Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 48
________________ २३२ सुर-दुर्लभ बहुमूल्य भवनमें भोग भरें हैं ॥ हैं सब निष्फल, जो शरीरमें रोग भरे हैं ॥ परिणत होगी कार्यमें, तभी शास्त्रकी योग्यता । धर्म, अर्थ, कामादिप्रद, जो होगी आरोग्यता ॥ जैनहितैषी - ५ गुणस्थानक्रमारोह, सानुवाद । लेखक, श्रीयुत मुनि तिलकविजयजी । प्रकाशक श्री आत्मतिलक - ग्रंथ - सोसायटी, रतनपोल, अह मदाबाद | पृष्ठसंख्या, २०० । मूल्य, बारह आने । यह मूल ग्रंथ अपने विषयका एक छोटासा - १३६ पर्योका - संग्रहग्रंथ है जिसे श्रीरत्नशेखर सूरि नामके श्वेताम्बर आचार्यने अनेक प्राचीन ग्रंथों परसे उद्धृत करके बनाया है । ग्रंथका विषय उसके नामसे ही प्रकट है । इसमें १४ गुणस्थानोंका संक्षेपसे स्वरूपवर्णन किया गया है । मूलकी भाषा संस्कृत और अनुवादकी भाषा हिन्दी है | अनुवादक हैं मुनि तिलकविजयजी पंजाबी | आपने अनुवाद के साथ साथ अपनी व्याख्याएँ लगाकर ग्रंथकी उपयोगिताको बहुत कुछ बढ़ानेका यत्न किया है । इन व्याख्याओंमें ही आपने श्रावकके बारह व्रतों, चार प्रकारके ध्यानों और १४ मार्गनाओंका भी कुछ विस्ता रके साथ वर्णन कर दिया है जो मूलमें नहीं है । अनुवाद प्रायः अच्छा हुआ है और सुबोध भाषामें लिखा गया है । छपाई, सफाई और कागज भी सब अच्छे हैं । सुन्दर जिल्द बँधी हुई है । परंतु छपनेमें अनेक स्थानोंपर कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं । बाईसवें श्लोक में ' त्रितुवा' का अर्थ ' अथवा चतुर्थ भवमें ऐसा किया गया है जो ठीक नहीं, उसमें चतुर्थसे पहले ' तृतीय' शब्द और आना चाहिये था । हमारे खयालमें इस प्रकारकी अशुद्धियाँ भी छापेकी ही अशुद्धियाँ मालूम होती हैं। इनके सिवाय पुस्तक में उर्दू फार्सीके शब्दों के कुछ अशुद्ध प्रयोग भी पाये जाते हैं, जैसे नसा, होस, याने, दानत, पेस इत्यादि । पुस्तक में , Jain Education International [ भाग १४ विषय सूची नहीं लगाई गई जिसका लगना बहुत जरूरी था । इसी तरह श्लोकानुक्रमणिका भी नहीं है । फिर भी पुस्तक उपयोगी, पढ़ने और संग्रह किये जानेके योग्य है । साथमें, मुनि तिलकविजय और वल्लभविजयजीके दो फोटू भी हैं । ६ परिशिष्ट पर्व, प्रथम व द्वितीय भाग । मूल्य, प्रथम भाग बारह आने, द्वितीयभाग आठ आने । मिलनेका पता, ' श्री आत्मतिलक - ग्रंथ - सोसायटी, अहमदाबाद ।' पंजाबी हैं । यह श्वेताम्बराचार्य श्री हेमचंद्र के इस पुस्तक के लेखक भी मुनि तिलकविजयजी 6 परिशिष्ट पर्व ' नामक संस्कृत ग्रंथका अनुवाद है । अनुवाद के साथमें मूल लगा हुआ नहीं है और न मूलसे अनुवादको जाँचनेका हमें अवसर मिला । पुस्तकमें श्वेताम्बर सम्प्रदायानुसार, महावीरस्वामी के बाद होनेवाले खास आचार्योंका जम्बूस्वामी आदि खास जीवनचरित्र है । इतिहासकी दृष्टिसे पुस्तक अच्छी पढ़ने और संग्रह किये जानेके योग्य है। इस पुस्तक के साथ भी विषयसूची लगी हुई नहीं है । पहले भाग में मुनि तिलकविजय और उनके गुरु मुनि ललितविजयजीके दो सुन्दर फोटू लगे हुए हैं । ७ मकली और असली धर्मात्मा । यह हिन्दी भाषामें लिखी हुई २०० साधारण पृष्ठकी पुस्तक समाजके चिरपरिचित विद्वान बाबू सूरजभानजी वकीलकी बनाई हुई है, ' सत्योदय ' मासिकपत्रके उपहार में बाँटी गई है, और इस समय बाबू चंद्रसेनजी जैन वैद्य इटावा के पाससे आठ आने मूल्यमें मिलती है । पुस्तक में कुछ औपन्यासिक ढंगसे, एक कथाके रूपमें, नकली और असली धर्मात्माओंका चित्र खींचा गया है । चित्र एक नहीं 2 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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