Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 37
________________ २२१.. अङ्क ७-८) वेश्यावृत्य-स्तोत्र।। परंतु फिर भी तिरस्कार पाती हैं अपनेको धि- इतने कायर हैं कि पापोंसे ही डरते हैं वे इस कारती हैं-अपने इस दासत्वमय जीवनकी निन्दा संसारसमुद्रसे कैसे पार उतर सकते हैं ? पार करती हैं-और उस महाभाग्यशालिनी देवीके वे ही उतर सकते हैं जो पापोंकी जरा भी पर्वाह जीवनकी सराहना करती हुई, उसे धन्य कहती नहीं करते और न उनसे कुछ भय खाते हैं ! बुई और यह समझती हुई कि पुरुषोंको ऐसी प्रत्युत, पापियोंको उनके पापाचरणमें बराबर स्त्रियाँ पसंद आती हैं, आप भी तद्रूप होनेकी सहायता प्रदान करते रहते हैं ! महानुभाव ! भावना करती हैं ! बहुतसी स्त्रियोंकी व्यभि- यह अभया दशा और यह निर्भय पदकी प्राप्ति चारसे घृणां उठ जाती है ! और किसी किसी- आपके ही द्वारा साध्य होती है ! आपके प्रसाका लज्जाबंधन तो यहाँतक टूट जाता है कि दसे गुरुजनोंका, पञ्च-पंचायतका, और राज्यका वे परपुरुषके साथ घरके जेलखानेसे निकल भी कोई भय नहीं रहता ! आप लज्जा तथा भागती हैं और इसतरह अपनेको स्वतचा- पापादिजन्य भयोंको दूर करके स्वतंत्रता प्रदान रिणी बना लेती हैं ! महोदय ! यह सब आपकी के करनेवाले हैं । भले ही आपके कारण मनुष्य ही करामात है ! आपके कृपाकटाक्षसे भक्तजन घरका या घाटका न रहे परंतु वह स्वतंत्र जरूर हो जाता है । स्वतंत्रता संसारमें उन पंच पापोंका जरा भी भय नहीं करते जरा मा भय नहा करत बड़ी ही स्पृहणीय वस्तु है । सारा संसार हो जिनसे अच्छे अच्छे महात्मा तथा योगिजन उसके पीछे मारा मारा फिरता है । हर डरते और घबराते हैं । वे वेश्या महादेवीकी एक यही चाहता है कि मैं स्वतंत्र अथवा स्वाधीन आराधनाके लिये सब कुछ पापाचरण करनेको बन जाऊँ; और यह बात है भी अच्छी । क्यों तय्यार रहते हैं । उसे मांस चढ़ाते हैं, शराबकी कि परतंत्रता अथवा पराधीनतामें दुःख ही दुःख बोतलें पिलाते हैं; उसके कारण झठ मरा हुआ है । कहा भी है-“ पराधीन सुपने बोलते हैं, चोरीतक करते हैं, जेवर कपडा सुख नाहीं ।” जब स्वतंत्रता जैसी अच्छी वस्तु छीनकर या अन्य प्रकारसे अपनी ही आपकी बदौलत प्राप्त होती है फिर आपके स्त्रीको सताते हैं, और यह बात तो सब जानते बराब बराबर उपास्य और कौन हो सकता है ? हैं कि उक्त महादेवीको जो कुछ भेट पजा , महाभाग्य ! इस तरह आप स्वार्थचिन्ताओंका चढ़ाई जाती है उससे वह गौ आदिकी कुर्बानी, नाश करनेवाले और लज्जा तथा पापादिजन्य जरूर करती है परंतु फिर भी भक्तजन उसके चर- भीतियोंको दूर, करके स्वतंत्रता प्रदान करनेणोंमें बराबर द्रव्य अर्पण किये जाते हैं और वाले हैं । अतः आपको हमारा साष्टांग प्रणाम इस बातकी जरा भी पर्वाह नहीं करते कि है ! आप हमारे ऊपर दूरसे ही कृपादृष्टि रक्से उसके द्वारा कितने गोवंशका नाश होगा और और हमेशा हमें ऐसी बुद्धि प्रदान करते रहें। कितने मूक पशुओंकी जाने जायेंगी । यह जिससे हम आपको इसी प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा कितनी बड़ी निर्भीकता है ! भला जो लोग याद करते रहें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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