Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 53
________________ अङ्क ७-८] धर्म और समाज। २३७ हम यहाँ पर कह देना चाहते हैं कि मत या पति पतिधर्मका, स्त्री स्त्रीधर्मका, गृहस्थ संप्रदायके अर्थमें धर्म शब्दका प्रयोग करना भी गृहस्थधर्मका और यति यतिधर्मका साधन न करें : हमने अधिकतर विदेशियोंहीसे सीखा है। जब तो फिर संसारमें न कोई मर्यादा रहे, न व्यवविदेशी भाषाओंके 'मजहब' 'रिलीजन' शब्द स्था। संसारमें शान्ति और व्यवस्था तभी रह यहाँ प्रचलित हुए, तब भूलसे या स्पर्धासे हम सकती है, जब प्रत्येक मनुष्य कर्तव्यके. अनुरोउनके स्थानमें 'धर्म' शब्दका प्रयोग करने से अपने अपने धर्मका पालन करे । अतएव लगे। परन्तु हमारे प्राचीन ग्रन्थों में जो विदेशि- इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं कि धर्म ही योंके आनेसे पूर्व रचे गये थे, कहीं पर भी 'धर्म' संसारकी प्रतिष्ठाका कारण है । धर्मके इसी शब्द मत, विश्वास या संप्रदायके अर्थमें प्रयुक्त महत्त्वको लक्ष्यमें रखकर तैत्तिरीयारण्यकमें नहीं हुआ, प्रत्युत उनमें सर्वत्र स्वभाव और यह कहा गया है:कर्तव्य इन दो ही अर्थोमें इसका प्रयोग पाया धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजा जाता है । प्रत्येक पदार्थमें उसकी जो सत्ता है, १ उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदन्ति धर्मे सर्व प्रतिष्ठितम् ॥ जिसको स्वभाव भी कहते हैं, वही उसका धर्म है । जैसे वृक्षका धर्म जड़ता और पशुका धर्म अब हम कुछ प्रमाण भी जिनमें 'धर्म' पशुता कहलाती है, ऐसे ही मनुष्यका धर्म मन- शब्द प्रस्तुत अर्थमें प्रयुक्त हुआ है, उद्धृत करते ध्यता है । वह मनुष्यता किस वस्तु पर अवल- हैं. । महाभारतमें धर्मका निर्वचन इस प्रकार म्बित है ? इसमें किसीका मतभेद नहीं हो सकता किया गया है:कि मनुष्यताका आधार बुद्धि है । बुद्धिकी दो धारणाद्धर्ममित्याहुर्धर्मेण विधृताः प्रजाः । शाखायें हैं, एक कल्पनाशक्ति, दूसरी विचार- यः स्याद्धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ॥ शक्ति । कल्पनाशक्ति, सन्देहात्मक है और विचारशक्ति निर्णयात्मक । बिना सन्देहके किसी 'ध' धातु धारणके अर्थमें है। धात्वर्थसे भी इसीकी पुष्टि होती है, क्योंकि बातका निर्णय हो नहीं सकता । अतएव अपनी कल्पनाशक्तिसे सन्देह उठा कर पुनः विचार यो ध्रियते दधासि वा स धर्मः। शक्तिसे उसका निर्णय करनेमें जो समर्थ है, वही जो धारण किया हुआ प्रत्येक पदार्थको मनुष्य है । संसारमें सिवाय असभ्य और वन्य धारण करता है, वह धर्म है। अग्निमें यदि लोगोंके और कौन ऐसा मनुष्य होगा, जिसको उसका धर्म तेज न रहे फिर कोई उसे अनि ऐसे धर्मकी आवश्यकता न होगी, जो उनको नहीं कहता, ऐसे ही मनुष्य यदि अपने धर्मको मनुष्य बनाता है? त्याग दे तो फिर केवल आकृति और बनावट यह तो हुआ सामान्य धर्म, अब रहा विशेष उसकी मनुष्यताकी रक्षा नहीं कर सकती । धर्म, इसीका दूसरा नाम कर्त्तव्य भी है । मनुष्य उपनिषदोंमें जहाँ 'धर्मश्चर,' 'धर्मान्न प्रमदितव्यम्' चाहे किसी दशा में हो, उसका कुछ न कुछ इत्यादि वाक्य आते हैं, वहाँ भी इससे कर्तव्य कर्तव्य होता है । यदि राजा राजधर्मका, या सदाचारका ही ग्रहण होता है । मनुने धर्मके प्रजा प्रजाधर्मका, स्वामी प्रभुधर्मका, सेवक धृत्यादि जो दस लक्षण बतलाये हैं और जिनको सेवाधर्मका, पिता पितृधर्मका, पुत्र पुत्रधर्मका, धारण करके एक नास्तिक भी धर्मात्मा बन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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