोंकी सहायता पानेके लिए, अथवा इसी तरहके भी कमी नहीं । परन्तु जो लोग गतानुग-3 - अन्य किसी मतलबसे उसने यह पाप किया विक नहीं हैं, प्रचलित विचारोंसे विरुद्ध श्रम ही सफल हो सकता है और न उस है। इसके बतलाये बिना न तो आपका परिविचार रखते हैं, उनका मार्ग बड़ा ही कण्टका- विचारपरिवर्तन करनेवालेको बुरा ही सिद्ध. कीर्ण है। थोड़ेसे इने गिने विचारशीलोंको किया जा सकता है। . छोड़कर सभी उनका तिरस्कार करते हैं, उनसे - विचारपरिवर्तकों पर सबसे बड़ा आक्षेप घृणा करते हैं और उन्हें कष्ट देने तकसे यह किया जाता है कि उनके विचार आर्षग्रन्थों भी बाज नहीं आते हैं । अतएव इस पर चल- या प्राचीन शास्त्रोंसे विरुद्ध हैं। साधारण जननेका साहस वे ही लोग करते हैं, जो सत्यके ताके ऊपर सबसे बड़ा प्रभाव इसी बातका न पडता है और यही सनकर वह आपसे बाहर हो अनुयायी हैं, जिनके हृदय है और जो लोगोंके . अज्ञान अन्धकारके कारण दःखी हैं। उन्हें जाया करती है । उसमें यह समझनेकी शक्ति सब तरहके स्वार्थोंको लात मारनी पडती है नहीं कि संसारमें जो सब ग्रन्थ या पुस्तकें शास्त्र और असा कोंका स्वागत करना पडता है। या ग्रन्थ नामस प्रसिद्ध ह व सभा सवज्ञभाषित ऐसे लोगोंकी संख्या हमारे ही समाजमें नहीं, नहीं हैं। उनका प्रत्येक अक्षर और शब्द ९, भगवानकी वाणी नहीं है। प्रायः छद्मस्थोंने हीसभी समाजोंमें कम है और रहेगी। जिनमें अल्पज्ञानी भी थे-शास्त्रोंकी रचनायें की - यह नहीं कहा जा सकता कि उन लोगोंके हैं । अतः उनसे भलें भी हो सकती थीं । उनविचार हमेशा ठीक ही होते हैं-उनसे मेंसे बहतोंने लोगोंकी कल्याणकामनासे जैसा भूलें होती ही नहीं, परन्तु फिर भी उनके वे जानते थे उसके अनुसार लिखा है, बहुताने साहसका और सत्यप्रेमका मूल्य है । नितान्त सुन सुनाकर लिखा है और बहुतोंने कषायादिके पक्षपाती और अन्धविश्वासीको छोड़कर उनकी वश भी लिखा है। जैनहितैषीमें ऐसे बहुतसे सत्यप्रियताकी सभी विवेकी प्रशंसा करेंगे । ग्रन्थोंकी समालोचनाएँ हो चुकी हैं जो अभीतक इसके सिवाय उनमें एक विशेषता और भी भगवानकी वाणी समझ कर माने पूजे जाते थे; रहती है, अर्थात् अपनी भूलके मालूम होते परन्तु वास्तवमें जो जाली हैं और जिनके रचही वे तत्काल ही उसको सुधार लेते हैं और नेवालोंके उद्देश्य अच्छे नहीं थे। इसके सिवाय अपने विचारोंको बदल डालते हैं। उन्हें अपनी जैनाचार्योंके कथनोंमें परस्पर मतभेद भी पाया बातका आग्रह या हठ नहीं रहता है। जाता है जिसका कुछ परिचय, शासनभेदादि सम्पादक महाशयको चाहिए कि वे जिन संबंधी लेखों द्वारा, समय समय पर हितैषीके जिन लोगोंके विचारपरिवर्तनोंके नमूने पुरानी पाठकोंको मिलता रहा है। ऐसी दशामें ग्रन्थों फाइलोंमेंसे ढूँढ ढूँढ़ कर दिया करते हैं, लगे या शास्त्रोंकी दुहाई देकर यह हल्ला मचाना कि हाथ उनके विषयमें यह भी प्रकट कर अमुक लेखक या वक्ता उनके विरुद्ध लिखता दिया करें तो अच्छा हो कि अमुक बाबूके या बोलता है, इस लिए उसने जैनधर्म छोड़ विचार पहले ऐसे थे, पर अब ऐसे हो गये दिया-वह भ्रष्ट हो गया-उससे बचना चाहिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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